________________ सुख-दुःख मानता है। व्यक्ति और किसी को मार नहीं सकता, न शासित कर सकता है तथा न ही परिताप दे सकता है, क्योंकि जिसे भी मारना आदि चाहे वह खुद ही है। क्योंकि स्वरूप दृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं, यह अद्वैतभावना (अभेदानुभूति) ही अहिंसा का मूलाधार है। * जिस प्रकार जैनागमों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि अर्थात् स्थावर-जंगम सभी को सजीव मानकर उनके प्रति अहिंसा पालन करने के लिए कहा है। यही बात पुराणों में भी कही गई है। पर्वतादि समस्त स्थानों पर विष्णु है जले विष्णुः स्थले विष्णुः, विष्णुपर्वतमस्तके जालामालाकुले विष्णुः सर्वं विष्णुमयं जगत् / / गीता का भी यही आशय है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं “चैतन्य, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल, वनस्पति एवं चलने-फिरने वाले सभी प्राणियों मैं हूँ। इस प्रकार मुझे सर्वव्यापक जानकर जो मेरी हिंसा नहीं करता है, मैं उसे नहीं मारता। विष्णु को सर्वव्यापक मानते हुए विष्णुपुराण ने भी यही इंगित किया है कि चूंकि विष्णु सर्व व्यापक है, अतः हिंसा करने वाला इन्हीं की हिंसा करता है। जो व्यक्ति हिंसा से अपने को अलग रखता है, उससे हमेशा ही विष्णु सन्तुष्ट रहते हैं।" हिंसा को सब पातकों की जड़ माना है। इसे एक प्रतीकात्मक कथा द्वारा विष्णुपुराण में बताया गया है कि अधर्म की पत्नी हिंसा थी। उसके पुत्र अनृत् तथा निकृति से भय व नरक नामक पुत्र हुए, जिनकी पत्नियाँ माया और वेदना थीं। माया ने संहारकर्ता मृत्यु को. जन्म दिया और वेदना से व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार संसार के समस्त दुःखों के मूल में हिंसा ही है।८ " जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि हिंसा केवल कार्य से ही नहीं, भाव से भी होती है। इस सन्दर्भ में पुराणों में भी कहा गया है कि मन के द्वारा पाप (हिंसा) का विचार करना भी हिंसा है। जो मनुष्य दूसरों का अनिष्ट नहीं सोचता, उसका भी कभी अनिष्ट नहीं होता। अतः कभी किसी का अहित चिंतन न करें तथा सभी के साथ मैत्री भाव रखें। वाचिक हिंसा का भी प्रतिरोध किया गया है।९ . पुराणवत् जैन धर्म में भी वाचिक हिंसा को प्रतिषिद्ध करते हुए उसके दुष्परिणाम बताये हैं। लोहे का शूल चुभा हो तो दो घड़ी दुःख होता है और उसे सहजता से निकाला जा सकता है, परन्तु कठोर वाणीरूपी शूल चुभ जाए तो उसे सहजता से नहीं निकाला जा सकता है। वह वैर वध करने वाला तथा महा भय उत्पन्न करने वाला होता है।" इस प्रकार पुराणानुसार भी मन, वचन, कर्म तीनों द्वारा अहिंसा पालनीय है तथा जो इस प्रकार सर्वत्र और सर्वदा हिंसा का परिहार करता है, उसकी सभी रक्षा : - 125 / पुराणों में जैन धर्म