Book Title: Paschattap
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 14
________________ 5... कहीं सुरक्षा न जाए मेरे पाप पानी में डाले हुए तेलबिन्दु के समान विस्तरित होने लगे। किसके साथ कब मिलना ? कब किसके साथ रहना ? इत्यादि योजनाओं से मेरा दिमाग चिंतातुर रहने लगा। क्या करूँ गुरुदेव ! क्या होगा मेरा ? अब निर्लज्ज, कठोर, मर्यादाहीन लोफरों की संगति मुझे खूब अच्छी लगने लगी। उनकी कुसंगति के प्रभाव से मुझे विलासी साहित्य पढ़ने का शौक लग गया। फाइवस्टार होटल तो मानो पापों का घर ही बन गया। विजातीय व्यक्तियों को वहां बुलाकर पैसे के बल पर शील खंडन करने का मानो मैंने अधिकार जमा लिया हो। टॉकिज में बालकनी का टिकट लेकर, अंधकार का लाभ उठाकर विजातीय व्यक्ति के अंग स्पर्श करके विवेक से भ्रष्ट बनता गया। अरे! एक बार तो पकड़ा भी गया! अपमान भी हुआ। सेंडलों की मार भी खाई। भय से रात्रि में निद्रा भी वैरिणी बन गई। खुश किस्मत से कुछ छुटकारा हुआ, तो थोड़े दिनों के पश्चात् वही चाल पुनः शुरु हो गई और विद्युत्वेग से पाप वापस शुरु हो गए। विवाह की तैयारियाँ होने लगी। परंतु मैं भयभीत बना रहता । शायद कोई फोटो आदि के प्रमाण देकर विघ्न डाल देगा तो ? अन्ततः पापानुबन्धी पुण्य ने पार उतार दिया। परन्तु अब भी "पर धन पत्थर समान, पर स्त्री मात समान" यह दृष्टि नहीं आई। रास्ते में चलते-चलते भी दृष्टि जहाँ-तहाँ भटकने लगी व जिस किसी को भी वासना का शिकार बनाने लगा। अरे! मैंने यह क्या किया? 'मरणं बिन्दुपातेन' अर्थात् वीर्य के एक बिन्दु के पतन से मरण समझना, यह आध्यात्मिक सूझ बूझ ही मानो चली गयी। ओह गुरुवर्य ! एक महीने के भोजन से एक किलो खून बनता है और उसमें से केवल १० ग्राम वीर्य बनता है। ऐसा शारीरिक विज्ञान भी भूल गया। अरे गुरुदेव ! एक बार अब्रह्म के सेवन से नौ लाख जीवों की हत्या होती है। जीवहत्या का ऐसा घोर कत्लखाना बंद करना चाहिए, ऐसे धार्मिक विचार भी नहीं आए। अरर ! परलोक का विचार भी नहीं किया कि इस प्रकार की हिंसा से मेरा क्या होगा ? अरे गुरुदेव । वासनाएँ आकाश के समान अनंत हैं, उन्हें ज्ञान से उपशमाने का कोई प्रयत्न नहीं किया, उसकी पूर्ति न होने से विकार रूपी समुद्र में ज्वार आने लगा और एक काला दिन ऐसा आया कि एक कुमित्र की संगति मिलने पर पत्नी ट्रान्सफर करने का निश्चय किया । वासना के फौलादी पंजे में फँसकर मैंने शील सदाचार को ताक पर रख दिया और ट्रान्सफर का निर्णय कर लिया। सद्भाग्य से सदाचारिणी पत्नी ने यह बात नहीं स्वीकारी। उसे भ्रमित करने के लिए मैंने रामायण के प्रभव, सुमित्र और वनमाला आदि के दृष्टांत समझाए कि पति देव के समान होता है, उसकी बातें माननी चाहिये। अन्त में उसने हिम्मत कर शील की रक्षा के लिए पुलिस चौकी पर जाकर शिकायत की। अतः मुझे पुलिस स्टेशन जाना पड़ा। वहाँ से जैसे-तैसे छूट गया। उसके बाद मेरी अक्कल कुछ ठिकाने आई। आज पत्नी मुझे कल्याणमित्र लगती है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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