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प्रवचनसार अनुशीलन अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं के आश्रम को; जो कि विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधान आश्रम होने से सहज शुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले आत्मतत्त्व का श्रद्धान और ज्ञान है लक्षण जिसका, ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का संपादक है, उसे प्राप्त करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्पन्न होकर, जिसमें कषायकण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्यबंध की प्राप्ति का कारण है - ऐसे सरागचारित्र को क्रम से आ पड़ने पर भी उल्लंघन करके जो समस्त कषाय क्लेशरूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण की प्राप्ति का कारण है - ऐसे वीतराग चारित्र नाम के साम्य को प्राप्त करता हूँ।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप एकाग्रता को मैं प्राप्त करता हूँ - प्रतिज्ञा का यही अर्थ है । इसप्रकार उन्होंने (आचार्य कुन्दकुन्द ने) साक्षात् मोक्षमार्ग को अंगीकार किया।"
लोक में 'मैं' शब्द का प्रयोग असमानजातीय द्रव्य-पर्यायरूप मनुष्यपर्याय के अर्थ में होता है । वही अर्थ यहाँ न समझ लिया जाय - इस बात को ध्यान में रखकर इन गाथाओं का अर्थ आरंभ करने के साथ ही आचार्यदेव सर्वप्रथम 'मैं' शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि स्वसंवेदनज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञात होनेवाला ज्ञान-दर्शनस्वभावी आत्मा ही मैं हूँ।
तात्पर्य यह है कि इन गाथाओं के माध्यम से ज्ञान-दर्शनस्वभावी आत्मा में ही अपनापन अनुभव करनेवाले आचार्य कुन्दकुन्ददेव पंचपरमेष्ठी को स्मरण करते हुए साम्यभाव को प्राप्त होते हैं, साम्यभाव को प्राप्त होने की प्रतिज्ञा करते हैं।
इस युग के अन्तिम या चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमानस्वामी को वर्तमान तीर्थ के नायक होने से आचार्य कुन्दकुन्द सर्वप्रथम नमस्कार करते हुए कहते हैं कि उर्ध्वलोक के अधिपति सुरेन्द्रों, अधोलोक के अधिपति असुरेन्द्रों और मध्यलोक के अधिपति नरेन्द्रों से पूजित होने से जो तीन
गाथा-१-५ लोक के एकमात्र गुरु हैं; घातिकर्मरूपी मल को धो डालने से जिनमें जगत का उपकार करनेरूप अनंतशक्तिसम्पन्न परमेश्वरता प्रगट हुई है; जो तीर्थंकर होने से योगियों सहित सभी का कल्याण करने में समर्थ हैं, धर्म के कर्ता होने से अपनी शुद्धस्वरूप परिणति के कर्ता हैं और जिनका नाम ग्रहण भी परमहितकारी है - उन श्री परमभट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य वर्द्धमानस्वामी को नमस्कार करता हूँ।
देखो, यहाँ अरहंत भगवान को परमभट्टारक कहा है। अरहंत भगवान परमभट्टारक हैं, गणधरदेव भट्टारक हैं और अकलंकदेव जैसे समर्थ आचार्यों के लिए 'भट्ट' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उन्हें भट्टाकलंकदेव कहा जाता है । इसप्रकार हम देखते हैं कि भट्ट, भट्टारक, परमभट्टारक पद बड़े ही महान पद हैं; जिनका आज कितना अवमूल्यन हो गया है।
प्रश्न - यहाँ वर्द्धमान भगवान को तीनलोक का गुरु कहा गया है; किन्तु लोक में हजारों लोग ऐसे हैं, जो उन्हें नहीं मानते हैं, उनका विरोध करते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें तीनलोक का गुरु कैसे माना जा सकता है ?
उत्तर - जिसप्रकार भारत के प्रधानमंत्री जिस समझौते को स्वीकार कर लेते हैं, जिस समझौते पर हस्ताक्षर कर देते हैं; वह समझौता सम्पूर्ण भारतवर्ष को मान्य है - ऐसा मान लिया जाता है। उसीप्रकार तीन लोक में विद्यमान शत इन्द्रों द्वारा पूज्य हो जाने पर, शत इन्द्रों के गुरु हो जाने पर तीर्थंकर तीन लोक के गुरु मान लिये जाते हैं। इसप्रकार ऊर्ध्वलोक के अधिपति सुरेन्द्रों, मध्यलोक के अधिपति नरेन्द्रों और अधोलोक के अधिपति असुरेन्द्रों द्वारा गुरु मान लेने पर भगवान महावीर भी तीन लोक के गुरु मान लिये गये हैं।
इसप्रकार प्रथम गाथा में भगवान महावीर को नमस्कार कर अब दूसरी गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द शेष ऋषभदेव आदि २३ तीर्थंकर अरहंतों, सभी सिद्धों तथा पंचाचार से युक्त और शुद्धोपयोग की भूमिका को प्राप्त