Book Title: Paschattap
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 85
________________ कहीं मुनसा न जाए...76 ICT वसुदेव की पत्नी देवकी के जीव ने पूर्व भव में सौतन के सात रत्न चुराये थे। मगर जब सौतन बहुत आकुल-व्याकुल हुई, तब दया से आर्द्र होक उसने एक रत्न किसी तरह वापस दे दिया। इस पोरी की आलोचना देवकी के जीव ने नहीं ली। उसके बाद वही जीव आगे जाकर देवकी। बना। भद्दिल ग्राम में नागिल सेठ रहते थे। उनकी धर्म त्नी का नाम सुलसा था। 'उससे मरे हुए बच्च ही जन्मेंगे,' ऐसी भविष्यवाणी एक नैमित्तिक ने की थी। इसलिए उसने हग्नैिगमेषी देव की साधना की। देव ने उसे स्पष्ट कहा कि तेरा है पुष नहीं है कि तुझसे जीवित संतान जन्म पाये, इसलिए मैं अपनी शक्ति से दूसरे के संतान त्झे अर्पण करूँगा। तू उन्हें बड़ा हरके खुद को पुत्रवती समझना । 'नामा नहीं तो काना मामा' इस कहावत के अनुसार सुलसा ने देव की बात को स्वीकार कर लिया। की चोरी की थी। में सौतन के ७रली देवकी के विवाह प्रसंग पर अईमत्ता मुनि ने कंस की पत्नी चोग की जीवयशा को कहा कि "देवकी की सातवी संतति कंस का घात करेगी। इसलिये मृत्यु से भयभीत बने हुए कंस ने देवकी के प्रथम सात संतानों को वसुदेव से प्राप्त करने की स्वीकृति प्राप्त कर उन्हें मारने का संकल्प किया, परन्तु जन्म पानेवालों का पुण्य प्रबल होने से क्रमशः जब देवकी के पुत्र जन्म पाते गये, तब हरिनैगमेषी उन्हें सुलसा के पास रख देता और सुलसा के पास से मरी हुई संतानें देवकी के पास रख देता। ____ कंस उन मुर्दो पर छुरी चला देता और खुश होता। इस प्रकार छः संतानों का वियोग देवकी को हआ। बाद में उन छ: संतानोंने नेमिनाथ भगवान के वचन से प्रतिबोध पाकर दीक्षा ली। देवकी से जब सातवीं संतान कृष्णजी जन्म पाए, तब वसुदेव ने उन्हें यशोदा को सौंपा और उसकी लड़की देवकी के पास रखी। कंस ने उसकी नाक काट ली। इस प्रकार छ: रत्न की चोरी का प्रायश्चित न लेने से देवकी को छ: पुत्रों का वियोग हुआ। एक रत्न वापस दिया था, इसलिये कृष्ण का थोड़े समय के लिये वियोग हुआ, परंतु बाद में स्वयं उन्हें कुछ समय बड़ा कर सकी। इससे हमें सीखना चाहिये कि ईर्ष्या अथवा लोभ से । किसी भी प्रकार की चोरी अपने जीवन में हो गयी हो, तो अवश्य प्रायश्चित की निर्मल गंगा में स्नान करके शुद्ध और भाररहित हो जाना चाहिये। For Personal & Private Use Only *जीव ने पूर्वभव में देवकी के जीव "पस दे दिया था। उसमें से एक Jain Education International www.jainelibrary.org

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