________________ करता है तो मनुष्य तो सब कुछ जानने वाला होते हुए भी दूसरों के कुछ काम नहीं . आता है तो वह जीवित रहते हुए भी मृत के समान ही है / 143 / ___ जैन धर्म में भी परोपकार को सुख शान्ति का हेतु बताया गया है। भगवती सूत्र में यही कहा गया है कि जो दूसरों के सुख एवं कल्याण का प्रयत्न करता है वह स्वयं भी सुख एवं कल्याण को प्राप्त करता है। अनाश्रित, असहाय जनों को सहयोग एवं आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिए।" उपर्युक्त सेवा सम्बन्धित समस्त कर्तव्यों में मुख्यतः स्वार्थवृत्ति एवं अहंकार वृत्ति का त्याग करना पड़ता है। अहंकार के सद्भाव में विवेक का अभाव हो जाता है, यही सर्वनाश का मूल है। जिसके हृदय में अहंकार छा जाता है उसका विनाश बहुत ही वेग से होने लगता है। अहंकारपूर्वक भगवद्भक्ति-गुरुजनों का विनय किया जाये तो व्यर्थ है। परोपकार करते हुए अहंभाव रखना दूध में काचरे के बीज के समान सब सत्कार्य नष्ट कर देता है। ___ अन्ततः सेवा धर्म का पूर्ण विवेचन न कर पाने के कारण यही कहा जा सकता है-“सेवाधर्मो परम गहनो योगिनामप्यगम्यः” संत तुलसीदास भी कहते हैं-“सेवा धरम कठिन जग जाना" दान - तत्त्वार्थसूत्रकार ने दान की यह परिभाषा की है-“अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसों दानम्"९४५ अर्थात् अनुग्रह के निमित्त अपनी वस्तु का त्याग कर देना ही दान है। बहुव पुरानी उक्ति है-“दिवानिश जल-संग्रह में निरत सागर को रसातल में स्थान मिला, इसके विपरीत जल ग्रहण कर पृथ्वी-मण्डल पर बरस कर असंख्य प्राणियों का उपकार करके बादल आकाशगामी बनकर गौरव से नभोमण्डल में गर्जन करता है।"१४६ दान के दाता (देने वाला), पात्र (लेने वाला), विधि विशेष द्रव्यादि के विवेकपूर्वक इस धर्म को धारण किया जाता है। दाता दाता के सम्बन्ध में स्कन्ध पुराण के अनुसार-अपरोगी, धर्मात्मा, दित्सु (देने का इच्छुक), अव्यसन, शुचियुक्त, अनिंद्य आजीविका वाला “दाता" प्रशस्त होता है, इसके विपरीत अधम होता है। जैनागम स्थानांग में भी मेघ की तरह चार प्रकार के व्यक्ति बताये हैं * कुछ बोलते हैं, देते नहीं। * कुछ देते हैं, किन्तु कभी बोलते नहीं। * कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं। सामान्य आचार / 158