Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ प्रवचनसार अनुशीलन आचार्यों, उपाध्यायों और सर्वसाधुओं को नमस्कार करते हैं। इसके बाद बिना किसी भेदभाव के उन सभी को जो परमेष्ठी पर्यायों को प्राप्त कर चुके हैं; समुदायरूप से एवं व्यक्तिगतरूप से स्मरण करते हैं। वर्तमानकाल में इस भरतक्षेत्र में अरहंतों का अभाव होने से और महाविदेह क्षेत्र में सद्भाव होने से मनुष्यक्षेत्र में अर्थात् ढाईद्वीप के सभी विदेह क्षेत्रों में विद्यमान सीमन्धरादि तीर्थंकरों को अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक शास्त्रों में उल्लखित विधिपूर्वक नमस्कार करते हैं। प्रश्न - यहाँ मनुष्यक्षेत्र में विद्यमान अरहंतों को - ऐसा क्यों लिखा है ? ऐसा क्यों नहीं लिखा कि विद्यमान बीस तीर्थंकरों को................। उत्तर - अरे, भाई ! मूलगाथा में ही माणुसे खेत्ते पद का प्रयोग किया गया है; उसी का अनुसरण टीका में किया गया है। प्रश्न - मूल गाथा में इसप्रकार के प्रयोग करने का कोई विशेष अभिप्राय है क्या ? उत्तर - मनुष्य ढाईद्वीप में अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत के इसतरफ ही पाये जाते हैं; अत: ढाईद्वीप को मनुष्यक्षेत्र कहते हैं। मनुष्यक्षेत्र अर्थात् ढाईद्वीप में पाँच विदेह हैं। उनमें कम से कम २० तीर्थंकर अरहंत तो सदा होते ही हैं; किन्तु यदि अधिक से अधिक हों तो १७० तीर्थंकर भी एक साथ हो सकते हैं। भगवान अजितनाथ के समय १७० तीर्थंकर अरहंत अवस्था में एकसाथ विद्यमान थे। अभी वर्तमान में कितने हैं - इसका उल्लेख प्राप्त न होने से यह लिखना ही ठीक है कि वर्तमान में मनुष्यक्षेत्र अर्थात् ढाईद्वीप में जितने भी तीर्थंकर अरहंत अवस्था में विद्यमान हों; उन सभी को नमस्कार करता हूँ। इसप्रकार हम देखते हैं कि माणुसे खेत्ते पद पूर्णत: सार्थक होने के साथ-साथ अत्यन्त विवेक पूर्वक किया गया प्रयोग है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव का यह प्रवचनसार ग्रन्थ ही एक ऐसा ग्रन्थ है गाथा-१-५ २५ कि जिसके मंगलाचरण में वे इतने विस्तार से विशेष उल्लेखपूर्वक पंचपरमेष्ठी भगवन्तों को नमस्कार करते हैं। __आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्दका यह मंगलाचरण परमनिर्ग्रन्थ मुनिदशा की दीक्षा का उत्सव होने से मानो मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर का ही उत्सव है। जिसप्रकार स्वयंवर में राजकन्या को प्राप्त करने को विभिन्न देशों के सुयोग्य राजकुमार एकत्रित होते हैं; उसीप्रकार यहाँ मुक्तिरूपी राजकन्या को वरण करने के लिए परमनिर्ग्रन्थ दीक्षा के धारक साधुसंत इकट्ठे हुए हैं। जिसप्रकार स्वयंवर के उत्सव में समाज के प्रतिष्ठित पुरुषों को भी बुलाया जाता है और उनका यथायोग्य आदर-सत्कार किया जाता है; उसीप्रकार यहाँ मुक्तिकन्या के स्वयंवर में उसे वरण की अभिलाषा वाले दीक्षार्थी तो आये ही हैं; अपितु पंचपरमेष्ठियों का भी आह्वान किया गया है और उन्हें किया जानेवाला द्रव्य-भावनमस्कार ही उनका शास्त्रविहित विधि के अनुसार सम्मान है। स्वयंवर में मान्य अतिथियों के स्वागत में जिसप्रकार मंगलगीत गाये जाते हैं; मंगलाचरण के ये छन्द भी उसीप्रकार के गीत हैं। उक्त प्रकरण का सांगोपांग वर्णन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी बड़े ही भावुक होकर करते हैं; जिसका महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार है__"मोक्षलक्ष्मी चारित्र धारण करनेवाले को ही वरण करती है। मोक्षलक्ष्मी का स्वयंवर मण्डप लगाया गया है, जिसमें सभी भगवानों को एकत्रित किया गया है। स्वरूप में रमण करना ही चारित्र है। मोक्षरूपी लक्ष्मी चारित्रवंत के कंठ में ही हार (वरमाला) डालती है।' इस महोत्सव में कुन्दकुन्दाचार्य ने सभी भगवंतों को बुलाया है। जैसे विवाह में बड़े लोगों को साथ में लाते हैं। यदि कन्या का पिता इन्कार करे १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२८

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 227