Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
गोयमा ! जहणेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं
सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई ॥ २१९ ॥
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भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! सातवीं अधः सप्तम ( तमस्तम: प्रभा) पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की कही गई है।.
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प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त्त की कही गई है।
प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त कम बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त कम तेतीस सागरोपम की कही गई है।
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विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सात नरक पृथ्वियों के नैरयिकों की अलग-अलग स्थिति का कथन किया गया है। पहले पहले की नरक पृथ्वी के नैरयिकों की जो उत्कृष्ट स्थिति है वही अगली अगली नरक पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति है। जैसे पहली रत्नप्रभा पृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है वही द्वितीय शर्कराप्रभा पृथ्वी की जघन्य स्थिति है । इसी प्रकार सभी जगह समझ लेना चाहिए।
चौबीस ही दण्डकों के जीवों की दो प्रकार की अवस्था होती है - १. पर्याप्त और २. अपर्याप्त । अपर्याप्त अवस्था दो प्रकार की होती है । यथा लब्धि अपर्याप्त और करण अपर्याप्त । नारक, देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य करण से ही अपर्याप्त होते हैं लब्धि से नहीं । वे उपपात काल से लेकर कुछ काल तक ही करण से अपर्याप्त रहते हैं फिर पर्याप्त हो जाते हैं, ये अपर्याप्त अवस्था में काल नहीं करते हैं। शेष मनुष्य और तिर्यंच लब्धि अपर्याप्त और करण अपर्याप्त दोनों प्रकार के अपर्याप्तक हो सकते हैं । युगलिक तिर्यंच पंचेन्द्रिय और युगलिक मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच और मनुष्य लब्धि अपर्याप्तक (अपर्याप्त अवस्था में) भी काल कर सकते हैं। जो करण अपर्याप्तक होते हैं वे करण अपर्याप्त अवस्था में काल नहीं करते हैं, अपितु करण पर्याप्तक होकर ही काल करते हैं । अपर्याप्तक अवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की ही होती है । परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जघन्य अन्तर्मुहूर्त दो समय से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त असंख्यात गुणा बड़ा होता है ।
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