Book Title: Prakrit Vyakaranam
Author(s): Virchand Prabhudas Pandit
Publisher: Jagjivan Uttamchand Lehruchand Shah
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(१९१) भमरा एत्थु विलिम्बडइ केवि दियहदा विलम्बु । घण-पत्तल छाया-बहुल्लु फुल्लइ जाम कयम्बु ॥ आय.
प्रिय एम्वहिं करे सेल्लु करि छइहि तुहं करवाल।
जं कावालिय वपुडा लेहिं अभग्गु कवालु ॥ पक्षे-सुमरहि इत्यादि ॥ १०७५. वय॑ति-स्यस्य सः । ४. ३८८ । अपभ्रंशे भविष्य
दर्थविषयस्य त्यादेः स्यस्य सो वा भवति । दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि। जं अच्छइ तं माणिभइ होसइ करत म अच्छि ।
पक्षे-होडिइ.॥ १०७६. क्रियेः कीसु । ४. ३८९ । क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्या
पभ्रंशे कीमु इत्यादेशो वा भवति । सन्ता भोग जु परिहरइ तमु कन्तहो बलि कीसु ।
तसु दइवेणवि मुण्डियउं जसु खल्लिह डउं सीस : पक्षेसाध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृतशब्दादेष प्रयोग:
बलि किजउं सुअणस्सु ॥ १०७७. भुवः पर्याप्तो हुच्चः । ४, ३९० । अपभ्रंशे
भयो धातोः पर्याप्तावयें वर्तमानस्य हुच इत्यादेशो भवति । अइतुंगत्तणु ज थणहं सो च्छेयउ न हु लाहु ।
सहि जइ केवइ तुहि-वसेण अहरि पहुच्चा नाहु ॥ १०७८. गो ब्रुवो वा । ४. ३९१ । अपभ्रंशे गो धातोर्बुद
इत्यादेशो या भवति ।
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