________________ (1) सम्यग्दर्शन जो महत्त्व नगर के लिए द्वार का, चेहरे के लिए चक्षु का, वृक्ष के लिए मूल का है. वही महत्त्व धर्म के लिए सम्यग्दर्शन का है। दर्शनपूर्वक ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप होता है।०३ संसार में ऐसा कोई रन नहीं, जो सम्यक्त्वरल से बढ़कर हो। सम्यक्त्व से बढ़कर कोई मित्र, बंधु या लाभ हो ही नहीं सकता। ज्ञान तथा चारित्र से रहित होने पर भी सम्यग्दर्शन प्रशंसा के योग्य है, किन्तु मिथ्यात्व विष से दूषित ज्ञान और चारित्र प्रशंसित नहीं होते। सम्यग्दर्शन ज्ञान तथा चारित्र का बीज है, व्रत, महाव्रत और उपशम के लिए जीवनस्वरूप है, तप और स्वाध्याय का आश्रयदाता है। इस प्रकार शमादि सभी को यह सफल करने वाला है। 5 वस्तुतः दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं, उसमें चारित्रिक गुण नहीं होते, ऐसे गुणहीन पुरुष की मुक्ति नहीं होती एवं मुक्ति के बिना शाश्वत सुख की प्राप्ति भी नहीं होती।१०६ सम्यग्दर्शन की परिभाषा उमास्वाति के अनुसार इस प्रकार है-"तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।१०७ यहाँ श्रद्धा, विश्वास का तात्पर्य अन्धश्रद्धा से नहीं, सम्यग्दृष्टि से है। उत्तराध्ययन में सम्यग्दर्शन को स्पष्ट करते हुए कहा है-स्वयं ही अपने विवेक से अथवा किसी के उपदेश से सद्भूत तत्त्वों के अस्तित्व में आन्तरिक श्रद्धा या विश्वास करना सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व की एक परिभाषा यह भी है-देव के विषय में देवबुद्धि रखना, गुरु के प्रति गुरुबुद्धि रखना तथा धर्म में शुद्ध धर्मबुद्धि सम्यक्त्व कहलाती है।०९ सम्यक्त्व से विपरीत मिथ्यात्व को परम शल्य, परम विष तथा बंध का कारण बताते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वरूपी महादोष जीवन के लिए जितना भयंकर दुःखदायी है, उतनी न अग्नि भयकारक है, न हलाहल विष और न विषधर कृष्ण भुजंग ही है। जितने उत्कृष्ट लाभ सम्यक्त्व से हैं, उतनी ही निकृष्ट हानियाँ मिथ्यात्व से हैं। .. सम्यग्दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति मूढ़ताओं (लोक मूढ़ता, देव मूढ़ता, पाखण्डी मूढ़ता), अंधविश्वासों से मुक्त रहता है, उसके पाँच लक्षण बताये गये हैं-(१) शम (उत्तेजित होते हुए क्रोधादि कषाय भावों को शांत करना), (2) संवेग (मोक्ष की अभिलाषा), (3) निर्वेद (संसार से. उदासीनता, वैराग्य), (4) अनुकंपा (दुःखियों के दुःख मिटाने की भावना) तथा (5) आस्था (धर्म में दृढ़ विश्वास)।१० - सम्यग्दर्शन के कारण आसक्ति घटती जाती है। व्यक्ति निराकांक्षी होता जाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार-"व्यक्ति विद्वान, भाग्यवान तथा पराक्रमी होने पर भी यदि उसका दृष्टिकोण मिथ्या (असम्यक्) है, तो उसका दान तप समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा से होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न ले जाकर बंधन की ओर ही ले जायेगा।१११ सम्यग्दर्शन के अभाव में व्यक्ति में आत्मा में 105 / पुराणों में जैन धर्म