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प्रवचनसार अनुशीलन विलय को प्राप्त होते हैं। इसप्रकार नमस्कार में स्वसन्मुख लीनतारूप अद्वैत प्रवर्तता है।
चिदानन्द स्वभाव में एकरूप ढल जाना वह अभेद-अद्वैत नमस्कार
द्रव्यनमस्कार और भावनमस्कार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में लिखते हैं कि मैं आराधक हूँ और ये अरहंतादि आराध्य हैं - इसप्रकार के आराध्य-आराधक की भिन्नता के विकल्परूप नमस्कार द्वैतनमस्कार (द्रव्यनमस्कार-व्यवहारनमस्कार) है
और रागादि उपाधिरूप विकल्पों से रहित परमसमाधि के बल से स्वयं में ही आराध्य-आराधक भाव अद्वैतनमस्कार (भावनमस्कार-निश्चयनमस्कार) कहा जाता है।
द्रव्यनमस्कार शुभभावरूप होने से कषायकण की विद्यमानता के कारण पुण्यबंध का कारण है और भावनमस्कार कषायकलंक से भिन्न शुद्धोपयोगरूप होने से निर्वाण का कारण है। अतः आचार्यदेव द्रव्यनमस्कारपूर्वक शुद्धोपयोगरूप साम्यभाव को प्राप्त होकर भावनमस्कार करते हैं। तात्पर्य यह है कि आचार्यदेव शुद्धोपयोगरूप साम्यभाव को प्राप्त होकर साम्यभावरूप धर्म के प्रतिपादन की प्रतिज्ञा करते हैं। ___ आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति की यह विशेषता है कि प्राय: सर्वत्र ही निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक खण्डान्वय पद्धति से विषयवस्तु को स्पष्ट करते हैं । उक्त पद्धति का प्रयोग उन्होंने यहाँ भी किया है। उदाहरण के रूप में धम्मस्स कत्तारं का अर्थ करते हुए वे लिखते हैं कि निश्चय से निरूपराग आत्मतत्त्व की निर्मल परिणतिरूप निश्चयधर्म के उपादानकारण होने से वे भगवान वर्द्धमान निश्चयरत्नत्ररूप धर्म के कर्ता हैं और व्यवहार से दूसरों को उत्तमक्षमा आदि अनेकप्रकार के धर्मों का उपदेश देनेवाले १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३०-३१
गाथा-१-५ होने से व्यवहार धर्म के कर्ता हैं।
विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं पद की व्याख्या में वे स्पष्टरूप से लिखते हैं कि मठ चैत्यालय आदि रूप व्यवहार आश्रम से भिन्न लक्षणवाले, रागादि से भिन्न अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुखस्वभावी परमात्मा है - ऐसा भेदज्ञान तथा सुखस्वभावी आत्मा ही पूर्णत: उपादेय है - ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व - इन लक्षणोंवाले ज्ञान-दर्शनस्वभावी आश्रम ही भावाश्रम है, निश्चय आश्रम है, वास्तविक आश्रम है।
आचार्य जयसेन के समय में न केवल मठों की स्थापना हो गई थी; अपितु उनका वर्चस्व भी सर्वत्र हो गया था और उन्हें आश्रम माना जाने लगा था। आचार्यदेव का उक्त कथन मठों के सन्दर्भ में अरुचिपूर्वक की गई शुद्ध सात्त्विक टिप्पणी है।
आचार्यदेव ने आश्रम शब्द की उक्त आध्यात्मिक व्याख्या भी इसी बात को ध्यान में रखकर बुद्धिपूर्वक की है। यदि ऐसा न किया जाता तो आचार्य कुन्दकुन्द भी मठरूप आश्रम को प्राप्त हुए होंगे - ऐसा समझ लिया जाता।
प्रश्न - यहाँ आचार्य मुनिराजों के कषायकण विद्यमान हैं - ऐसा लिखते हैं। अरे ! मुनिराजों ने तो घर-परिवार सबकुछ त्याग दिया है, यदि उनके भी कषाय विद्यमान है तो फिर उस कषाय का क्या रूप होगा?
उत्तर - निरन्तर छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले मुनिराजों के यद्यपि अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ तथा तत्संबंधी हास्यादि कषायों का अभाव है; तथापि अभी संज्वलन कषाय तो विद्यमान ही हैं। यहाँ वह संज्वलन कषाय ही कषायकण है और उसके उदय में होनेवाले महाव्रतादि के शुभभाव ही उनका व्यक्त स्वरूप हैं।
पण्डित टोडरमलजी के अनुसार मुनिराजों के अशुभोपयोग का तो