________________
कहीं मुनसान जाए...30
मरीचि, अहंकार और उत्सूत्र...
ऋषभदेव भगवान के पास भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि ने दीक्षा ग्रहण की। बाद में दुःख सहन करने में कमजोर बनने से उसने त्रिदंडिक वेश धारण किया। इस प्रकार वह चारित्र का त्याग करके देशविरति का पालन करने लगा। अल्प जल से स्नान करना, विलेपन करना, खड़ाऊँ पहनना, छत्र रखना वगैरह क्रिया करने लगा। एक बार भरत महाराजा ने समवसरण में भगवान ऋषभदेव से पूछा-हे प्रभु ! आज कोई ऐसा जीव है जो भविष्य में तीर्थंकर बनेगा? तब भगवान ने कहा कि "हे भरत ! तेरा पुत्र मरीचि इस भरत क्षेत्र में प्रथम वासुदेव, महाविदेह में चक्रवर्ती और भरत क्षेत्र में अंतिम तीर्थंकर बनेगा।"
यह सुनकर भरत चक्रवर्ती मरीचि को वंदन करने गये। वंदन करके भरत ने कहा कि, हे त्रिदंड धारण करने वाले साधु! मैंने तुम्हें वंदन नहीं किया है। परन्तु तुम भरत क्षेत्र में तीर्थंकर, महाविदेह में चक्रवर्ती और भरत क्षेत्र में प्रथम वासुदेव बनोगे। अतः मैंने तुम्हें भविष्य के तीर्थंकर समझकर वंदन किया है। वंदन करके भरत चक्रवर्ती तो चले गये। परंतु मरीचि के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया! मेरा कुल कितना उत्तम है? प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव मेरे कुल में हुए, प्रथम चक्रवर्ती भी मेरे कुल में मेरे पिताश्री भरत हुए और प्रथम वासुदेव भी मैं बनूंगा। इस प्रकार मन में कल का मद लाकर मरीचि नाचने लगा, इससे नीचगोत्र कर्म का बंध किया। उसकी आलोचना नहीं की। अतः इस नीच गोत्र कर्म का भार लगभग क को कोड़ाकोड़ी सागरोपम अर्थात् भगवान महावीर के अंतिम भव तक चला।
एक बार जब मरीचि के उपदेश से राजकुमार कपिल दीक्षा लेने को तैयार हुआ। तब मरीचि ने कहा कि "जाओ, मुनियों के पास जाकर दीक्षा लो।" उस समय कपिल ने पूछा कि, "क्या मुनियों के पास ही धर्म है और आपके पास नही है?" तब मरीचि ने विचार किया कि यह मेरे योग्य ही शिष्य मिला है और बीमारी आदि में शिष्य की जरूरत भी रहती है। अतः उसने असत्य वचन बोल दिया-अरे कपिल! धर्म वहां भी है
त्रिदंडीपने में धर्म नहीं था। इस असत्य उत्सूत्र वचन की आलोचना नहीं की, अतः तीर्थकर की आत्मा होते हुए भी एक कोडाकोड़ी सागरोपम जितना उनका संसार बढ़ गया। जैन दर्शन ने किसी के भी पाप का पक्षपात नहीं किया। सब की जीवन-किताब खुली रखी है। इसलिये हमें शुद्ध आलोचना कहकर पाप मुक्त होना चाहिये।
www.jainelibrary.org