Book Title: Prakrit Vyakaranam
Author(s): Virchand Prabhudas Pandit
Publisher: Jagjivan Uttamchand Lehruchand Shah
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(१८८) मुखि निहालहि गयण-यल कइ जण जोह करन्ति ॥ अम्बण लाइवि जे गया पहिअ पराया केवि। अवस न सुअहिं सुहच्छिअहिं जिन अम्हई तिव तेवि ॥ अम्हे देक्खइ. अम्हई देवखइ. वंचनभेदो यथासंख्य.
निवृत्यर्थः ॥ १०५६. टा-यमा मई। ४. ३७७ । अपभ्रंशे अस्मदः टा
डि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति । टा
मई जणि पित्र विरहिअहं कवि धर होइ विआलि ।
णवर मिअङ्कुवि तिह तवइ जिह दिणयरु खय-गालि॥ ङिना-पई मई बेहिंवि रण-गयहिं.
भमा--मई मेल्लन्तहो तुज्झु ॥ १०५७. अम्हेहिं भिसा । ४. ३७८ । अपभ्रंशे अस्मदो भिसा
सह अम्हेहिं इत्यादेशो भवति ।
तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किअउं॥ १०५८. महु मझु ङसि -उस्भ्याम् । ४. ३७९ । अ
पभ्रंशे अस्मदो उसिना इसा च सह प्रत्येक महु मझु इत्यादेशौ भवतः।
मह होन्तउ गदो. मझु होन्तउ गदो. ङसा
महु कन्त हो बे दोसडा हेल्लि म झलहि आलु । देन्तहो हउँ पर उवरिअ जुज्झन्तहो करवालु ॥ जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मझु पिएण ।
अह भग्गा अम्हहे तणा तो तें मारिअडेण ॥ १०५९. अम्हहं भ्यसामग्याम् । ४. ३८० । अपभ्रंशे अ
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