Book Title: Prashnavyakaranasutram
Author(s): Abhaydevsuri,
Publisher: Agamoday Samiti
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जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्चेति, इह गाथा:-"अइसयचरणसमत्था जंघाविजाहि चारणा मुणओ। जंघाहि जाइ पढमो णिस्सं काउं रविकरेवि ॥१॥ एगुप्पाएण गओ रुयगवरंमि उ ततो पडिनियत्तो । बीएणं णंदीसरमिहं तओ एइ तइएणं ॥२॥ पढमेण पंडगवणं बिइउप्पाएण णंदणं एइ । तइउप्पारण तओ इह जंघा-1 चारणो एइ ॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरणगं स गंदीसरं बिईएणं । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहई ॥ ४॥ पढमेण णंदणवणे बीउप्पाएण पंडगवणम्मि । एइ इहं तइएणं जो विज्जाचारणो होइ ॥५॥" [अति
शयचरणसमर्था जङ्घाविद्याभ्यां चारणाः मुनयः । जङ्गाभ्यां याति प्रथमः निश्रां कृत्वा रविकिरणानपि॥१॥ हएकोत्पोतेन गतो रुचकवरे ततः प्रतिनिवृत्तो द्वितीयेन नन्दीश्वरमिहैति ततस्तृतीयेन ॥२॥ प्रथमेन पाण्डुक
वनं द्वितीयोत्पातेन नन्दनमायाति । तृतीयोत्पातेन तत इह जवाचारण आयाति ॥३॥ प्रथमेन मानुषोत्तरनगं स नन्दीश्वरं द्वितीयेन कृतचैत्यवन्दनस्ततस्तृतीयेन आयातीह ॥ ४ ॥प्रथमेन नन्दनवने द्वितीयोत्पातेन पाण्डुकवने । तृतीयेनायातीह यो विद्याचारणो भवति ॥५॥] 'चउत्थभत्तिएहिं' इह एवं यावकरणात् 'छट्ठभत्तिएहिं अट्ठमभत्तिएहिं एवं दुसमदुवालसचोद्दससोलसअद्धमासमासदोमासतिमासचउमास पंचमासा' इति द्रष्टव्यं, उत्क्षिप्त-पाकपिठरादुद्धतमेव चरन्ति-गवेषयन्ति ये ते उत्क्षिप्तचरकाः, एवं सर्वत्र, नवरं निक्षिप्त-पाकस्थालीस्थं अन्तं-बल्लचणकादि प्रान्तं-तदेव भुक्तावशेषं पर्युषितं वा रूक्षं-निःस्लेहं समुदानं-भैक्ष्यं "अन्नतिलाएहिंति दोषान्नभोजिभिः 'मौनचरकैः' वाचंयमैः, संसृष्टेन हस्तेन भाजनेन च
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