Book Title: Prakrit Vyakaranam
Author(s): Virchand Prabhudas Pandit
Publisher: Jagjivan Uttamchand Lehruchand Shah
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(१७८) संकर णिग्गउ रह-वरि चडिअउ । चउमुहु छमुहु झाइवि. एक्कहि ।
लाइवि गावइ दइवे घडिअउ ॥ १०११. सौ पुस्योदा । ४. ३३२ । अपभ्रंशे पुल्लिङ्गे वर्तमानस्य
नाम्नोऽकारस्य सौ परे ओकारो वा भवति । अगलिअ- नेह-निवडाह जोअण-लक्खुवि जाउ । परिस-सएणवि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ ॥ पुंसीति किम्अङ्गहि अङ्गु न मिलिउ हलि अहरें अहरु न पत्तु ।
पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु ।। १०१२. एहि । ४ ३३३ । अपभ्रंशे अकारस्य टायामकारो
भवति । जे महु दिण्णा दिअहहा दइएं पवसंतेण ।
ताण गणन्तिए अङ्गुलिउ जजरिआउ नहेण ॥ १०१३. ङि नेच्च। ४. ३३४ । अपभ्रशे अकारस्य डिना सह
इकार एकारश्च भवतः। साया उरपरि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई । सामि सुभिच्चुवि परिहरइ सम्माणेइ खलाई ॥ तले घल्लइ ।। भिस्येबा । ४. ३३५ । अपभ्रंशे अकारस्य भिसि परे एकारो वा भवति । गुणेहिं न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुअन्ति ।
केसरि न लहइ बोड्डिअवि, गय लक्खेहिं घेप्पन्ति । १०१५. उसेह-हूं। ४. ३३६ । अस्येति पञ्चम्यन्तं विपरिण
म्यते अपभ्रंशे अकारात्परस्य उसे हु इत्यादेशो
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