________________ सींचिए, वह हरा-भरा नहीं होता। मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर हरे-भरे नहीं होते।७२ मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं, मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पुराण भी परिग्रह की मूल भावना आसक्ति को (तृष्णा को) त्याज्य बतलाते हैं। उनके अनुसार जल की आशा वाली मृगतृष्णा के समान ही दुःख को (आसक्तिवश) लोग सुख मानते हैं और उससे सन्ताप ही प्राप्त होता है। उसी आसक्ति के कारण राज्य पृथ्वी, सेना, कोष, मित्र, पुत्र, स्री, भृत्य, शब्दादि विषयों को अविनाशी और सुख मानकर ग्रहण करते हैं, परन्तु वे ही बाद में दुःख रूप सिद्ध होते हैं। तृष्णा की कभी भी तृप्ति नहीं होती है-अग्नि में ईंधन के समान ही विषयोपभोग से तृष्णा कभी शांत नहीं होती। भूमण्डल पर जितने भी धान्य, स्वर्ण, पशु, स्रियाँ आदि हैं, वे सब एक मनुष्य के लिए भी तृप्तिकारक नहीं हैं। कामनाओं के त्याग से ही मानव श्रीमान् (समृद्ध) होता है। केश, दंत, चक्षु, कर्ण सभी के जीर्ण हो जाने पर भी बुढापे में एक तृष्णा ही तरुण रूप से रहती है। मनुष्य का स्वभाव ऐसा होता है कि जिसके पास सौ रुपये होते हैं वह सहस्र की इच्छा करता है, सहस्र वाला लक्ष का अधिपति होना चाहता है, लक्षाधिपति एक विशाल राज्य प्राप्त करने की इच्छा रखता है, राजा चक्रवर्ती सम्राट बनने की लालसा रखता है, चक्रवर्ती भी सुरत्व तथा सुरत्व की प्राप्ति के बाद इन्द्रपद की चाह रखता है; तत्पश्चात् भी तृष्णा शान्त नहीं होती। जैनागमों में भी कामनाएँ-इच्छाएँ अनन्त बताई हैं। यदि मेरु और कैलाश पर्वत जितने सोने-चाँदी के असंख्य पर्वत भी हो जायें तो मनुष्य को संतोष नहीं होता, क्योंकि इच्छाएं तो आकाश के समान अनन्त और असीम हैं। धन-धान्यादि से परिपूर्ण यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक मनुष्य को दे दी जाये तो भी उसकी इच्छा पूर्ण होना कठिन है। तृष्णा के लिए यह कथन उचित ही है कि जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई . परिग्रह परिहार . जैन धर्म तथा पुराणों में बढ़ती हुई इस तृष्णा की ज्वाला को शांत करने के लिए सन्तोष रूपी जल ही बताया गया है। व्यक्ति परिग्रह को मात्र अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही जुटाता है। मन के पीछे ही इन्द्रियाँ शरीर आदि हैं। पुराणों में उपमापूर्वक इनका विनियोजन किया गया है इसमें पाँच इन्द्रियाँ पाँच अश्व के समान हैं, शरीर रथ के समान, आत्मा रथी (यात्री), ज्ञानकशा एवं मन सारथी के समान सामान्य आचार/ 140