________________ 3. वानप्रस्थाश्रम-तीसरे भाग में जब बालों में सफेदी आ जाये और पौत्र का जन्म हो जाये, तब पत्नी को पुत्रों के संरक्षण में छोड़कर या वह चाहे तो साथ लेकर वानप्रस्थ अंगीकार करे। 4. संन्यासाश्रम-चौथे भाग में विकारों पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त करके मोक्ष मार्ग की आराधना करे। वैदिक संस्कृति की इस क्रमबद्ध व्यवस्था को जैन संस्कृति में अनिवार्य नहीं माना है। सामान्यत: यह क्रम अस्वीकृत भी नहीं है। जैन शास्रों में स्थान-स्थान पर यह वर्णन है कि अमुक कुमार या राजकुमार ने कलाचार्य के संरक्षण में विद्याओं और कलाओं का अभ्यास करके निष्णात होकर दाम्पत्य जीवन में प्रवेश किया। तत्पश्चात् अनुकूल निमित्त मिलने पर संसार से विरक्ति पाकर प्रव्रज्या अंगीकार की। लेकिन यह सब सहजरूपेण होता जाता था। यहाँ इस क्रम को नियम को अनुल्लंघनीय नहीं माना, जिस पर वैदिक ऋषियों ने बहुत बल दिया है। यदि कोई मुमुक्षु गृहस्थाश्रम में प्रवेश किये बिना ही और पुत्रोत्पत्ति किये बिना ही सीधा प्रव्रज्या (संन्यास) अंगीकार करता है तो वह सराहनीय है। उपरोक्त मान्यता को पुराणों में भी मान्य किया गया है। जैन परंपरा में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ बताई गई हैं—श्रमण धर्म तथा श्रावकधर्म / श्रावक धर्म उनके लिए है जो श्रमण धर्म को अंगीकार नहीं कर सकते। इनमें श्रावक धर्म के बाद ही श्रमण धर्म अंगीकार करना, ऐसा कोई कालिक पौर्वापर्य निश्चित नहीं है। जैन धर्मोक्त श्रावक धर्म के अन्तर्गत प्रारम्भिक तीनों आश्रम लिए जा सकते हैं एवं श्रमण धर्म की तुलना संन्यासाश्रम से हो सकती है। . गृहस्थधर्म (श्रावक धर्म) गृहस्थ धर्म का पराण तथा जैन साहित्य में विभिन्न स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होता है। जैन परंपरा में गृहस्थ रहते हुए धर्म का धारक श्रावक, श्रमणोपासक आदि कहलाता है। गृहस्थ धर्म को सागार धर्म भी कहा गया है। यह एक सीमित तथा सरल मार्ग है। धर्म का अणु (छोटा) रूप होते हुए भी इसका महत्त्व कम नहीं है, क्योंकि अन्य साधारण कामनाओं के दलदल में फंसे संसारी मनुष्यों की अपेक्षा तो एक धर्माचारी सद्गृहस्थ का जीवन महान् ही है। पुराणों में भी गृहस्थ धर्म को प्रचुर महत्त्व मिला है, उनमें इसे सभी आश्रमों का परिपोषक आश्रम होने से सबसे महत्त्वपूर्ण माना है। गृहस्थ की जीवनचर्या को बताते हुए वामन पुराण में कहा गया है-उसे देशविहित धर्म, श्रेष्ठ कुलधर्म और गोत्र के धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। उसी से अर्थ की सिद्धि करनी चाहिए। असत्प्रलाप, सत्य रहित निष्ठुर और आगम शास्त्र से असंगत वाक्य भी कभी न कहे .. 185 / पुराणों में जैन धर्म