________________ तत्त्व है। क्षमा तत्त्वज्ञान की भांति मोक्ष प्रदायिका होने से धर्म रूप है। क्षमा ही सत्य, दान, यश है। ज्ञानी पुरुषों ने क्षमा को ही स्वर्ग की सीढ़ी कहा है।२ क्षमा, समत्व, समता, शम-ये सभी लगभग एकार्थक शब्द हैं। मार्कण्डेय पुराण में दत्तात्रेय का कथन है व्यक्ति को समत्व का ही ध्यान रखना चाहिए। मान या अपमान से प्रसन्न या अप्रसन्न आम लोग हो जाते हैं, किन्तु जब ये विपरीत स्थिति में होते हैं तो योगियों को सिद्धि प्राप्त होती हैं। नारद पुराण तथा लिंग पुराण का भी यही आशय है। विष्णु पुराण में समदर्शी चित्त की परिभाषा इस प्रकार से है-वह स्वादुअस्वादु, इष्ट-अनिष्ट आदि नहीं देखता, क्योंकि कोई भी पदार्थ आदि, मध्य और अन्त में एक-सा नहीं रहता। क्षमा ही साधु पुरुषों का भूषण है।३ / / क्षमा धर्म का सुष्ठु रूप से पालन तभी हो सकता है जब व्यक्ति लोभ. क्रोध या मान से ग्रस्त न हो। क्षमा के मूल में निस्पृहता, विरागता, निरहंकारिता, अक्रोधता होती है। राग एवं द्वेष छोड़ने पर ही इसकी साधना हो सकती है। पुराणान्तर्गत आये हुए एक कथानक में शुक्राचार्य द्वारा क्रोधाविष्ट उनकी पुत्री को समझाते हुए कहा गया है-“यह निश्चय है कि जो मनुष्य दूसरों के कठोर वचन (दूसरों द्वारा की हुई अपनी निन्दा) को सह लेता है, उसने मानों इस सम्पूर्ण जगत पर विजय प्राप्त कर ली है। जो उभरे हुए क्रोध को घोड़े के समान शान्त कर लेता है, वही सत्पुरुषों द्वारा सच्चा सारथी कहा गया है; जो केवल बागडोर लेकर या लगाम पकड़कर लटकता रहता है वह नहीं। जैसे साँफ पुरानी केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार जो मनुष्य उभरने वाले क्रोध को वहीं क्षमा द्वारा त्याग देता है; वही श्रेष्ठ पुरुष है। जो श्रद्धापूर्वक धर्माचरण करता है, कड़ी से कड़ी निन्दा संह लेता है और दूसरे के सताने पर भी दुःखी नहीं होता, वही सब पुरुषार्थों का सुदृढ़ पात्र है। एक व्यक्ति, जो सौ वर्षों तक प्रत्येक मास में अश्वमेध यज्ञ करता जाता है और दूसरा जो किसी पर भी क्रोध नहीं करता, उन दोनों में क्रोध न करने वाला ही श्रेष्ठ है। अबोध बालक-बालिकाएं अज्ञानवश आपस में जो वैर-विरोध करते हैं, उनका अनुकरण समझदार मनुष्यों को नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे नादान बालक दूसरों के बलाबल को नहीं जानते / इससे आगे इन्द्र को दिया गया ययाति का यह उपदेश भी इस सन्दर्भ में दृष्टव्य है-क्रोध करने वाले से अक्रोधी श्रेष्ठ है। मनुष्येतर प्राणियों से मनुष्य श्रेष्ठ है, मूर्यो से विद्वान श्रेष्ठ है। यदि कोई किसी की निन्दा करता है, गाली देता है तो भी वह बदले में निन्दा या गाली गलौच न करे, क्योंकि जो गाली या निन्दा सह लेता है, उस पुरुष का आन्तरिक दुःख ही गाली देने वाले या अपमान करने वाले को जला डालता है, साथ ही उसके पुण्य को भी वह ले लेता है। क्रोधादिवश किसी के मर्मस्थान में चोट न पहुँचाये (मार्मिक पीड़ा न दे), कठोर वचन मुँह से न निकाले. अनुचित उपाय से शत्रु को वश में न करे, जो जी को जलाने वाली व उद्वेग कराने . 143 / पुराणों में जैन धर्म