Book Title: Prakrit Vyakaranam
Author(s): Virchand Prabhudas Pandit
Publisher: Jagjivan Uttamchand Lehruchand Shah
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(१७९)
भवतः । वच्छहे गृण्हइ फलई जणु,कडु-पल्लव वज्जेइ । तोवि महमु मुअणु जिव ते उच्छङ्गि धरेई ॥
वच्छहु गृहइ ॥ १०१६. भ्यसो हुँ । ४. ३३७ । अपभ्रशे अकारात्परस्य भ्यसः
पञ्चमीबहुवचनस्य हुँ इत्यादेशो भवति । दूरुड्डाणे पडिउ खल्ल अप्पणु जणु मारेइ ।
जिह गिरि-सिङ्गहु पडिअ सिल अन्नुवि चूरु करेइ ॥ १०१७. उसः सु-हो-स्सवः । ४. ३३८ । अपभ्रंशे अका
रात्परस्य उसः स्थाने सु हो स्म इति त्रय आदेशा भ. वन्ति । जो गुण गोवइ अप्पणा,पयडा करइ परस्सु ।
तमु हउं कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किजउंमुअणस्सु ॥ १०१८. आमो हैं। ४. ३३९ । अपभ्रंशे अकारात्परस्यामो हमि
त्यादेशो भवति । तणहं तइज्जी भङ्गि नवि तें अवड-यडि वसन्ति ।
अह जणु लग्गिवि उत्तरइ, अह सह सई मज्जन्ति ॥ १०१९. हुं चेदुद्भ्याम् । ४. ३४० । अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां
परस्यामो हुँ हं चादेशौ भवतः। दइवु घडावह वणि तरुहुँ सउणिहं पक्क फलाई ।
सो वरि सुक्खु पइट्ट णवि कण्णहि खल-चयणाई । पायोऽधिकारात् क्वचित्सुपोपि हुँ--
धवलु विमूरइ सामिअहो गरुआ भरु पिक्खेवि-।
हउ कि न जुत्तउ दुहं दिसिहि खण्डइं दोण्णि करेवि ॥ १०२०. सि-यम् डीनां हे-हुं हयः । ४. ३४१ । अप.
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247