Book Title: Prakrit Vyakaranam
Author(s): Virchand Prabhudas Pandit
Publisher: Jagjivan Uttamchand Lehruchand Shah

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Page 205
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२०२) दृष्टेनेंहिः-- एकमेकउं जइवि जोएदि हरि सुठु सव्वायरेण । तो वि देहि जहि कहिषि राही को सक्कर संवरेवि दइढ-नयणा नेहिं पलुहा ।। गाढस्य निरचट्टः-- विहवे कस्सु पिरतणउं जोव्वणि कस्सु मरट्टु । सो लेखडउ पढाविअइ जो लग्गइ निचटु ॥ असाधारणस्य सड्ढल:-- कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं परिहिणु कहिं मेहु । दूर-ठिआईवि सजणई होइ असड्ढलु नेहु ॥ कौतुकस्य कोड:कुञ्जह अन्नहं तरुअरह कुड्डेण घलइ हत्थु । मणु पुणु एकहि सल्लइहि जइ पुच्छह परमत्थु ॥ क्रीडायाः खेड्ड:खेड्डयं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयम्पह । अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामि ।। रम्यस्य रवण्ण:सरिहि न सरेहिं न सरवरेहिं नवि उजाण-बणेहिं । देस रवण्णा होन्ति वढ निवसन्तेहिं सुअणेहिं । अद्भुतस्य ढक्करिःहिअडा पइं एहु बोल्लिअओ महु अग्गइ सय-वार । फुहिम पिए पवसन्ति हउ भण्डय ढक्करि-सार ॥ हे सखीत्यस्य हेल्लि:-हेल्लि म झलहि आलु. पृथपथ गत्यस्य अंजुअ: For Private and Personal Use Only

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