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पश्चाताप
आत्मशुद्ध से परम पद प्राप्ती
आचार्य गुणरत्नसूर
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सलमान म
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एक पावन परिवर्तन
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चातुर्मास
आत्मजागृति का सुअवसर आन निरी • नि परीक्षण • स्वा अपलोकन
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कहीं मुरझा न जाए.
(सचित्र भव आलोचना का विवेचन)
लेखक प.पू. युवकजागृतिप्रेरक दीक्षादानेश्वरी आचार्यदेव
श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा.
प्रकाशक जिनगुण आराधक ट्रस्ट 151, गुलाल वाडी, कीका स्ट्रीट, मुंबई - 400 004. फोन : 23474791/23867581 मोबाईल : 9820451073
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मूल्य
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LEARN FROM PAST, LIVE IN PRESENT AND PLAN THE FUTURE. भूतकाल की भूलों से सीखो... वर्तमान में जीओ और भविष्य की प्लानिंग (योजना) इस प्रकार बनाओ कि जिससे उन भूलों न हो पाए। भूल इंसान से ही होती है, परंतु वह अपनी भूलों का इकरार कर सद्गुरु के पास प्रायश्चित ले लेता है, तो वह इंसान पूजनीय व परमात्मा बन जाता है।
इस पुस्तक की विशेषता
धन्य है जिनशासन। जिसमें पापीओं के पाप को धोनेवाले प्रायश्चित का उत्तम विधान है।
क्या गंगा मैली तो मैली ही रहेगी? नहीं। नही... प्रक्रिया करोगे, तो वह शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल बन जायेगी।
प्रायश्चित में वह अपूर्वं शक्ति है, कि उसके बल पर आत्मा संपूर्ण निर्मल बन सकती है।
पाप को नहीं छुपाना हो तो... जाईये, जल्दी गुरुदेवश्री के पास और प्रायश्चित लेकर शुब्द बन जाईये। उत्तम जीवन की नींव को निर्मल बनाने के लिए हृदय में पाप का भय उत्पन्न करना चाहिए, पहले पाप का भय उत्पन्न होगा, तभी पाप के प्रति धिक्कार खड़ा होगा, यदि धिक्कार खड़ा होगा, तो प्रायश्चित के द्वारा शुद्ध बनने की इच्छा उत्पन्न होगी।
TO TELL A LIE IS BAD, BUT TO TELL A LIE AND HIDE IT IS WORST.
झूठ बोलना, वह बुरी बात है, लेकिन झूठ बोलकर छुपाना, वह बहुत बुरी बात है।
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नाम
Aamimihitimes
: प. पू. द्विशताधिक दीक्षादानेश्वरी आचार्यदेव श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म. सा.
': सं. १९८९, पोष सुद ४, सन् १९३२, पादरली (राज.)। दीक्षा : सं. २०१०, माघ सुद ४, सन् १९५४, मुंबई गुरुनाम
प. पू. सिद्धांत महोदधि आ. प्रेमसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टालंकार प. पू. वर्धमान तपोनिधि।
भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. के सुशिष्य मेवाड़ देशोद्धारक प. पू. जितेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. गणि पदवी : सं. २०४१, मृगशीर्ष सुद ११, सन् १९८५, अहमदाबाद पंन्यास पदवी : सं. २०४४, फाल्गुन सुद २, सन् १९८८, जालोर (राज.) आचार्य पदवी : सं. २०४४, ज्येष्ठ सुद १०, सन् १९८८, पादरली (राज.)। भाषा : गुजराती, हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत साहित्य रचना : क्षपक श्रेणी, उपशमना-करण, आदि ६० हजार श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत ग्रंथ और गुजराती,
हिन्दी तथा अंग्रेजी में चलो सिद्धगिरि चले, कहीं मुरझा न जाए (सचित्र), जैन रामायण आदि ज्ञानाभ्यास न्याय, व्याकरण, काव्य, कर्म-साहित्य, आगम आदि अनेक शास्त्र।
लेखक का परिचय...
विशेषताएँ १) २१ साल की युवावय में सगाई छोड़कर दीक्षा ली।
७) शंखेश्वर महातीर्थ में ऐतिहासिक ४७०० अट्ठम। २) जिरावला तीर्थ में ३२०० आराधकों की सामूहिक चैत्री ओली का रिकोर्ड। ८) सरत सामहिक दीक्षा में ५१०००. पालिताणा में ५२००० और ३) २७०० यात्रिकों का मालगाँव (राज.) से पालिताणा, ६००० यात्रिकों का अहमदाबाद में ५५०० युवानों की समूह सामायिक।
राणकपुर का और ४००० यात्रिकों का पालितणा से गिरनार का ९)क्षपकश्रेणी ग्रंथ के सर्जनहार, जिस ग्रंथ की जर्मन प्रोफेसर क्लाऊज बन ऐतिहासिक छःरी पालक संघ।
ने प्रशंसा की है। ४) २८ युवक-युवतिओं की सुरत में, ३८ युवक-युवतिओं की पालिताणा में १०) ५१ आध्यात्मिक ज्ञान शिविरों के सफल प्रवचनकार। सामूहिक दीक्षाएँ और साथ में कुल २४४ दीक्षा दानेश्वरी।
११) ८१ शिष्य-प्रशिष्यों के तारणहार और २०१ साध्वीओं के गणनायक। भेरुतारक तीर्थ के प्रेरणादाता, जिसकी प्रतिष्ठा में ७०० साधु-साध्वी १२) नाकोडा ट्रस्ट द्वारा संचालित निःशुल्क विश्वप्रकाश पत्राचार पाठ्यक्रम भगवंतो की उपस्थिति और चैत्री ओली में २७४ भाई-बहनों ने यावज्जीव के द्वारा १ लाख विद्यार्थीओं के जीवन में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। चोथे व्रत को स्वीकार किया।
१३) सिद्धवड पटांगण (आदपुर, घेटीपाग) में श्री सिद्धगिरिराज की ६) जिरावला तीर्थ के भव्य जीर्णोद्धार में सामूहिक मार्गदर्शक, श्री वरमाण- ऐतिहासिक नवाणु-यात्रा में २२०० थात्रिकों का रिकार्ड। तीर्थजीर्णोद्धार के मार्गदर्शक।
१४) ४१ छरी पालक संघ के निश्रादाता। For Persona l Dad only
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Voyoyoyoyoyoy
"भव आलोचना" की पुस्तक मैंने पढ़ ली है। पढ़ने वाले को प्रेरणा जगा सकती है। श्रीसंघ को ऐसा साहित्य देना अत्यावश्यक है।
- प.पू. स्व. गच्छाधिपतिश्री आचार्यदेव श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा.
प. पू. आचार्यदेवश्री के अभिप्राय
ज्ञानी भगवंतोने प्रायश्चित का बहुत महत्त्व बताया है। यह पुस्तक "कहीं मुरझा न जाए" वर्तमान युग में बढ़ रहे पापों के सामने रेड सिग्नल दिखाने का काम कर सकती है।
- प.पू. आ. हेमप्रभसूरीश्वरजी म.सा.
आचार्यश्री शास्त्र के ज्ञाता, सावधानी वाले व परिश्रमी है। इसलिये यह पुस्तक व्यवस्थित सुंदर और शास्त्रीय है, इसमें कोई प्रश्न नहीं है। आप ऐसे कार्यों के द्वारा शासन सेवा और भविष्य की आराधना की उत्तम भूमिका का सर्जन कर रहे हैं। वह अनुमोदनीय है।
-पू. सुविशाल गच्छाधिपतिश्री आचार्यदेवश्री जयघोषसूरीश्वरजी म.सा.
प.पू.आ. गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. की पुस्तकें आज की शिक्षित पीढ़ी के लिये लाभदायी है।
-- पू.आ. प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा.
"कहीं मुरझा न जाए"..... वैभवी दुनिया में गुमराह जीवों को आध्यात्मिक वांचन चिंतन सुपथदर्शक बनता है। आपश्री के चिन्तन, लेखन अत्यन्त प्रशंसनीय है। वर्षों के परिशीलन, चिंतन, मनन द्वारा तैयार हुई यह पुस्तक दुनिया की अभिनव अजायबी को टक्कर दे कर आध्यात्मिक विकास में प्रगति कर दे, ऐसे अद्भुत सर्जनात्मक सूचन सहज मिलते हैं। ऐसे साहित्य का सर्जन, प्रचार-प्रसार अत्यावश्यक है।
__- आचार्यदेवश्री विद्यानंदसूरीश्वरजी म.सा.
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प्रकाशक की कलम से.. मानव आवश्यकता होने पर वस्तु का प्रकटीकरण करने का प्रयत्न । इसलिये इस पुस्तक का विशेष महत्त्व है। करता है। "NECESSITY IS THE MOTHER OF INVENTION'' पाली के
कहानियों को अच्छी तरह समझने के लिये चित्र ज्यादा उपयुक्त होते चातुर्मास में एक दिन भव आलोचना के विषय पर प.पू. आचार्यदेवश्री
हैं। यानी १०० शब्दों से, अक चित्र कहानी को समझाने के लिये ज्यादा गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. कर प्रवचन हआ। उसमें रुक्मिणी साध्वीजी
समर्थ है। ONE PICTURE IS WORTH THAN THOUSAND WORDS. इसलिये 7 वगैरह के उदाहरण सुनकर कई युवक-युवतियों एवं बुजुर्गों की
इस बार नया संस्करण सचित्र व संशोधित कर प्रकाशित कर रहे हैं। भावना हुई कि हम भव आलोचना लेकर अपना जीवन पवित्र
इसलिये यह पुस्तक ज्यादा उपयोगी बनेगी। ऐसा हमें आत्म विश्वास है। बनायें, किन्तु हिन्दी में आज तक इस किस्म की कोई किताब छपी नहीं थी, जिसको पढ़कर स्वयं किये हुए
यह पुस्तक पुरुष व महिला सभी के लिए उपयोगी है, इसलिए यह पापों का स्मरण कर सके। इसलिये वहाँ सर्वप्रथम यह
पुस्तक जब महिलायें पढ़ें, तब अपनी रीति से अपने पापों का चिंतन कर पुस्तक छपवाई गई, उसके बाद हिन्दी संस्करण और ८ आलोचना लिखें। गुजराती संस्करण छपे हैं। आज यह ८वां हिन्दी संस्करण आपके हाथ
इस पुस्तक को जैसे-जैसे पढ़ेंगे, वैसे-वैसे हृदय में पश्चाताप में आ रहा है। इससे आप इसकी उपयोगिता स्वयं समझ सकते हैं। होगा। उससे कर्म की बेहद निर्जरा होगी। यह पुस्तक पढ़ते-पढ़ते कितने आज चारों ओर पापों के विचार व प्रवृत्ति बेहद चल रही है। ऐसे ही सैंकड़ों युवक-युवतियों ने बड़े-बड़े आँसू बहा कर प्रायश्चित लिया है। समय में उसके ऊपर ब्रेक लगानी अति जरूरी है। इसलिये आप आप भी इस पुस्तक को एक बार पढ़कर रख न दें, परन्तु तीन-चार बार इस पुस्तक को पढ़ेंगे, तो आत्मा में अन्तःपरिवर्तन आयेगा। तो जरूर पढ़ें व दूसरों को पढ़ने की प्रेरणा दें।
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ली. जिनगुण आराधक ट्रस्ट, मुंबई-भिवंडी,
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श्री पालीताणा विनीतानगरी के पवित्र प्रांगण में पूज्यपाद 323 दीक्षादानेश्वरी आ.श्री गुणरत्नसू. म.सा. आदि 340 साधु-साध्वीजी भगवंत की शुभनिश्रा में आयोजित आध्यात्मिक चातुर्मास-उपधान तप की पावन स्मृति में प्रायश्चित पुस्तक का पुनित प्रकाशन
संघची मोहनलालजी मुया
में संघची पानीदेवी मुथा
की संघवी हंसराज मुया
* संघवी कमलादेवी मुया है
भी संधती रमेशकुमार मुधा
+ संघवी भाग्यवंतीदेवी मुधा है
संघवी सुरेशकुमार मुया
संघवी मधुदेवी मुथा.
आयोजक : संघवी पानीदेवी मोहनलालजी मुथा सोनवाडीया परिवार, चेन्नई मांडवला.
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विषय..........
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विषयानका
म...........
006
७७VVV
...८४
००
पष्ठ विषय........................१४
- - - - - - -- १) एक भव्य आत्मा की आत्मव्यथा......................"
१५) हरिश्चन्द्र को मकान में क्यों रहना पड़ा?....७३ २) भविष्य की मनोव्यथा
१६) आलोचना न लेने में दुमबी बने श्रीपाल नाजा.७५ ३) गुरुदेवश्री का आश्वासन ..........................१०
१७) चोरी की मजा और देवकी माता .............७६ ४) आलोचना का महत्त्व
१८)टंटण कुमान और अंजनाय. ५) आलोचना का प्रायश्चित किसे दिया जाये?........१४ १९) द्रौपदी को पांच पति मिले. ६) आलोचना सब को करनी चाहिए..................
२०) ईर्ष्या की आलोचना न ली ७) आज भी प्रायश्चित विधि है........................ २१) अंजना मुंली दुःमवी क्यों हुई?............... ८) आलोचना देने वाले गुरु कौन होते हैं?............. २२) नाणी कुंतला ..... ............... ९) आलोचना के बिना मुनझाये हुए फुल...........
२३) भगवान महावीनस्वामी के जीव ने १) रुक्मिणी का दृष्टांत...
प्रायश्चित न लिया तो... २) ओक कृषक ने जूं मानी.........................२६ २४) हरिकेकीबल उत्पन्न हुए चंडाल कुल में......८४ ३) सज्जा माध्वी ने मचित्त पानी पीया...........२७ २४) कलावती की कलाईयां छेद दी गई.............८६ 1) मीचि का दृष्टांत ....
२६) अंडे लिये हाथ में .............................८७ ५) आईकुमार का दृष्टांत...................
२७) देवानंदा के गर्भ का अपहरण क्यों हुआ?.....८८ ६) मेतानज मुनि का दृष्टांत....
२८) ज्ञान की विराधना की आलोचना नहीं ली ....८८ ७) चित्रक और भभूति का दृष्टांत ................३८ २९) देवद्रव्य की आलोचना न ली ..................८९ ८) इलाचीपुत्र का दृष्टांत .........................४१ 90) आलोचना में बने चमकते मिताने ९) कमलश्री का दृष्टांत ..........................
१) कामलक्ष्मी का दृष्टांत... १०)रूपमेन और सुनंदा का दृष्टांत .............
२) पुष्पचूला का दृष्टांत .......... 99) क्रोध की आलोचना
३) नमो नमो प्रबंधक महामुनि.. नलेने से हुआ नुकसान....
1) अमणिक कुमार का दृष्टांत. १२) लक्ष्मणा माध्वीजी का दृष्टांत ..........५३ ____११) प्रायश्चित की ताकत .... १३) एक थी राजकुमारी...
...५४ १२) प्रश्नोत्तर.... 3) निर्दोष भीताजी पर कलंक क्यों आया?......६९ १३) आलोचना कैसे लिमखनी चाहिये? natoreseron..१००
..
...............
मानात leder
...........१४
Ranislai ooljapers)
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1... कहीं मुरक्षा न जाए
एक भव्य आत्मा की
आत्मकथा!
गुरुदेव ! आपके पास आया हूँ, महान पापी हूँ, अधम हूँ । मेरे जीवन में मैंने कौन-कौन से पाप नहीं किये हैं? यह एक प्रश्न हैं। आज आपकी हृदयवेधक वाणी से वे पाप मुझे खून के कण-कण में व शरीर के रोम-रोम में काँटों की तरह चुभ रहे हैं। गुरु भगवंत! इन दुष्कृत्यों का बोझा ढोए हुए, भवोभव में भटकते रहना, अनेक प्रकार की वेदनाएँ सहन करना, वापस नया पाप करना और बार बार भटकना ! निर्विण्ण हो रही है चेतना इस श्रृंखला से !
गुरुदेव ! काँप उठी है अन्तर्चेतना, व्याकुल हो गया है मन, अब तक पाप की गंदी गलियों में भटकने से। ओह! अनन्त काल से इस आत्मा ने और किया भी क्या है, पापों के संचय के सिवाय ? उनके गाढ़ संस्कारों ने मुझे इस प्रकार बांध रखा है कि छूटने की बात तो दूर, परन्तु इस जन्म में भी मुझे पशुतुल्य बना दिया है।
धन्य हैं वे पुरुष ! जिनका जीवन बाल्यकाल से ही निष्कलंक रहा है। लेकिन अफसोस! पाप के गाढ संस्कारों ने तो मुझे बाल्यकाल से ही पाप करने में प्रवीण बना दिया है । ४-५ वर्ष की उम्र में ही रसना के अधीन होकर घर में पीपरमेंट - चोकलेट की चोरी ने कलंकित जीवन का श्रीगणेश किया। खाने की लालसा बढ़ने पर दूसरों के घरों में.... अरे! मंदिर या कोई धर्मस्थान में जाकर पैसे की चोरी कर गुप्त रीति से नई नई स्वादिष्ट वस्तुएँ खाने लगा। अरे ! कई बार तो पकड़ा भी गया। लेकिन वहाँ भी छुटकारे में असत्य सहायक बनने के कारण मायामृषावाद मुझे अतिप्रिय हो गया। फिर तो पूछना ही क्या? अनेक प्रकार की कपटजाल बिछाने में, मैं निपुण हो गया।
एक बार कौतुकवृत्ति के कारण गुप्त रीति से, घर के बड़ी उम्रवाले व्यक्तियों के परस्पर अंग-स्पर्श को देखकर मन उसकी ओर आकर्षित हुआ ! छोटे-छोटे निर्दोष बालक-बालिकाओं के साथ खेलकूद में स्पर्श के पाप का स्थान मुझे
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मिल गया। फिर तो केरम खेलें या । खो-खो खेलें, वासनापोषण का कार्य ही मुख्य बन गया। कोई न कोई निमित्त प्राप्त कर विजातीय के अंगोपांग के स्पर्श की धुन लग गई ।। बाहरी दिखावा तो हास-उपहास । का रहता, परंतु अंतर में तो वासना की अग्नि प्रज्वलित रहती।
क्या कहूं गुरुदेव! कहने की हिम्मत नहीं है। किन्तु व्याकुल हो गया हूँ पापों की इस हारमाला से ! आपकी वाणी से यह बोध हुआ है। कि यदि गंदी गटर में से कूड़ाकरकट नहीं निकाला जाएगा, तो आराधना का इत्र भी गंदगी में बदल जाएगा। केन्सर की गांठ का ऑपरेशन करवा दिया जाए, तो लोग बच जाते हैं और जो छोटासा काँटा न निकाला जाए, तो धीरे-धीरे पूरे शरीर में मवाद हो
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कहीं मुलझा न जाए...2
जाने से मरना पड़ता है। अतः कहने के सिवाय मन शांत नहीं होगा। लज्जा तो छोड़नी ही ण्डेगी, अन्यथा पापों से ज्यादा भारी बनूँगा। लज्जा रखू भी क्यों? रे जीव! पाप करने में तुझे लज्जा नहीं आई, तो अब आलोचना लेने में लज्जा क्यों रखनी?
८-९ वर्ष की उम्र में एक कव्यक्ति से सम्पर्क हो गया। वह पडो मुफ्त में सिनेमा में ले गया। गुणत सिनेमा के इन दृश्यों से मेरे में स्त्रियों की ओर निर्लज्जतापूर्वक देखने की आदत पड़ने लगी। फिर तो रास्ते में चलते-चलते भी स्त्रियों को देखने की आदत पड़ गयी और उसमें पकड़े जाने का भय भी बढ़ने लगा। इस प्रकार मन के पापों का गुणाकार होने लगा। जरा सी नज़र स्त्री पर पड़ जाए, तो उस पिक्चर
में उस एक्टरने ऐसा किया था, वैसा किया था। कर दिया। जमीनकंद मिश्रित समोसे, कचौड़ी, मैं भी ऐसा करूँ, वैसा करूँ ! इस प्रकार के पाप वेफर्स आदि खाने की आदत भी कुसंग से बढ़ने विचार घर करने लगे। बगीचे में घूमने-फिरने लगी। १४-१५ वर्ष की उम्र में सहशिक्षण और जाऊँ, तो भी वहाँ पर युगलों पर दृष्टि पड़े बिना खेलकूद में स्पर्शजन्य पापों को तो मानो अपना नहीं रहती, क्या होगा तंदुलिया मत्स्य जैसी मेरी जाल फैलाने के लिए बड़ा मैदान मिल गया। आत्मा का!
होस्टल और तीर्थ की धर्मशालाओं को भी उस कुव्यक्ति ने मेरे भोलेपन का लाभ मैंने पापस्थान बना दिये। क्या कहूँ गुरुदेव! घर उठाकर मुझसे हस्त मैथुन जैसा कुकर्म भी के गुरुजनों को तो इसकी गंध भी न आई। उन्हें करवाया। मुझे भी उसमें कृत्रिम आनंद आया। क्या पता कि जेबखर्च के लिए दिए हुए पैसों का एकांत में यह पाप बारबार करने लगा। बस ! मेरा कितना दुरुपयोग हो रहा है ? १-२ घंटे स्कूल में पतन शुरु हो गया। शरीर क्षीण होने लगा। एटेन्ड कर दूसरे तीन घंटे किस टॉकिज़ में या कृत्रिम शक्ति लाने के लिए भिन्न-भिन्न गार्डन में गया! इसकी कल्पना भी उन्हें किस विज्ञापनों के पीछे अपने समय व पैसे का दुर्व्यय प्रकार हो सकती थी? स्कूल जीवन में ही करने लगा। उसमें भी कुछ उत्तेजक दवाएँ तो। पंचेन्द्रिय जीव का घात प्रारंभ हो गया। विज्ञान गिरते पर प्रहार जैसी बन गई! परंतु किसे की प्रयोगशाला में एक दिन शिक्षक ने मेंढ़क का कहूँ? अब तो आगे बढ़कर मेरे हाथ विजातीय के डिसेक्शन (विछेदीकरण) करके बताया। मुझे तो संयोग से मलिन होने लगे। मैंने कितनों के हाथ चक्कर आने लगे ! यह क्या? जीन्दे जीव को चीर बिगाड़े, कितनों के मुँह । इन पापों के पोषण के कर मार डालना ! कैसा नृशंस कार्य ! मेरे मित्र ने लिए परस्पर जूठी की हुई भेल पूड़ी, पांऊभाजी मुझे झूठी तसल्ली दी। दोस्त ! इतने से क्या खाना, जूठे सोडा लेमन पीना वगैरह भी प्रारम्भ घबराता है? हमें तो आगे चलकर बायोलोजी का
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3... कहीं मुरसा न जाए
स्टुडेंट बनना है। इस प्रकार की प्रेरणा से हिंसा के प्रति मेरी घृणा कम होने लगी। मैंने भी एक कातिल दिन, मेंढ़क को उल्टा कर चारों पैरों में कीलें लगा दी। अरर ! गुरुदेव, कहा नहीं जाता ! उस मेंढक को कितनी घोर पीड़ा हुई होगी ! इस बात का विचार तक मैंने नहीं किया। मेरे स्वार्थान्ध हृदय में दया की एक किरण भी न प्रकटी। कठोर हृदयी मैंने निर्दयी होकर मेंढ़क का हृदय चीर डाला। अरर ! यह क्या हो गया? चीरने में एक भाग जरा-सा आड़ा चीर गया। मैंने दूसरे मेंढ़क को चीरा। फिर तो पैसे देकर मेंढ़क ले आता और चीरता रहता। ओह ! मेरे जीवन में कितने ही पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या हो गई ! कैसे छूटूंगा इस पापराशि से ? सुना है कि एक जूं मारने वाले को सात बार फांसी पर लटकना पड़ा, तो मुझे कितनी बार फाँसी की सजा भोगनी पड़ेगी? मानो मेरी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई थी। उन्मत्त के समान कार्याकार्य को नहीं समझते हुए मैंने कई पाप कर डाले ।
गुरुदेव! त्राहिमाम्, त्राहिमाम्। अब तो आप ही आधार हैं। मेरे स्कूल जीवन में १६ वर्ष की उम्र में एक और कलंकित घटना बन गयी। वह घटना याद आते ही मुझे चक्कर आ जाते हैं। मैं लेड़ीज़ टीचर के वहाँ ट्युशन के लिये जाता था। एक दिन उनकी वासना भड़की और उन्होंने मुझे बाँहो में ले लिया। चढ़ती जवानी मे मैं भी कंट्रोल न कर पाया, भयानक पाप में फँस गया। सामने से अनुकूलताएं मिलती हो, तब कोई विरल सत्त्वशाली आत्मा ही बच सकती है ! मैंने मेरा जीवन काजल से भी ज्यादा काला बना दिया। अरर! विद्यागुरु के साथ दुराचार ! अरर...... देह सम्बन्ध !
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क्या होगा इस पापी आत्मा का ?
करुणानिधि! फिर मैंने कॉलेज लाइफ में प्रवेश किया। इस समय मेरी हिंसा वृत्ति दिन- दूगुनी रातचौगुनी प्रगति करने लगी परंतु अंतिम परीक्षा में प्रतिशत कम आने से बॉयोलोजी में एडमिशन न मिलने से मैंने कॉमर्स की लाईन पकड़ी।
यहां तो मोहराजा का अट्टहास और भी विकराल हो उठा। घरवाले समझते थे कि पढ़ने जाता है, परन्तु एकाध पीरियड एटेन्ड कर गर्लफ्रेन्ड के साथ पिक्चर देखने पहुँच जाता। मोह ने एक नई पापवृत्ति खड़ी कर दी कि गर्लफ्रेन्ड हो, तो ही बुद्धिशाली कहलाउँगा । गुरुजनों की तरफ से पैसे की छूट का खूब दुरुपयोग करने लगा। इस प्रकार की कुप्रवृत्तियों से अनेक विजातीय व्यक्तियों को फँसाने का प्रयत्न करने लगा। सिस्टर कहकर लिफ्ट देने के बहाने विजातीय व्यक्ति को स्कूटर पर घुमा लाता और अपनी ओर आकर्षण बढ़ाने के दूसरे भी प्रयत्न करता रहता। कम्प्युटर का शिक्षण प्राप्त करके INTERNET CHAT स्कीम का
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दुरुपयोग कर अपरिचित लड़कीओं को फँसाने के धंधे किये। अरे ! बहिन कहकर सम्बोधित करता और वासना का शिकार बना कर ही रहता। गुरु भगवंत, पैसे और परिवार की आज़ादी ने तो मेरे कौमार्य को भी कलंकित कर दिया। कम्प्युटर में नयी-नयी देशविदेश की फाइलें खोलकर उनमें अंगप्रदर्शन को देखकर कामवासना को बढ़ाने के भरपूर प्रयत्न किये। क्या कहूँ? मन भर गया है। जीभ ही नहीं चलती है, मेरे जालिम पाप कैसे छूटेंगे? मेरी क्या गति होगी? मामा, चाचा, किसी का भी घर मैंने नहीं छोड़ा है। किसी की भी लड़की को देखते ही उसको वासना का शिकार बनाने का ही प्रयत्न करता । सब को कलंकित कर दिया है। इससे ज्यादा कौन-सा कुकर्म हो सकता है? नाथ ! इस पापी आत्मा को धरती जगह दे, तो अंदर समा जाऊँ ! शर्म के कारण मुँह भी ऊँचा नहीं उठता है। मैं मुँह दिखाने के लायक भी नहीं हूँ। आत्महत्या एक महापाप है, यह समझता हूँ। अतः आलोचना से पापहत्या करनी है। सुनिए गुरुभगवंत ! मेरी पाप कथा, वयस्क फिल्मों को देखकर तो वासना ने मर्यादा ही तोड़
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कहीं सुरक्षा न जाए... 4
दी । पड़ोस में रहने वाली मासूम बालाओं पर अवसर देखकर क्रूर प्रवृत्ति शुरू कर दी। उनकी चीखों को दबाकर मैंने पाप की पोटली बाँध ली। उनके जीवन पर काला धब्बा लगा दिया। इश्क जात-कुजात नहीं देखता, इस उक्ति को मैं चरितार्थ करने लगा। अंगस्पर्श और स्वअंगप्रदर्शन में तो कोई शरम न रही। इन दुष्कृत्यों ने तो मर्यादा ही छोड़ दी।
एक बार शिकार हाथ में आने के बाद, फिर वह कहीं चला न जाएँ; तदर्थ पैसे बहाना-उन्हें खुश करना इत्यादि करने के लिए चोरी करने में भी कुछ बाकी न रखा। वासनापूर्ति के लिए कुछ बड़ी चोरियाँ भी अब शुरू हो गई, क्योंकि संबंधित व्यक्तियों को खुश करने के लिए चोरी एक फर्ज़ बन गया। फिर तो मैं लोटरी, मटका वगैरह जुए की प्रवृत्ति में कूद पड़ा। क्या कहूँ, मेरे जीवन की आत्मव्यथा? काली स्याही से श्याम बन गई है मेरे जीवन की कोरी किताब । वयस्क होने पर कानूनी सलाह लेकर घर से भाग कर कोर्ट में शादी करने का प्लान भी बना लिया। परंतु २२-२३ वर्ष की उम्र में मेरी सगाई हो गई। यह केवल बाह्य व्यवहार मात्र था। अंदर तो मैं पापों से सम्पूर्ण रीति से सड़े हुए टमाटर की तरह निःसत्त्व बन गया था। मैंने कितने ही व्यक्तियों का शील सदाचार खंडित कर दिया था! सगाई होने पर मानो अब तो प्रेमपत्र लिखने का मुझे अधिकार मिल गया। अरे क्या कहूँ गुरुदेव ? प्रेमपत्रों की बिभत्स यात्रा शुरू हो गई। मेरे परिणाम (विचार) कलुषित होने लगे। अरे ! अनेक बार साथ में घूमने के बहाने जाकर विवाह से पूर्व ही पति-पत्नी के कृत्रिम और क्षणजीवी सुख का अनुभव करने का महान् पाप भी कर लिया। सामने के व्यक्ति की मेरे प्रति अनुकूलता होने से
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5... कहीं सुरक्षा न जाए
मेरे पाप पानी में डाले हुए तेलबिन्दु के समान विस्तरित होने लगे। किसके साथ कब मिलना ? कब किसके साथ रहना ? इत्यादि योजनाओं से मेरा दिमाग चिंतातुर रहने लगा। क्या करूँ गुरुदेव ! क्या होगा मेरा ? अब निर्लज्ज, कठोर, मर्यादाहीन लोफरों की संगति मुझे खूब अच्छी लगने लगी। उनकी कुसंगति के प्रभाव से मुझे विलासी साहित्य पढ़ने का शौक लग गया। फाइवस्टार होटल तो मानो पापों का घर ही बन गया। विजातीय व्यक्तियों को वहां बुलाकर पैसे के बल पर शील खंडन करने का मानो मैंने अधिकार जमा लिया हो। टॉकिज में बालकनी का टिकट लेकर, अंधकार का लाभ उठाकर विजातीय व्यक्ति के अंग स्पर्श करके विवेक से भ्रष्ट बनता गया। अरे! एक बार तो पकड़ा भी गया! अपमान भी हुआ। सेंडलों की मार भी खाई। भय से रात्रि में निद्रा भी वैरिणी बन गई। खुश किस्मत से कुछ छुटकारा हुआ, तो थोड़े दिनों के पश्चात् वही चाल पुनः शुरु हो गई और विद्युत्वेग से पाप वापस शुरु हो गए। विवाह की तैयारियाँ होने लगी। परंतु मैं भयभीत बना रहता । शायद कोई फोटो आदि के प्रमाण देकर विघ्न डाल देगा तो ? अन्ततः पापानुबन्धी पुण्य ने पार उतार दिया। परन्तु अब भी "पर धन पत्थर समान, पर स्त्री मात समान" यह दृष्टि नहीं आई। रास्ते में चलते-चलते भी दृष्टि जहाँ-तहाँ भटकने लगी व जिस किसी को भी वासना का शिकार बनाने लगा। अरे! मैंने यह क्या किया? 'मरणं बिन्दुपातेन' अर्थात् वीर्य के एक बिन्दु के पतन से मरण समझना, यह आध्यात्मिक सूझ बूझ ही मानो चली गयी। ओह गुरुवर्य ! एक महीने के भोजन से एक किलो खून बनता है और उसमें से केवल १० ग्राम वीर्य बनता है। ऐसा शारीरिक विज्ञान भी भूल गया। अरे गुरुदेव ! एक बार अब्रह्म के सेवन से नौ लाख जीवों की हत्या होती है। जीवहत्या का ऐसा घोर कत्लखाना बंद करना चाहिए, ऐसे धार्मिक विचार भी नहीं आए। अरर ! परलोक का विचार भी नहीं किया कि इस प्रकार की हिंसा से मेरा क्या होगा ?
अरे गुरुदेव । वासनाएँ आकाश के समान अनंत हैं, उन्हें ज्ञान से उपशमाने का कोई प्रयत्न नहीं किया, उसकी पूर्ति न होने से विकार रूपी समुद्र में ज्वार आने लगा और एक काला दिन ऐसा आया कि एक कुमित्र की संगति मिलने पर पत्नी ट्रान्सफर करने का निश्चय किया । वासना के फौलादी पंजे में फँसकर मैंने शील सदाचार को ताक पर रख दिया और ट्रान्सफर का निर्णय कर लिया। सद्भाग्य से सदाचारिणी पत्नी ने यह बात नहीं स्वीकारी। उसे भ्रमित करने के लिए मैंने रामायण के प्रभव, सुमित्र और वनमाला आदि के दृष्टांत समझाए कि पति देव के समान होता है, उसकी बातें माननी चाहिये। अन्त में उसने हिम्मत कर शील की रक्षा के लिए पुलिस चौकी पर जाकर शिकायत की। अतः मुझे पुलिस स्टेशन जाना पड़ा। वहाँ से जैसे-तैसे छूट गया। उसके बाद मेरी अक्कल कुछ ठिकाने आई। आज पत्नी मुझे कल्याणमित्र लगती है।
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कहीं मुनसान जाए...6
परन्तु उस समय उसे शत्रु मान कर मैंने उसकी पिटाई भी की थी। इन निराधार बन गया हूँ। क्या करूं? इतना ही नहीं। कुलीन घर में रहकर भयकर पाप विचारों और कार्यों से मेरी आत्मा ने कैसे दारुण कर्म बाँधे देवर-भाभी के पवित्र संबंध को भी दूषित बना दिया। अरे ! शरीर के हो? मुझे लगता है कि ऐसे पापों की सजा कदाचित् मेरे इस जीवन में सुख के लिये उच्च कुल के ऊपर काला धब्बा लगा दिया। ओहो ! मैंने ही हो जाएगी, क्योंकि तीव्र भाव से किए हुए पाप उसी भव में फल देते यह क्या किया ? आहारादि वासना में आगे बढ़कर शारीरिक विभूषा है। गुरुदेव, ये पाप उदय में आए, उसके पूर्व आप कृपालु प्रायश्चित और स्वादिष्ट भोजन के पापों से मैं ऐसा दब गया हूँ कि भवांतर में मेरी देकर मुझे शुद्ध बना दीजिए।
धज्जियाँ उड़ जाएगी। ये पाप मुझे याद आते हैं और मैं अपनी आत्मा को धिक्कारता क्या कहूँ गुरुदेव! पापों को धोने के लिए उपाश्रय में भी न गया। हूँ। अरे निर्लज्ज जीव ! तूने यह क्या कर डाला? अरे गुरुदेव! यह अरे! उपाश्रय में जानेवालों को भी भगत कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई। पृथ्वी यदि जगह दे, तो अंदर समा जाऊँ! मैं मुँह बताने लायक भी पर्युषण जैसे महापर्व में भी संवत्सरी के दिन बाहर से उपवास का नहीं हूँ। क्या करूँ गुरुदेव! इन वासनाओं को मैंने ज्ञानगर्भित वैराग्य से दिखावा कर गुप्तरीति से होटल में खाने पर टूट पड़ा। प्रतिक्रमण में समाप्त नहीं की। इन वासनाओं की पूर्ति के लिए मैं हड़ताल, लूट- मज़ाक और ऊधम के सिवाय कुछ भी नहीं किया। उपवास में टाइम पाट वगैरह में आगे बढ़ने लगा।
पास करने के बहाने रात को घूमने निकला। विकार से जलती आँखों लोग मेरे जीवन पर थूकेंगे। शतशः धिक्कार और नफ़रत की
द्वारा कितने पापों का बंध किया होगा? सिनेमा के गीतों से मन को नज़र से देखेंगे। अरर! मेरा क्या होगा? गहराई से ऐसा कोई विचार
वासित करके उसकी धुन में पाप की कितनी लपेटों से आत्मा को लपेट मने नहीं किया। आज मुझे अपने दष्कत्यों पर फट-फट कर रोना दिया होगा? आता है। नौकरी में अफसर का पद मिल गया। इसलिए बोस बनकर दुराचार की दुर्गंध को ढंकनेवाले मेकअप के सुगंधित साधनों का अपने हाथ के नीचे काम करने वाली महिलाओं को भी गैररास्ते पर उपयोग करके शरीर को सुंदर दिखाने का प्रयत्न किया। परन्तु हाय ! चढ़ा दी। प्रलोभन से मेरी आज्ञा में रहे, और वासना के शिकार बनी सब निष्फल गये। मेरे शरीर में रोगों ने अपना कब्जा जमा लिया। मैं रहे, वैसी निःसत्त्व बना दी। मेरा यौवन फूल कुम्हला गया। अब तो मैं दवाओं का शिकार बन गया।
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7...कहीं सुनसा न जाए
उसके बाद व्यापार शुरु किया, तो व्यापार में भी पापानुबंधी पुण्य ने साथ दिया और छप्पर फाड़ कर पत्नी का यौवन टिकाने के पैसा दुकान में बरसने लगा। अब पाप करने में मां-बाप अर्गला के समान भासित होने लगे। अतः उन पर प्रलोभन से और निराबाध मौजतिरस्कार, नफ़रत व अपमान की वर्षा शुरू कर दी। अहो! उपकारियों के प्रति कृतज्ञ भावना के बदले मजे से घूमने-फिरने के शौक के कृतघ्न बन गया। पिटाई कर उनकों धक्का देकर घर में से बाहर निकाल दिया। रहने के लिए उन्हें छोटी- कारण गर्भपात करवाकर पंचेन्द्रिय सी झोपड़ी दे दी। उन्हें अलग कर मैं मौज-मजे से रहने लगा। अब तो मोह ने और भी जोर पकड़ा। एक जीवो की हत्या करवाई। वात्सल्यमय तरफ जवानी और दूसरी ओर पैसे की सत्ता अर्थात् कुछ भी कमी न रही। नौकर और दूसरी गरीबी की माता बनाने के बदले मेरी लालसाओं शिकार बनी हुई महिलायें मेरी वासना की हताशन में भस्मसात् बन गयी। अरे ! मैं तो पागल ही बन ने पत्नी को कोमल, निर्दोष, असहाय, गया! मानो यही स्वर्ग है ! मुझे क्या मालूम था कि इस मौज-मजे की वजह से असंख्य वर्ष की अशरण ऐसे मेरे ही खून के अंश से बने हुए कितनी भयंकर सजा होगी? वासना के अतिरिक्त टेक्स बचाने के लिए अफसरों के साथ घूमने बालकों की नृशंस राक्षसी हत्यारी बना दी। फिरने जाते समय शराब और शेरे पंजाब होटलो में मांसाहारी भोजन का भी स्वाद लिया। अरे! स्व-बालकों को मारने की नृशंसता तो
शायद पशुओं में भी नहीं होती है। मेरी वासना क्या कहँ गुरुदेव? मेरी काली आत्मकथा। अंडे का आमलेट, चीकन का स्वाद भी मेरी
की वाइरस बीमारी आस-पास के व्यक्तियों को इस जीभ ने चख लिया। अरर! मैंने यह क्या किया? पंचेन्द्रिय की हत्या! अरे! मेरा क्या
अपनी चपेट में लेने लगी। यह सब याद आने पर होगा? नरक सिवाय मुझे अन्य गति नहीं मिलेगी। ऐसी मेरी करतूते हैं। मेरे जीवन में अनेक
चीख निकलती है कि हे गुरुदेव! मेरा क्या होगा? पापों ने अपना डेरा डाल दिया। मुझे इसका भान भी न रहा। "बबूल के वृक्ष बोनेवाले को काँटे ही मिलेंगे, आम कभी नहीं"-इस सिद्धान्त को तो मैं बिल्कुल भूल ही गया।
एक बार नसीब ने साथ दिया और कॉलेज में मानसिक आधि, शारीरिक व्याधि और बाह्य उपाधियों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया।
प्रॉफेसर की नौकरी मिल गयी। उसमें एक विद्यार्थिनी मानो मेरा नूर ही खो गया। तेज नष्ट हो गया। मानो मैं पृथ्वी पर कचल दिया गया। मेरे पास ट्युशन के लिये आती थी। मेरी पत्नी को दोसर्वनाश की भयंकर खाई के किनारे पर खड़ा हो गया । अब भी इस बात का स्मरण
चार दिन के लिये बाहर जाना हुआ। ट्युशन के बहाने से करते हुए आँखों में अंधेरा छा जाता है।
एकान्त का मैदान मिल गया। वासना का शिकार बनकर
मेरी आत्मा विद्यागुरु के स्थान पर शैतान बन गई। गुरुone ade ode oped by PROMPEddieo शिष्य के पवित्र संबंध को मैंने कलंकित कर दिया।
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कहीं मुनसान जाए....8
व्यापार करता हुआ मैं अनीति में मेरी आत्मा पीसी जायेगी? उसका विचार भी के लिये दिया, भीतर तो वर्षों तक वैर की इतना आगे बढ़ा कि फर्जी बिल और न आया। निरंतर धन, धन और धन का गाँठ बनाये रखी और जान से मार डालने के डानीकेट हिसाब लिखना, तो मेरे लिए बायें रटन चलता था। कितने ही सज्जनों का मनसूबे भी बहुत किये। पड़ोसियों को हाथ का खेल बन गया। माल बताना दूसरा विश्वासघात भी धन के लिए किया। धन गालियाँ देने में पीछे मुड़कर देखा भी नहीं।
और देना दूसरा, इसमें मैं अपनी चतुराई प्राप्ति के लिए न देखा दिन, न देखी रात। क्या होगा गुरुदेव? एक अपशब्द से चंद्रा को मानने लगा। दस के बदले ग्यारह नोट तो
नरक में ले जाने वाला रात्रि-भोजन ।
कलाई कटवानी पड़ी और सर्ग को शूली पर अनेक बार तिजोरी में डाल दिए थे। मेरी " का पाप भी इस धन की लालसा ने
चढ़ना पड़ा, तो मेरी क्या गति होगी? a ध-लोलुपता तो मम्मण शेठ के साथ स्पर्धा
गुरुदेव! अहंकार का तो मैं पुतला था। मेरे क ने लगी। अरे गुरुदेव! अपेक्षा से तो करवाया। क्या करूँ गुरुदेव? कर्म से मैला
सामने दूसरों का नाम ले लिया गया हो और उसकी धन-लालसा मेरी अपेक्षा तुच्छ कही बना हुआ हृदय चौधार आँसुओं के सिवाय
मेरा नाम भूल गए हो, तो मेरे दिमाग का पारा जा सकती है। दान धर्म के साथ तो मानो धुले ऐसा नहीं लगता। गुरुदेव! आप कहते हैं
ऊँचे चढ़े बिना नहीं रहता था। पारा चढ़ने मुडो वैर ही था। धिक्कार हो मेरे इस विषयषय- रो नहीं। रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? वो आँसू
के बाद वह चाहे धर्मकार्य क्यों न हो? उसे सं सानुबंधी रौद्र ध्यान को ! मेरी आंतरिक रूककर फिर आ जाते हैं। गुरु भगवंत, आप
तोड़े बिना नहीं रहता। ओह गुरुवर! अब तो माताएँ तो इतनी तीव्र थी कि धनप्राप्ति में प्रायश्चित रूपी साबुन मेरे हृदय पर लगाइए,
हद हो गई मेरे काले कर्मों की! माया करके काई आड़ा आया, तो गुंडों के द्वारा उसका ताकि मेरा हृदय स्वच्छ निर्मल बन जाए।
दूसरों को ठगने में बुद्धि का चातुर्य समझता सफाया कराने की नीच भावना भी मुझ में छोटी-छोटी बातों में भी क्रोध से था। मायाजाल करने पर भी मैं पकड़ा नहीं जोर पकड़ रही थी।
प्रज्वलित होकर दूसरों को तो क्या पत्नी गया? उसका मुझे गौरव था। वास्तव में मैंने इन कुकर्मों का दारूण विपाक मुझे ही और बच्चों को भी मारने में कुछ कमी नहीं अपनी आत्मा को ही ठगी है। गुरुदेव! अब भोगना पड़ेगा। यह विचार मुझे स्वप्न में भी रखी। आज तक कभी भाव से तो मिच्छामि क्या करूँ, जिससे मेरा पाप धुल जाए? बस, नहीं आया। क्या करूँ गुरुदेव! मेरी आत्मा दुक्कडं दिया ही नहीं और अगर देना भी मुझे तो यही लगता है कि सभी कुकर्मों का हा फेक दी जाएगी? अरे किस क्रूर रीति से पड़ा हो, तो वह भी बाहर से अच्छा दिखाने आपसे प्रायश्चित लेकर शुद्ध बन जाऊँ ।ay.org
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9... कहीं मुरझा न जाए
भविष्य मनोव्यथा
गुरुदेव! मुझे जब अपने जीवन की काली किताब याद आती है, तब रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अरे जीव! तेरा क्या होगा? कण जितने सुख के लिए मण जितने पाप किये हैं, उनसे टन जितना दुःख आएगा, उन्हें तू किस तरह सहन करेगा? गुरुदेव, जरा-सी गर्मी पड़ती है, तो आकुल-व्याकुल होकर पंखे या एयरकंडिशन की हवा खाने के लिये दौड़ता हूँ, तो फिर नरक की भयंकर भट्ठियों की असह्य गर्मी को कैसे बर्दाश्त करूँगा? जहाँ लोहा क्षणभर में पिघल कर पानी जैसा प्रवाही बन जाता है, परमाधामी भट्ठी के ऊपर मुझे भुट्टे की तरह सेकेंगे, तब गर्मी कैसे सहन कर सकूँगा? तड़प-तड़प कर आकुल-व्याकुल बने मन को
आश्वासन देनेवाले वचनों के बदले परमाधामी के कड़वे वचन सहन करने पड़ेंगे, "ले, अब कर मज़ा।"
जब पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि मांसाहार छोड़ दे। जीवों को पीड़ा मत दे। तब कहता था, "किसने देखा है परलोक? मछली वगैरह प्राणियों को तल कर व अंडे वगैरह को केले के समान उबाल कर खाता था, तब क्या तुझे भान नहीं था? ले, अब कर मज़ा।" ऐसा कहकर परमाधामी भीषण ज्वालाओं से कराल जैसी भट्ठी पर चढ़ाई हुई कढ़ाईयों में तल देंगे, मुँह में जस्त का गरमा-गरम रस डालेंगे और तब त्राहिमाम्-त्राहिमाम् (मुझे बचाओ) की पुकार कोई नहीं सुनेगा, तब मेरा क्या होगा? इतना ही नहीं, गुरुदेव ! ऊपर से परमाधामी सुनाएँगें- "दूसरों की निंदा करने में आनंद आता था न! ले, अब कर मजा ।" तेरी जीभ खींच लेता हूँ। सोडा लेमन, बीयर, व्हिस्की आदि अभक्ष्य पान के सेवन में आनंद आता था न? अब तृषा लगी है न, तो ले ये गरमागरम जस्त का रस । परस्त्रियों के चुंबन और आलिंगन तुझे मीठे लगते थे न, तो ले इन गरमागरम लोहे की पुतलियों के साथ कर चुंबन और आलिंगन । जीवों को चीर कर अभक्ष्य भोजन करता था न ले, तेरे टुकड़े टुकड़े कर देता हूँ।" ऐसा कहकर आम की फाँक की तरह शरीर के टुकड़े टुकड़े कर देंगे। वह मुझसे किस प्रकार सहन होगा ?
ओह गुरुवर्य ! और कहेंगे कि, थोड़ी-सी दुर्गंध आती थी, तो नाक बंद कर डी. डी. टी. छिड़का के लिए तैयार हो जाता था, अब भयंकर दुर्गंधमय वातावरण और वैतरणी नदी में तुझे असंख्यात वर्ष तक मजबूरी से रहना पड़ेगा। "जरा-सी भी कुरूपता देखनी अच्छी नहीं लगती थी, उसके प्रति तिरस्कार और अपमान बरसाता था। अब नरक में असंख्यात वर्षों तक कुरूप जीवों को देखते रहना पड़ेगा। खुद
दोष जरा भी सुनने अच्छे नहीं लगते थे और दूसरों के दोष जानने में आनंद आता था, तो अब तू सुनते रह अपने दोष और अपराधों को तू अपराधों को नहीं सुनेगा और भाग जाने का प्रयत्न करेगा, तो पटक-पटक कर चूर-चूर कर दूँगा।" परमाधामियों के ऐसे कठोर वचन कैसे सहन करूँगा? यहाँ तो सब्जी व दाल में नमक-मिर्च जरा-सी भी कम हो जाए, तो रौद्र रूप धारण कर लेता हूँ, तो फिर नरक में बिभत्स और दुर्गंधमय नीरस आहार कैसे ग्रहण करूँगा? गुरुदेव ! मेरी आत्मा पाप से कंपित हो उठी है। ओह! कल्याणमित्र पूज्य गुरुदेव ! गुमराह बने हुए मुझे कोई सन्मार्ग बताइए। शीघ्र बताइए। क्या करूँ मैं?
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अरे पुण्यशाली मानव! तू वास्तव में
कहीं मुनसा न जाए...10 धन्यवाद का पात्र है। पाप हो जाना, कोई आश्चर्य नहीं है। मोहनीय कर्म के उदय से
शब्द ही नहीं मिल रहे हैं। अरे! मेरा किसने कौन-से पाप नहीं किये? क्या मोह ने
शब्दकोष भी वामन हो गया है! अब
का आश्वासन तीर्थंकर की आत्मा को भी छोड़ा है? क्या
दिल में एक भी पापरूपी काँटा मत
रखना, अन्यथा जैसे अश्वपालक के उन्होंने अपने पूर्व जीवन में भयंकर पाप नहीं किये? क्या उन पापों से उन्हें सातवी नरक तक नहीं जाना पड़ा? परंतु जीवन की काली-श्याम किताब
घोड़े के पैर में काँटा लग गया था और को धोकर तुझे उज्जवल बनने का मनोरथ हुआ हैं। अतः तू धन्यवाद का पात्र है। तू तो काली किताब का
अश्वपालकने काँटा नहीं निकाला, एक-एक पन्ना खोलकर कालिमा को धो रहा है। अतः तू विशेष रूप से धन्यवाद का पात्र है। बालक जैसी
जिससे पैर में मवाद भर गई और अंत सरलता से एक एक पाप निष्कपट भाव से प्रगट कर दे। अरे! आत्मा पर से झिड़क दे इन पापों को।
में संपूर्ण पैर कटवाना पड़ा, उसी
प्रकार तू भी अंदर पाप रखकर घोड़े हे भाग्यवंत! तेरे द्वारा सरलतापूर्वक हो रही आलोचना से तेरे प्रति मेरे हृदय में वात्सल्य का सागर
की तरह दुःखी मत होना। तू अंदर रल रहा है, क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि आलोचना लेनेवाला ही वास्तव में आराधक है। हृदय रुपी गंदी
किसी भी प्रकार की शर्म मत रखना। गर में आराधना का इत्र डालने से क्या सुगंध आ सकती है? नहीं। पाप, शल्य व दोष तो मुर्दे के समान
मुझ पर दृढ विश्वास रखना। जो तूने है। मुर्दे पर कितने ही फूल चढ़ाये जायें, थोड़ी देर के लिए सुगंध आती रहेगी, परंतु अन्दर तो बदबू बढ़ती
आलोचना कही है, वह किसी के भी है। रहेगी। पाप शल्य व दोषों की आलोचना न लेने से थोड़ी देर के लिए आनंद आ सकता है, परंतु भावों
कान तक नहीं जायेगी। मैं मरूँगा, तो की अभिवृद्धि तो मुर्दे की तरह दोषों को आत्मा में से बाहर फेंकने से ही होगी। तूने आज मेरे सामने हृदय
मेरे साथ ही आयेगी। उसे मैं हृदय रूपी प्रखोलकर आलोचना कही, जिससे तेरा हृदय साफ हो गया है, अब तेरा जीवन आराधना की सुगंध से महक
कब्रिस्तान में गाड़ चुका हूँ। ज्यादा ठेगा। अतः तू आज धन्यवाद का पात्र है, परन्तु याद रखना, भूलना मत । एक भी पाप को कहने में गलती
क्या कहूँ? आलोचना का प्रायश्चित त करना, शरम मत रखना। हृदय में एक भी शल्य मत रखना। तूं वास्तव में भारहीन हो जायेगा। तेरा
देने का अधिकार उसीको है, जो सर हल्का हो जायेगा। तेरा हृदय स्वच्छ हो जायेगा। सिर पर से सारा बोझ उतर जायेगा।
अपरिश्रावी होता हैं अर्थात् आलोचना हे देवानुप्रिय! तेरी आलोचना सुनकर मैं तो तेरी पीठ थपथपाता हुआ धन्यवाद दे रहा हूँ। वस्तुतः सुननेवाला और प्रायश्चित देनेवाला ने अद्भुत पराक्रम किया है। खूब हिम्मत रखकर पापशल्यों को जड़मूल से उखाड़ फेंके हैं। अदभुत ऐसा व्यक्ति होता है, जिसके हृदय से साधना की है, अभ्यंतर तप का आस्वाद लिया है। किन शब्दों में तेरे पुरुषार्थ की प्रशंसा करूँ ? मुझे ऐसे वह बात कभी बाहर न निकले।
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11... कहीं मुरझा न जाए
प्रायश्चित देनेवाला गुरु पत्थर के घड़े जैसा होता हैं। जिसमें से एक बूंद भी बाहर न निकल पाये। अतः तू कोई काल्पनिक भय या लज्जा मत रखना। शास्त्रों में ऐसे-ऐसे दृष्टांत आते हैं कि माता और पुत्र, पति-पत्नी जैसे पाप करने वाले जीव आलोचना से शुद्ध हो गये, पति-पत्नी बनकर पाप से भारी बने हुए भाई-बहिन आलोचना के द्वारा शुद्ध हो गये। अरे! उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में पहुँच गए।
अरे पुण्यशाली आत्मा ! तू मेरी एक बात सुन ले। महानिशीथ सूत्र में कहा है कि आलोचना लेने के भाव का भी एक ऐसा महाप्रभाव हैं कि आलोचना सुनाते-सुनाते कितने ही महापुरुषों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अमुक आत्माओं ने तो आलोचना शुद्धि का इतना प्रायश्चित आया हैं, इतना सुनते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। आये हुए प्रायश्चित को वहन करते-करते कितने ही आत्माओं ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। ज्यादा तो क्या कहूँ? आलोचना सरलतापूर्वक कह देने की तीव्र उत्कण्ठा से उठकर भवोदधितारक गुरुदेवश्री के पास जाते-जाते बीच में ही कितने ही भव्यात्माओं ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
धन्य हो उन महापुरुषों को! धन्य हो उनकी शुद्ध बनने की उत्कंठा को! तू भी ऐसा ही महापुरुष भविष्य में बनेगा। अरे महात्मन्! तू भी अनेक जीवों का तारणहार बनेगा, क्योंकि तूने अपनी आत्म-भूमिका शुद्ध बना ली हैं। अब यह मुख्य रूप से ध्यान रखना कि सद्गुरु का योग मिलने के पश्चात शुद्ध आलोचना न कही, तो रूक्मिणी आदि के समान अनेक भावी जीवन बिगड़ जाएंगे। तू ऐसा मत मानना कि "गुरुदेवश्री मुझे हल्का मानेंगे। अर! बाहर से इतना धर्मी दिखने वाला मानव अंदर से कितना श्याम!" क्योंकि शास्त्रों के जानकार • गुरुदेवश्री ने तो शास्त्र और अनुभव के बल पर तुझ से भी अनेक गुने पापात्माओं का जीवन जाना हैं। वे इस तथ्य को समझे हुए हैं कि पाप करने वाला खराब होने पर भी पाप की आलोचना लेने वाला महान आराधक हैं। पापभीरु आत्मा ही आलोचना लेने के लिए तैयार होती हैं। पापभीरुता यह तो आत्मा का गुण हैं। ऐसे गुणवाले के प्रति धिक्कार आ जाए, तो प्रमोदभाव चला जाए
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एवं अपेक्षा से साधुता को
कहीं मुरझा न जाए...12
गुरुदेवश्री कहलानेवाली आत्मा मिथ्यात्व में पहुँच
। अतः ऐसे विचार भी गुरुदेवश्री स्वयं के दिल में कभी आने नहीं देते। इसलिए तू
निःसंकोच होकर आलोचना कह देना, जिससे शुद्ध होकर शीघ्र मोक्ष का भोक्ता हो जाएगा। आलोचना कहनी एक सुकृत
हैं। सुकृत करनेवाले को गुरुदेवश्री कभी फटकारते नहीं, फटकारे तो सुकृत की अनुमोदना खत्म होकर गुरुदेव को भी अनेक भव करने पड़ते हैं। रूक्मिणी आदि के उदाहरण जानकर अरे महामानव! तू दिल में तिलतुषमात्र भी पाप मत रखना। तू महान आराधक बनेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।
अरे आराधक आत्मा! पापरूपी अपराध जैसा किया हो, वैसा ही कह देना। जरा-सा भी संकोच मत रखना। कई बार जान बुझकर पाप किया हो, तो कई बार अनजान में भी किया हो, किसी समय किसी की प्रेरणा से भी किया हो, तो किसी समय जबरदस्ती से भी किया हो, कई धर्मस्थानों में भी किया हो, कई बार होटलादि में किया हो, कई बार दिन में किया हो, कई बार रात में, कई बार रागभाव से किया हो, अतः उसे करने में आनन्द भी आया हो, कई बार अनिच्छा से या द्वेष से भी करना पड़ा हो, यह सब सरल भाव से कह देना । कहने की हिम्मत न हो अथवा याद न रहे, तो लिख देना। लिखने के पश्चात् ३-४ बार पढ़ लेना। बार-बार याद करके विस्तारपूर्वक लिखने में जरा
भी भय रखना मत। शास्त्रों में कहा है कि... सहसा अण्णाणेण व भीएण व पिल्लिएण वा । वसेणायंकेण व मूढेण व रागदोसेहिं ।। १ ।। जं पंच कयमकज्जं उज्जुयं भणई। तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को ॥२॥
यकायक, अज्ञान, भय, दबाव, व्यसन, संकट, मूढ़ता व रागद्वेष से जो भी अकार्य किया हो, वह सरलता से मायारहित और हंकाररहित कह देना चाहिए ।
अरे जीव! तू गुनाह करने से डरा नहीं, तो अब आलोचना के समय क्यों डरता है ? पाप करते समय शर्म नहीं रखी, तो फिर प्रायश्चित के समय क्यों शर्म रखता है? अरे आत्मन् । आलोचना और प्रायश्चित तो आत्मा के भवोभव सुधार देते हैं। अरे केवलज्ञान क पहुँचा देते हैं। महान समाधि की ओर ले जाते हैं।
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13... कहीं मुरक्षा न जाए
■ आलोचना का महत्त्व
जंबुदीवे जे हुंति पव्वया, ते चेव हुंति हेमस्स ! दिज्जति सत्तखित्ते न छुट्टए दिवसपच्छितं ॥ १ ॥ जंबुदीवे जा हुज्ज वालुआ, ताउ हुति रयणाइ । दिज्जति सत्त खिते, न छुट्टए दिवसपच्छित्तं ॥२॥
जंबूद्वीप में जो मेरु वगैरह पर्वत हैं, वे सब सोने के बन जाये अथवा तो जंबूद्वीप में जो बालू है, वह सब रत्नमय बन जायें। वह सोना और रत्न यदि सात क्षेत्र में दान देवें, तो भी पापी जीव इतना शुद्ध नहीं बनता, जितना भावपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित वहनकर शुद्ध बनता है।
आलोयणपरिणओ सम्मं संपट्टिओ गुरुसगासे । जइ अंतरावि कालं करेइ आराहओ तहवि ॥ १ ॥ ज्यादा तो क्या कहूं? अरे भव्य आत्माओं ! जिसने शुद्ध आलोचना कहने के लिये प्रस्थान किया है और प्रायश्चित लेने से पहले वह व्यक्ति बीच में मृत्यु को प्राप्त हो, तो भी वह आराधक बनता है। अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक बनता है । इसलिये आलोचना शुद्ध करनी चाहिये ।
■ अशुद्ध आलोचना किसे कहते है?
लज्जा गारवेण बहुस्सुयभयेण वावि दुच्चरियं । जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति ॥ १ ॥
अर्थात् ऐसा अकृत्य कहने में शरम आती है। मैं इतना धर्मी हूँ, अथवा मैं बड़ा हूँ, पाप कहने से मेरी लघुता होगी। इस प्रकार गौरव से या पांडित्य का नाश न हो जाए, इस भय से जो जीव शुद्ध आलोचना नहीं करते, वे वास्तव में आराधक नहीं बनते हैं ।
■ अशुद्ध आलोचना लेनेवाले के १० दोष :
आकंपईत्ता अणुमाणईत्ता, जं दिट्ठे बायरं वा सुमं वा छन्न सद्दक़लयं, वहुजण अवत्त तस्सेवी ॥ १ ॥
अर्थात १) आकंप्य याने गुरु की वैयावच्च करके अपने लिये गुरु के मन में हमदर्दी खड़ी करके कहे कि, आप कृपा करके मुझे आलोचना का प्रायश्चित थोड़ा देना । २) उसी तरह गुरु की वैयावच्च करने से ये गुरुमहाराज मुझे थोड़ा दंड देंगे, ऐसा अनुमान करके आलोचना कहे । ३) दूसरो ने जो दोष देखें, उसी की आलोचना कहे, परंतु जो दोष किसीने भी न देखें, उसकी आलोचना न कहे। ४) बड़े दोषों की आलोचना कहे, परंतु छोटे दोषों की उपेक्षा करके आलोचना न कहे । ५) पूछे बिना घासादि लिया हो, ऐसी छोटी-छोटी आलोचना कहे, परंतु बड़ी-बड़ी आलोचना न कहे। गुरु जानेंगे कि जो ऐसी छोटी आलोचनाएँ भी कहता हो, वह बड़ी आलोचना किसलिये छुपाये ? इसलिये उसे ऐसी बड़ी आलोचना आई ही नहीं होगी, ऐसा मानकर गुरु उसे शुद्ध माने और खुद का गौरव टिका रहे। उसी तरह खुद का गौरव टिकाने के लिये परिचित गुरु के पास आलोचना न कहकर, अपरिचित गुरु के पास आलोचना कहे। इस तरह आलोचना कहने वाला शुद्ध होने का झूठा संतोष मानता है। ६) छन्न अर्थात् गुरु को बराबर समझ में ही न आये, इस प्रकार अव्यक्त
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- आलोचना का प्रायश्चित्त किसे दिया जाए?
कहीं भुनभा न जाए...14 आवाज से आलोचना ___ शास्त्र में कहा है कि -
करवाते हैं, परन्तु जान-बूझकर पाप छिपानेवाले को याद कहे। ७) जहाँ शोर नह सुज्झइ ससल्लो जह भणियं सासणे धुयरयाणं। नहीं कराते। शास्त्र में कहा है कि - बहुत हो, वहाँ गुरु उद्धरियसव्वसल्लो सुज्झइ जीवो धुयकिलेसे॥१॥
कहेहि सव्वं जो वुत्तो जाणमाणे गुहई। को ठीक तरह से कर्मरज जिन्होंने दूर कर दी है, ऐसे परमात्मा के न तस्स दिति पायच्छित्तं बिंति अन्नत्थ सोहय॥१॥ सनाई न दे, ऐसे : शासन में कहा गया है कि शल्य (छिपाए हुए पाप) सहित
न संभरइ जो दोसे सब्भावा न य मायाओ। स्थान में आलोचना : कोई भी जीव शुद्ध नहीं होता है। क्लेश रहित बनकर
पच्चक्खी साहए ते उ माइणो उ न साहइ।।२।। कहे। ८) आलोचना : सभी शल्यो को दूर करके ही
भास सभी शल्यों को दूर करके ही जीव शुद्ध बनता है। अतः कोई ओघ-सामान्य ढंग से ऐसे कह दे कि मैंने का प्रायश्चित लेकर
शुद्ध होने के लिए आलोचना अवश्य कहनी चाहिए। अनेक पाप किए हैं, सभी का प्रायश्चित दे दीजिए और रहत लोगों को खुद के जीवन में जिस किसी भाव से जान
जानते हुए भी अपने दोषों को छुपाये, तो उस व्यक्ति को सनायें, जिससे शट : बूझकर या अनजाने में पाप किए हों. उसी भाव से भी प्रायश्चित नहीं दिया जाता, दूसरे गुरु के पास शुद्धि सयमी आमा : कपटरहित होकर बालक की तरह गुरुदेवश्री से उन पापों
करना ऐसा कह देते हैं। परन्तु एक-एक पाप याद करके
कह दे और जो पाप वास्तव में याद न आये, उसका ओघ में खुद का गौरव बढे। का कहदा उस हा प्राचारपत दिया जाता ह आ ९ जोडल : आत्मा शुद्ध होती है। परन्तु माया के कारण अमक पापों से प्रायश्चित मांगे, तो प्रायश्चित दिया जाता है। आज
तक अनंत आत्माओं ने आलोचना कहने से मोक्ष प्राप्त हो, ऐसे अगीतार्थ को
को हृदय रूपी गुफा में छुपाकर रखे, उसे केवलज्ञानी आलोचना कहे ।
" : जानते हए भी प्रायश्चित नहीं देते तथा छदमस्थ गरू भी किया है। शास्त्र में कहा है कि
दो तीन बार सुनें और यदि उन्हें यह ज्ञात हो जाए कि निट्ठियपापपंका सम्मं आलोइउं गुरुसगासे। १ मुझे धिक्कारेंगे
: जीव माया के कारण स्वयं के पापों को छिपा रहा है, तो पत्ता अणंतजीवा सासयसुखं अणाबाहं ॥१॥ फटकारेंगे, ऐसे भय से उसे गरुदेव प्रायश्चित नहीं देते
| : उसे गुरुदेव प्रायश्चित नहीं देते और कह देते हैं कि दूसरे अर्थात् पापरूपी कीचड़ का जिन्होंने नाश किया
: के पास प्रायश्चित लेना, परन्तु जिस व्यक्ति को है, ऐसे अनंत आत्माओं ने गुरु के पास सुन्दर रीति से रन वाले गुरु के ज्ञानावरणकर्म आदि दोषों के कारण पाप याद नहीं आते आलोचना लेकर बाधा से रहित ऐसे अनंत शाश्वत सुख अ..आलोचना कहे। : हो, तो गुरुदेवश्री भिन्न-भिन्न प्रकार से उसको याद को प्राप्त किया है।
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___15...कहीं सुनसान जाए
HAलोचना सब को करनी चाहिए
जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहि।
शस्त्र, विष या अभिमान से क्रोधित वेताल जो हानि नहीं एवं जाणगस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे॥१॥
करता, वह हानि सर्व दुःखों का मूल अनालोचित भावशल्य जिस प्रकार कुशल वैद्य भी स्वयं की व्याधि दूसरों से
करता है। आलोचना करने वालों को यद्यपि गुरुमहाराज महान कहता है, उसी प्रकार प्रायश्चित को जानने वाले गीतार्थ
व्यक्ति मानते हैं और उसकी पीठ भी थपथपाते हैं, फिर भी आचार्य को भी दूसरे के पास आलोचना करनी चाहिए अर्थात्
उसके हित के लिए यदि गुरुदेव कोई शिक्षा-वचन कहे, तो भी उपाध्याय-पंन्यास-गणि साधु-श्रावक आदि सब को
गुरु के ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए। आलोचना अवश्य करनी चाहिए। आलोचना कहने के सिवाय
आलोचना के पश्चात् पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए; कि आत्मा शुद्ध नहीं होती है।
"अरर! यह मैंने क्या किया ? अपने जीवन की सारी
कमजोरियाँ स्पष्ट कर दी । अरर ! क्या होगा?'' इस प्रकार के आलोचना न लेने से हानि :- जो अनर्थ जहर से नहीं।
विचार आने नहीं देने चाहिए, बल्कि आनंद व्यक्त करना होता, शस्त्र या तीर से नहीं होता, उससे अनेक गुनी हानि ।
चाहिए। शास्त्र में कहा है किमायाशल्य से अर्थात् अंदर छिपाए हुए पापों से हो जाती है।
अणणुतापी अमायी चरणजुआलोयगा भणिया। पाप गुप्त रखने से रूक्मिणी के एक लाख (१०००००) भव
अर्थात् पीछे से पश्चात्ताप नहीं करने वाला आलोचक हो गये। विष से एक बार मृत्यु प्राप्त होती है, परन्तु पापों को
अमायावी और चारित्रयुक्त कहा गया है। प्रगट नहीं करने से हजारों बार मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।
जिस तरह सुकृत करने के बाद पश्चाताप नहीं किया शास्त्र में कहा हैं कि
जाता, उसी तरह आलोचना कहनी, यह भी एक सुकृत है। नवि तं सत्थं व विसं दप्पयुत्तो व कुणई वेतालो।
इसलिये आलोचना कहने के बाद उस सुकृत की अनुमोदना जं कुणई भावसल्लं अणुद्धरियं सव्वदुहमूलं ॥१॥
करनी चाहिए। पश्चाताप नहीं। स्वयं को आया हुआ प्रायश्चित
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कहीं भुवा जनाए..16
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दसरों को बताये नहीं। आलोचना करने के बाद तथा प्रायश्चित लेने उत्तमार्थ-अनशन के समय यदि भावशल्य को दूर नहीं करता के पश्चात् ऐसा प्रयत्न होना चाहिए, जिससे वे पाप पुनः न हों है, तो अनशन करने वाला दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी बनता है। योंकि पुनः पुनः वे पाप करने से अनवस्था खड़ी हो जाती है।
खिले हुए फूल के समान उत्तम मनुष्य जन्म में देव, गुरु और कदाचित् मोहवश पुनः हो जाएँ, तो फिर से किए हुए पापों की पुनः
धर्म की सामग्री मिलने पर भी यदि वह व्यक्ति अब आलोचना न ले, आलोचना लेनी चाहिए। शास्त्र में कहा है कि
तो उसका यह मनुष्य जीवन रुपी फल मरझा जायेगा और जीव को तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरु उवइसंति।
दुर्गतियों में भवभ्रमण करना पड़ेगा। इसलिये आलोचना का तं तह आयरियव्वं अणवत्थ पसंगभएण॥१॥
प्रायश्चित रूपी पानी छिटकते रहना चाहिए। अतः इस पुस्तक का अर्थात मोक्षमार्ग के जानकार गुरुदेवश्री जो प्रायश्चित देते हैं, नाम रखा है, "कहीं मरझा न जाए।" अरे जीव ! तू भव आलोचना ___ उसको अनवस्था के भय से उसी प्रकार वहन करना चाहिए। ले लेना, अन्यथा यह मनष्य जीवन का फल कहीं मरझा जायेगा।
प्रायश्चित वहन न करने से पुनः अनायास दूसरी बार पाप हो जाते खिला हआ फल मस्तक आदि शुभ स्थान पर चढ़ता है। यदि है एवं यह देखकर दूसरे व्यक्ति भी आलोचना-प्रायश्चित नहीं मस्तक आदि पर न चढा, तो मुरझाने पर धूल में फेंक दिया जाता है। करेंगे, वे निर्भय होकर पाप करते रहेंगे, जिससे अनवस्था होगी।
रे जीव ! तू भी मुरझाए हुए फूल की तरह दुर्गतिरूपी धूल में फेंक आलोचना नहीं लेने वाला व्यक्ति कदाचित अनशन भी कर दिया जाएगा। अतः हे जीव ! तुझे रेड सिग्नल दिया गया है ले, तो भी शुद्ध नहीं होता, परन्त दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी कि, "कहीं मुरझा न जाए!" एक बार भव आलोचना लेने के बाद हर बनता हैं। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि
वर्ष वार्षिक आलोचना लेनी चाहिए। ऐसा श्रावक के वार्षिक ११ जं कुणई भावसल्लं, अणुद्धरियं उत्तमढकालम्मि।
कर्तव्य में कहा हुआ है। जो हर वर्ष गुरु का योग न मिले, तो जब dain Education inle'दुल्लहबोहियत्तं अणंतसंसारियत्तं च॥१॥ For Personal s योग मिले, तब आलोचना कर लेनी चाहिए।
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17...कहीं सुनमा न जाए
आज भी प्रायचित विधि है।
प्रायश्चित आलोचना
देने वाले गुरुदेवश्री कैसे होते है?
यदि कोई आत्मा कहती है कि आज इस काल में प्रायश्चित्त नहीं है, प्रायश्चित्त देने वाले नहीं है, इस प्रकार बोलने वाली आत्मा दीर्घसंसारी बनती है, क्योंकि नौवें पूर्व की तृतीय वस्तु में से उद्धृत आचार कल्प, व्यवहार सूत्र आदि प्रायश्चित्त के ग्रंथ एवं वैसे गंभीर गुरुवर आज भी विद्यमान हैं।
गुरुदेव से शुद्ध आलोचना लेने पर अपनी आत्मा हल्की हो जाती है, जैसे माथे से भार उतारने के पश्चात् भारवाहक स्वमस्तक अत्यंत हल्का महसूस करता है। वंदित्तु सूत्र में कहा है किकयपावो वि मणुस्सो आलोइय निंदिय गुरुसगासे। होई अइरेगलहुओ ओहरिय भरुव्व भारवहो॥१॥
जिस जीव ने पाप किया है, वह यदि
गुरु के पास उसकी आलोचना और निंदा करता है, तो वह अत्यंत लघु-हल्का बन जाता है। मानो भारवाहक ने माथे पर से भार उतार कर रख दिया हो। पाप करना दुष्कर नहीं है क्योंकि, अनादिकाल से मोहनीय कर्म आदि के परवश बनी हुई आत्मा पाप कर लेती है। तीर्थंकर की आत्माओं ने भी पाप किया था, परन्तु आलोचना के द्वारा वे भी शुद्ध बने, तभी उनका आत्मोत्थान हुआ। आलोचना लेनी, यही दुष्कर है। ज्ञानी भगवंतों ने कहा है कि -
तं न दुक्करं जं पडिसेविज्जई , तं दुक्कर जं सम्मं आलोइज्जइत्ति।
पाप करना दुष्कर नहीं है, परन्तु भली प्रकार से आलोचना लेना दुष्कर है।
आयारवमाहारव ववहारोऽपवील पकुव्वे य।
अपरिस्सावी निज्ज अवायदंसी गुरु भणियो॥शा
ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचार को सुंदर रीति से पालने वाले हो, आलोचक (आलोचना करने वाला) के अपराधों के अवधारण में समर्थ हो। आगम से लेकर जित व्यवहार तक के पाँच व्यवहारों के जानकार हों। अपव्रीडक-लज्जा के
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कहीं सुनसा न जाए....18
कारण कोई व्यक्ति स्वपापों को छिपाता हो। उसकी लज्जा दूर करके ठीक प्रकार से आलोचना करवाने वाले हों। प्रकुर्वक-आलोचक की शुद्धि करने के लिए समर्थ हों। अपरिश्रावी = आलोचक द्वारा कहे हुए दोष दूसरों को बताने वाले न हों । निर्यापक = अर्थात् वृद्धत्व आदि के कारण प्रायश्चित वहन करने में असमर्थ हो, तो उसे योग्य प्रायश्चित देकर प्रायश्चित नहीं करने वालों को परलोक का भय मार्मिक ढंग से समझने वाले और गीतार्थ हों। ऐसे प्रायश्चित देने वाले गुरु बताए गए हैं। . अगीतार्थ गुरु शास्त्र के जानकार नहीं होने से कम या अधिक प्रायश्चित देकर खुद भी संसार में गिरते है और दूसरों को भी गिराते है। अतः आलोचना के लिए उत्कृष्ट से ७०० योजन (5600 miles) और काल से १२ वर्ष तक अच्छे गीतार्थ गुरु की खोज करनी चाहिए।
विवक्षित क्षेत्र और काल के अन्दर गीतार्थ गुरु न मिलें और पश्चात्ताप के तीव्र भाव रूप भाव-आलोचना हो बजाय, तो वह जीव द्रव्य-आलोचना किए बिना भी केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। जैसे कि झाँझरिया ऋषि की हत्या कराने वाला राजा। सद्गुरु की खोज में कदाचित् मृत्यु भी हो जाय, तो भी आलोचना की अपेक्षा वाला होने से आराधक बनता है। परंतु सद्गुरु मिलने पर भी आलोचना की उपेक्षा करे, तो वह आराधक कैसे बनेगा ? अतः आलोचना अवश्य लेनी चाहिए।
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19...कहीं मुना न जाए
प्रायश्चित देने वाले गुरु कौन होते हैं ? आलोचना का प्रायश्चित देने वाले गुरु पांच व्यवहारों के जानकार होते हैं। १) आगम व्यवहारी :- अर्थात् केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, १४, १०, ९ पूर्वी हो, उनके पास प्रायश्चित लेना चाहिए। २) श्रुत व्यवहारी :- आगम व्यवहारी का योग नहीं मिले, तो श्रुतव्यवहारी। यानि की आधे से लेकर ९ पूर्वी, ग्यारह अंग, निशीथ आदि के जानकार के पास प्रायश्चित लेना चाहिए। ३) आज्ञा व्यवहारी :- श्रुत व्यवहारी का योग नहीं मिले, तो दो गीतार्थ आचार्य मिल सके, ऐसा संभव न हो, तब सांकेतिक भाषा में अगीतार्थ साधु को समझाकर गीतार्थ आचार्यश्री के पास भेजें और वे गीतार्थ आचार्यश्री सांकेतिक भाषा में उसे जवाब दें। उसके पास प्रायश्चित लेना चाहिए। ४) धारणा व्यवहारी :- आज्ञा व्यवहारी नहीं मिले, तो गीतार्थ गुरू ने जो प्रायश्चित दिया हों, वह याद रखकर जो प्रायश्चित दें, उनके पास प्रायश्चित लेना चाहिए। ५) जित व्यवहारी :धारणा व्यवहारी नहीं मिले, तो जो गुरू सिद्धान्त में बताये हुये प्रायश्चित से, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानकर कम या अधिक प्रायश्चित देते। हों। वर्तमान काल में जित व्यवहारी स्वगच्छ के आचार्यश्री के पास साधु या श्रावक प्रायश्चित लें, यदि स्वगच्छ के आचार्यश्री नहीं मिले, तो स्वगच्छ के उपाध्यायश्री, प्रवर्तक, स्थविर या गणावच्छेदक के पास प्रायश्चित लेना चाहिए। यदि ऊपर कहे मुताबिक नहीं मिले, तो सांभोगिक अर्थात् जिसके साथ स्वगच्छ की सामाचारी मिलती हो, उन आचार्यादि पांच के पास प्रायश्चित लेना चाहिए। यदि वैसे आचार्यादि भी नहीं मिले, तो विषम समाचारी वाले आचार्यादि पांच के पास प्रायश्चित लेना चाहिए।
उपर्युक्त कथन के अनुसार ७०० योजन एवं १२ वर्ष तक गीतार्थ गुरू नहीं मिले, तो फिर गीतार्थ पासत्था के पास प्रायश्चित ले । प्रायश्चित । लेने के लिए पासत्था को भी वंदन करने चाहिए, क्योंकि धर्म का मूल विनय है। यदि पासत्थादि स्वयं को गुणरहित मानें और वंदन नहीं करवाये, तो आसन पर बैठने की विनंति करके प्रणाम करके फिर आलोचना ले। यदि गीतार्थ पासत्थ आदि का संयोग नहीं मिले, तो गीतार्थ सारूपिक के पास आलोचना का प्रायश्चित ले। सारूपिक अर्थात् जो सफेद वस्त्र धारण करे, सिर पर मुंडन करवाये, धोती का कच्छ न बांधे, ओघा न रखे, पत्नी नहीं रखे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, भिक्षा (गोचरी) से जीवन निर्वाह करे। यदि सारूपिक का योग नहीं मिले, तो सिद्धपुत्र पश्चात्कृत के पास
आलोचना का प्रायश्चित लें। सिद्धपुत्र यानि कि सिर पर चोटी रखे और पत्नी सहित हों। चारित्र और साधु के वेष का त्याग करके गृहस्थ hamsion Internation.बना हो, वह पश्चात्कृत कहलाता है । उसको वेश पहनाकर ईत्वरिक सामायिक उच्चराकर विधिपूर्वक प्रायश्चित लेना चाहिए।
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उपर्युक्त कहे हुए जो पासत्थ आदि नहीं मिले, तो राजगृही नगरी में गुणशील चैत्य (मंदिर) आदि में जिन देवताओं ने तीर्थकर, गणधर वगैरह। महापरूषों को आलोचना देते हुए देखे हैं, उनको अट्ठम आदि तप से प्रसन्न करके उनके पास आलोचना ले । कदाच ऐसे देवों का च्यवन हो गया। हों तो दूसरे देव को स्वयं की आलोचना कहकर महाविदेह क्षेत्र में से अरिहंत भगवान आदि के पास से प्रायश्चित मँगवाये।।
- यदि वह भी संभव न हों, तो प्रतिमाजी के सामने आलोचना कहकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध बने । यदि उसकी भी शक्यता नहीं हो, तो पूर्व और उत्तरदिशा में अरिहंत एवं सिद्ध भगवान की साक्षी में आलोचना लेकर प्रायश्चित को स्वीकार करें, परन्तु पाप के प्रायश्चित लिये बिना नहीं | रहे क्योंकि शल्य सहित मृत्यु प्राप्त करने वाले विराधक बनते हैं। अनंत संसार परिभ्रमण करते हैं। यहां विशिष्ट रूप से ध्यान रखने योग्य है कि
आलोचना का प्रायश्चित स्वगच्छीय आचार्यश्री आदि के पास में ही लेना चाहिए। यदि उनका संयोग ही नहीं मिले, तो ही अन्त में पूर्व या | उत्तरदिशा में मुँह रखकर अरिहंत की साक्षी में आलोचना कहनी चाहिए। परन्तु स्वगच्छीय आचार्यश्री आदि का संयोग मिलता हो, तो पूर्व या उत्तर । दिशा में मुँह रखकर अरिहंत की साक्षी में आलोचना कहे, तो वह आराधक नहीं बनता।
शुद्ध आलोचना लेने से ८ गुण प्रकट होते हैं :- लघुआ ल्हाई जणणं अप्परपरानिवत्ति, अज्जव। सोही दुक्करकरणं आणा निसल्लत्तं सोहिगुणा॥१॥ _ अर्थात् १) जैसे माथे से भार उतारने के पश्चात् भारवाहक हल्कापन महसूस करता है, उसी प्रकार शुद्ध आलोचना करने के पश्चात् हृदय आर मस्तक में हल्कापन महसूस होता है, क्योंकि दोषों का बोझ दिल दिमाग पर नहीं रहा। २) ल्हाई जणणं अर्थात् आनंद उत्पन्न होता है। जिस तरह कोई पैसे खर्च कर सुकृत करें, तो उसे उस सुकृत के आनंद की अनुभूति होती है। उसी तरह मन को तैयार कर आलोचना शुद्धि करने रूप जो सुकृत करें, तब उसे उस सुकृत के आनंद की अनुभूति होती है। ३) आलोचना कहने से खुद के दोषों की निवृति होती हैं और उसे देखकर दूसरे भी आलोचना शुद्धि करते हैं। जिससे स्व-पर दोषो की निवृत्ति होती है। ४) सरलता गुण प्रकट होता है। ५) दोषरूपी मैल दूर हो जाने से आत्मा शुद्ध बनती हैं। ६) पूर्वभवों का अभ्यास होने से दोषों और पापों का सेवन हो जाता हैं, वह दुष्कर नहीं हैं, परंतु जो उसकी आलोचना गुरुदेव से कहे, वह दुष्करकारक कहलाता हैं, क्योंकि मोक्ष के अनुरुप प्रबल वीर्य के उल्लास विशेष के द्वारा ही वैसी आलोचना कही जाती है।
जिनेश्वर भगवान की आज्ञा की आराधना होती है, क्योंकि तीर्थंकर परमात्माने ही गीतार्थ गुरु के पास आलोचना लेने के लिये कहा है। क) दोषरूपी शल्य से मुक्त बनते हैं।
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आलोचना के बिना मुरझाए फूल...
सक्मिणी के एक लाख भव...
क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा की पुत्री ले सकते, न पति का मिलन भी होता है। इसलिए राज्याभिषेक किसका किया जाये ? | रूक्मिणी ने यौवन वय में कदम रखा ही था अतः जलकर मरने का विचार छोड़ दे और कुछ मंत्रियों की ओर से यह सूचना थी कि । कि राजा ने उसका विवाह योग्य राजकुमार के अपना जीवन धर्म अनुष्ठान में लगा दे। रूक्मिणी यद्यपि पुत्री है, तथापि पवित्र आत्मा। साथ कर दिया, परन्त विवाह होते ही उसका उसकी पूर्ण व्यवस्था राज्य की ओर से हो है। अतः उसे ही राजगद्दी पर बिठाना उचित । पति यमशरण हो गया। बालविधवा हो जाने जायेगी। धर्म अनुष्ठान में व्यस्त रहने से तू है। सभी ने स्वीकृति प्रदान की। राजगद्दी पर । से वह भयभीत हो गई। निराधार होने का सरलता से ब्रह्मचर्य पाल सकेगी। तेरा चित्त बैठने के बाद भी रूक्मिणी शद्ध ब्रहमचर्य का उसे जितना दुःख नहीं था, उससे भी अनेक धर्म अनुष्ठानों से ओत-प्रोत हो जायेगा। पालन करती थी। इससे उसकी कीर्ति चारों गुना दुःख उसे आजीवन ब्रहमचर्य पालने की
रूक्मिणी ने पिताश्री के वचनों को दिशाओं में व्याप्त हो गई। असमर्थता में लगा। वह अग्नि में कूदने की मान्य कर अपने विचारों को बदल दिया। दिन । रूक्मिणी के ब्रह्मचर्य गुण की ख्याति तैयारी करने लगी। तब उसके पिता ने उसे प्रतिदिन वह अधिकाधिक धर्मसाधना करने से आकर्षित होकर एक ब्रहमचर्य प्रेमी समझाया कि अग्नि में जल मरने से लगी। उसमें ब्रह्मचर्य के गुणों का भी विकास बुद्धिमान युवक, जिसका नाम शीलसन्नाह आत्महत्या का पाप लगता है। आत्महत्या से होने लगा। इस गुण के प्रताप से उसकी था, वह मंत्रीपद के लिए आया। उसका यह महान दुर्गति भी होती है। हत्या करने वाले यशोगाथा गाँव-गाँव में पहुँच गई। इसी बीच विचार था कि भरण-पोषण भी होगा और एक जीवन में प्रायश्चित ले सकते हैं, लेकिन उसके पिता की मृत्यु हो गई। उस समय कुछ गुणवान् आत्मा की सेवा भी होगी। सद्भाग्य आत्महत्या करने से परलोक में न प्रायश्चित मंत्रियों ने विचार किया कि राजा निष्पुत्र है, से उसे मंत्रीपद भी मिल गया।
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NOLOGE
रूक्मिणी की दृष्टि राजसभा में शीलसन्नाह मंत्री के ऊपर स्थिर हो गई।
एक दिन राजसभा में शीलसन्नाह मंत्री बैठा था। राज-सिंहासन पर बैठी हई रुक्मिणी चारों ओर दृष्टि घूमा रही थी। इतने में यौवन और लावण्य जिसके अंग-अंग में विकसित हो गया था, उस शीलसन्नाह मंत्री पर दृष्टि गिरी, गिरते ही दृष्टि वहीं स्थिर हो गई। "अहो ! इस मानव का इतना रूप है? अरे ! यौवन छलक रहा है। ऐसे मन में कुविचारों का चक्र प्रारंभ हो गया और दृष्टि में विकार आ गया।
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sha.03502030252525025225025022393022302030252502238230253020302802-592
शीलसन्नाह मंत्री की उपस्थिति में विचारसार राजा को कवल लेते ही सेनाधिपति ने दौड़ते हुए आकर रोक दिया।
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श्रीलसन्नाह को वस्तुस्थिति समझते देर न लगी। वह विचार करने लगा-अरे ! मैं तो चारों दिशाओं में ख्यातनाम एक ब्रह्मचारिणी की सेवा करने आया था। ओह ! पानी में से आग उठी है। कहाँ जाऊँ ? धिक्कार हो इस कामवासना को ! क्या इस कामग्नि में मैं भी भस्मीभूत हो जाऊंगा? नहीं, नहीं...... मुझे कहीं पर चले जाना चाहिए। यहाँ रहना उचित नहीं है। क्या पता कब उसकी कामाग्नि मेरे आत्मदेह को जला कर भस्म कर देगी? मेरी आत्मा को अपने पंजे में ले, इससे पहले ही मैं किसी दूसरे राज्य में चला जाऊँ!
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इस प्रकार विचार कर वह राज्य छोड़कर चला गया।
वह शीलसन्नाह मंत्री विचारसार नामक दूसरे राजा के पास गया और वहाँ उसने मंत्रीपद की याचना की। अनेक परीक्षा करने के बाद विचारसार राजा ने कहा कि, "आपकी बुद्धि की परीक्षा के बाद हमें विश्वास है कि आप मंत्रीपद के स्थान को सुशोभित कर सकोगे। परंतु विशेष विश्वास के लिए इतना ही पूछना है कि क्या आपने इससे पहले किसी राजा की सेवा की है? तो उसका नाम बताइए। " उसने जवाब दिया- "माफ कीजिएगा! मैं उसका नाम नहीं बताऊँगा, क्योंकि उसका नाम लेने से हाथ में लिया हुआ ग्रास भी छोड़ना पड़ता है।" राजा ने कहा - "आप यह क्या कह रहे हैं? क्या किस नाम लेने मात्र से ग्रास छोड़ना पड़ता है? आप गप तो नहीं हाँक रहे हैं। लो! अभी भोजन मंगवाता हूँ।" इस प्रकार कह कर राजा ने भोजन का थाल मंगवाया। हाथ में एक ग्रास (कवल) लेकर शीलसन्नाह से कहा कि अब उस राजा का नाम बोलिए। तब उसने कहा, “रूक्मिणी।” इतना उच्चारण करते ही एक संदेशवाहक ने आकर राजा से कहा - "चलिए, जल्दी चलिए। शत्रुओं ने राज्य पर आक्रमण कर दिया है। विकट परिस्थिति खड़ी हो गई है। अपनी सेना पीछेहट कर रही है। हार-जीत का सवाल है। आप शीघ्र पधारिये।" राजा ने तुरंत हाथ
में लिया हुआ कवल थाली में डाल दिया और युद्ध के लिए प्रयाण किया। शीलसन्नाह भी साथ में गया। युद्ध की सीमा पर राजा को रोक कर शीलसन्नाह ने युद्धभूमि में प्रवेश किया कि तुरंत ही ... उसे मारने के लिए शत्रु सैनिक सामने आने लगे। युद्धभूमि में प्रवेश करते ही उन सैनिकों को शीलसन्नाह के ब्रह्मचर्य के प्रति अनुराग के कारण शासन- देवी ने स्तंभित कर दिए और आकाशवाणी की कि, "ब्रह्मचर्य में आसक्त शीलसन्नाह को नमस्कार हो।" इस प्रकार घोषणा करके देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की।
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शीलसन्नाह यह सुनकर ऊहापोह करने लगा। इतने । में तो विचार करते-करते उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। ब्रह्मचर्य का प्रेम भी आत्मा को इतने उच्च स्थान पर पहुंचा। सकता है, तो जीवनभर ब्रह्मचर्य के साथ संयम पालूँ, तो कैसा अद्भुत उत्थान होगा? इत्यादि वैराग्यभाव में आकर उसने वहीं पर दीक्षा ले ली।
शीलसन्नाह मुनि विहार करते-करते एक बार क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आये। वहाँ रूक्मिणी वंदन करने आयी और उद्यान में देशना सुनी। देशना सुनने से उसके रोम-रोम वैराग्य से झनझनाने लगे। दिल रूपी बावड़ी में वैराग्यभाव का पानी उछलने लगा। उसने समग्र संसार का परित्याग कर चारित्र ग्रहण किया।
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बहुत वर्षों के बाद शीलसन्नाह आचार्य हुए, उसके पश्चात् एक बार शीलसन्नाह आचार्य के पास रुक्मिर्णी साध्वी विहार करके आयी और कहने लगी कि, "मुझे अनशन करना है।" जब आचार्यश्री ने कहा कि अनशन करने से पहले आलोचना करके आत्मा को हल्का बनाना चाहिए। जिससे सद्गति और मोक्ष की प्राप्ति हो। उसने आलोचना कहनी शुरू की। अनेक प्रकार की हिंसा, असत्य, चोरी आदि की आलोचना कह दी। परंतु
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उनके समक्ष इकरार करूँगी, तो उसने कल्पना की कि उनकी दृष्टि में हलकी-नीच कहीं सुनना न जाए...26 गिनी जाऊँगी। परंतु अब मेरे महत्त्व का रक्षण किस तरह करूं? मोहनीय कर्म के उदय से स्वयं का महत्त्व और अहत्त्व बनाए रखने के लिए उसने बात को मोड़ दिया और कहा
कि मैंने मंत्री के सत्त्व की परीक्षा के लिए दृष्टि डाली थी। इस प्रकार पाप को छिपाया राजदरबार में घटित आँख के
और शुद्ध आलोचना न ली। जिससे उसके एक लाख (१०००००) भव हुए। पाप की आलोचना नहीं कही। आचार्यश्री ने अनेक
अब विचार कीजिये कि अनेक प्रकार के पापों की आलोचना करने पर हम यदि प्रकार से वह पाप याद कराने
एक भी पाप की आलोचना छिपा देंगे, तो रूक्मिणी की तरह हमारी आलोचना शुद्ध नहीं | और आलोचना करवाने का
हो पायेगी। हाँ, पाप याद करने पर भी याद न आए, तो अन्त में यह कहना कि "मैंने प्रयत्न किया। परन्तु उसने
इससे भी अधिक पाप किये हैं। ओह गुरुवर्यश्री ! कुछ तो याद ही नहीं आते हैं, अतः दूसरे नए किए हए हिंसादि कई पाप अनजान में रह गया हो, तो उसका भी प्रायश्चित करने को तैयार हैं। उनका पापा को याद कर आलोचना मिच्छामि दुक्कडम् ।" ग्रहण की। अन्त में आचार्य छउमत्थो मूढमणो कित्तियमित्तं संभरइ जीवो। जं च न संभरामि मिच्छामि दुक्कडं तस्स॥१॥ भावंत ने साध्वीजी को कहा । हे तारक गुरुदेव! मैं अज्ञान और मूढमन वाला हूँ। मुझे कितना याद रह सकता कि राजदरबार में किसी है? जो याद नहीं हो, उसका मिच्छामि दुक्कडम् । व्यक्ति पर विकारमय दृष्टि
2 एक कृषकने जूं मारी... राल कर पाप किया हो, तो उसकी भी आलोचना करनी पाप की भयंकरता किसी कार्य पर आधारित नहीं होती, परन्तु जीव के आंतरिक चाहिए। रूक्मिणी साध्वी परिणामों पर आधारित होती है। तीव्र परिणाम वाले युवक ने बबूल के कांटे से जूं मार समझ गई कि आचार्यश्री तो डाली। उसके बाद उसने उसकी आलोचना नहीं ली, तो उस कृषक को सात बार शूली भरा पाप जानते हैं। अब यदि (फाँसी) पर चढना पडा। For Personals Private Use Only
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9/1/1/1
गुरु रज्ना साध्वीजी और दूसरी साध्वीयाँ सचित पानी पीती है. मात्र एक ही साध्वीजी अचित पानी पीती है।
3 toon med à सचित पानी पीय
रज्जा साध्वीजी को कोढ़ रोग हो गया था। एक साध्वीजी ने उससे पूछा कि यह रोग आपको कैसे हुआ? तब उसने कहा कि अचित्त (उबाला हुआ) पानी पीने से गर्मी के कारण यह रोग हुआ है। इस प्रकार तीव्र भाव से असत्य बोल दिया और स्वयं की वास्तविकता छिपायी, क्योंकि वस्तुतः अशाता-वेदनीय कर्म के उदय से तथा अति गरिष्ठ भोजन से पाचन क्रिया बिगड़ जाने के कारण अजीर्ण से यह रोग उत्पन्न हुआ था। गुरुदेव द्वारा इस प्रकार अचित्त पानी का व मिलने पर दूसरी साध्वियों ने भी अचित्त पानी पीना छोड़ दिया।
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कहीं सुनता न जाए...28
उनमें से एक साध्वीजी ने अपने मन को दृढ़ रखा। उन्होंने विचार किया कि अरिहंत भगवान का संयम मार्ग ऐसा है कि उसका पालन करने से रोग आता ही नहीं। रोग तो असमाधि का कारण है। रोग आए या बढ़े, तो उससे तो असमाधि होती है। | उस असमाधि को प्रोत्साहन मिले, ऐसा भगवान बतायेंगे ही | क्यों? उस साध्वीजी के खून की बूंद-बूंद में भगवान के शासन
की श्रद्धा उछल रही थी। वह दूसरी साध्वियों को अनेक रीति से समझाती थी, परन्तु कोढ़ रोग के भय के कारण दूसरी साध्वियाँ समझती नहीं थी। इसलिए उस छोटी साध्वीजी को खूब पश्चाताप हुआ। अरे प्रभो! मैंने अनादेय नामकर्म वगैरह कैसे अशुभ कर्म बांधे हैं? जिससे सच्ची बात समझाने पर भी ये साध्वियाँ समझती नहीं हैं। इस प्रकार पश्चाताप और आत्म-निंदा, काउस्सग्ग आदि करते करते उसे केवलज्ञान हो गया।
केवलज्ञानी की महिमा करने के लिए देवदेवियाँ आई। दूसरी साध्वियों को विचार आया कि अरर! हमने बड़ी भूल की है। उन्होंने केवलज्ञानी के पास आलोचना कर प्रायश्चित लेकर आत्मशुद्धि कर ली। परन्तु रज्जा साध्वी आलोचना लिए बिना । मर कर अनंत भव भ्रमण करने वाली बनी।
सचित पानी न पीनेवाली साध्वीजी को केवलज्ञान हुआ और देव-देवी महिमा करने के लिए आयें low famelibrary.crg
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'कपिल मरीचि का शिष्य बनकर नमस्कार कर रहा है।।
- त्रिदंडिक मरीचि कुलमद से नाच रहा है।
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कहीं मुनसान जाए...30
मरीचि, अहंकार और उत्सूत्र...
ऋषभदेव भगवान के पास भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि ने दीक्षा ग्रहण की। बाद में दुःख सहन करने में कमजोर बनने से उसने त्रिदंडिक वेश धारण किया। इस प्रकार वह चारित्र का त्याग करके देशविरति का पालन करने लगा। अल्प जल से स्नान करना, विलेपन करना, खड़ाऊँ पहनना, छत्र रखना वगैरह क्रिया करने लगा। एक बार भरत महाराजा ने समवसरण में भगवान ऋषभदेव से पूछा-हे प्रभु ! आज कोई ऐसा जीव है जो भविष्य में तीर्थंकर बनेगा? तब भगवान ने कहा कि "हे भरत ! तेरा पुत्र मरीचि इस भरत क्षेत्र में प्रथम वासुदेव, महाविदेह में चक्रवर्ती और भरत क्षेत्र में अंतिम तीर्थंकर बनेगा।"
यह सुनकर भरत चक्रवर्ती मरीचि को वंदन करने गये। वंदन करके भरत ने कहा कि, हे त्रिदंड धारण करने वाले साधु! मैंने तुम्हें वंदन नहीं किया है। परन्तु तुम भरत क्षेत्र में तीर्थंकर, महाविदेह में चक्रवर्ती और भरत क्षेत्र में प्रथम वासुदेव बनोगे। अतः मैंने तुम्हें भविष्य के तीर्थंकर समझकर वंदन किया है। वंदन करके भरत चक्रवर्ती तो चले गये। परंतु मरीचि के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया! मेरा कुल कितना उत्तम है? प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव मेरे कुल में हुए, प्रथम चक्रवर्ती भी मेरे कुल में मेरे पिताश्री भरत हुए और प्रथम वासुदेव भी मैं बनूंगा। इस प्रकार मन में कल का मद लाकर मरीचि नाचने लगा, इससे नीचगोत्र कर्म का बंध किया। उसकी आलोचना नहीं की। अतः इस नीच गोत्र कर्म का भार लगभग क को कोड़ाकोड़ी सागरोपम अर्थात् भगवान महावीर के अंतिम भव तक चला।
एक बार जब मरीचि के उपदेश से राजकुमार कपिल दीक्षा लेने को तैयार हुआ। तब मरीचि ने कहा कि "जाओ, मुनियों के पास जाकर दीक्षा लो।" उस समय कपिल ने पूछा कि, "क्या मुनियों के पास ही धर्म है और आपके पास नही है?" तब मरीचि ने विचार किया कि यह मेरे योग्य ही शिष्य मिला है और बीमारी आदि में शिष्य की जरूरत भी रहती है। अतः उसने असत्य वचन बोल दिया-अरे कपिल! धर्म वहां भी है
त्रिदंडीपने में धर्म नहीं था। इस असत्य उत्सूत्र वचन की आलोचना नहीं की, अतः तीर्थकर की आत्मा होते हुए भी एक कोडाकोड़ी सागरोपम जितना उनका संसार बढ़ गया। जैन दर्शन ने किसी के भी पाप का पक्षपात नहीं किया। सब की जीवन-किताब खुली रखी है। इसलिये हमें शुद्ध आलोचना कहकर पाप मुक्त होना चाहिये।
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SCHOOL
5) आर्द्रकुमार का दृष्टां
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अभयकुमार ने मित्रता के कारण आर्द्रकुमार को तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा भेजी थी। उस प्रतिमा के चितन द्वारा जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उसमें साधुजीवन में की हुई भूल का दृश्य दिखाई दिया।
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कहीं सुनसा न जाए...32
आर्द्रकुमार पूर्व भव में सोमादित्य नामक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम बंधुमती था। एक बार वैराग्य भाव में आकर उसने अपनी पत्नी के साथ आचार्यदेव श्री सुस्थितसूरीश्वरजी म.सा. के पास दीक्षा ग्रहण की। उसके पश्चात् स्वयं की (भूतपूर्व पत्नी) साध्वी को देखकर पूर्व की काम-कीड़ा का स्मरण हो गया। अहो ! वास्तव में काम वासना कितनी बलवान है? साधुपना स्वीकार करने के पश्चात् भी वह वासना भड़कने लगी। जैसे-जैसे दिन व्यतीत होने लगे, वैसे-वैसे स्नेह बढ़ने लगा।
बंधुमती साध्वीजी को यह पता चला कि मुनिराजश्री मेरे निमित्त से रोज पाप बांधते हैं। अतः अनशन कर जीवन का अंत कर लूं। जिससे मेरे लिमित्त से उनको पाप तो नहीं बंधेगा। इस प्रकार भाव दया का चिंतन करके गुरुदेव की अनुमति लेकर अनशन करके शुभ भाव में काल कर वह साध्वाजी देवलोक में गई। महान आत्मायें दूसरों को पाप से बचाने हेतु स्वयं भारी से भारी कष्टों को झेलती रहती हैं। जैसे कि बलदेव मुनि ने
पनिहारी के अविवेक को देखकर जीवनभर जंगल में ही रहने का निर्णय कर लिया। जब सोमादित्य मुनि को यह मालूम हुआ कि उसके कारण साध्वीजी ने अनशन कर देह त्याग किया है, तब सोमादित्य मुनि को खूब आघात पहुंचा। ओह! साध्वीजी की कितनी हिम्मत
और कैसी अद्भुत वीरता से उनका आत्मबलिदान! मैं कैसा नीच? जिसने भाव से व्रत का भंग कर दिया और जो एक साध्वी के काल धर्म (मृत्यु) का हेतु बना। मेरे जैसे पापी को जीने का क्या अधिकार है? अब पापों को नाश करने के लिए मैं भी अनशन स्वीकार कर लूं। इस । प्रकार विचार कर अनशन करके मुनिश्री मरकर देवलोक में गये। परन्तु माहनाय कम
रकर अनशन करके मुनिश्री मरकर देवलोक में गये। परन्तु मोहनीय कर्म के उदय से आलोचना-प्रायश्चित लिये बिना मर गए। अतः देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर अनार्य देश में जन्म लिया, जहां धर्म का अक्षर भी सुनने को न मिले।
श्रेणिक राजा और आर्द्रकुमार के पिताश्री दोनों अच्छे मित्र थे। इस कारण वे एक-दूसरे को कीमती उपहार भेजते थे। यह देखकर अभयकुमार के साथ मित्रता बांधने के लिये आर्द्रकुमार ने उसे भेंट भेजी। उसे भव्य भेंट समझकर अभयकुमार ने भी मित्रता बांधने के लिये र दीश्वर भगवान की प्रतिमा मंजूषा में उसे भिजवाई और संदेश में कहलाया कि इस मंजुषा को एकांत में खोलना । रत्नमयी प्रतिमा के दर्शन करने
पूर्वभव में विराधित साधु जीवन का स्मरण होने से उसे वैराग्य आया।
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33...कहीं सुना न जाए.
आर्द्रकुमार ने दीक्षा लेने का संकल्प किया। माता-पिता के पास आर्यदेश में जाने की आज्ञा मांगी। मोहवश माता-पिता ने सख्ती से इन्कार कर दिया और वह भाग न जाये, इसलिये राजा ने पाँचसौ सिपाहियों को उस पर नज़र रखने के लिये आज्ञा की। आर्द्रकुमार को यह परिस्थिति कैद-सी लगने लगी। उसने धीरे-धीरे वर्तन-वाणी के माधुर्य के द्वारा ५०० सिपाहियों का विश्वास जीत लिया। एक दिन मौका देखकर वह घोडे पर सवार होकर अनार्य देश से रवाना हो गया। उसके बाद समुद्र मार्ग से जहाज में बैठकर आर्यदेश में आकर उसने दीक्षा ली और उसी समय देववाणी हुई कि, अरे ! आर्द्रकुमार अभी तेरे भोगावली कर्म बाकी है, परंतु भावोल्लास में आकर उसने देववाणी को सुनी अनसुनी कर दी। __संयम लेकर मुनि एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करने लगे। एक बार मुनि आर्द्र वसंतपुर नगर में पधारे और उद्यान में काउस्सग्ग ध्यान में रहे। वहाँ बालिकायें खेलने के लिये आयी। खेल-खेल में बालिकायें उद्यान में स्तंभ को पकड़ कर कहती कि ये मेरा पति है। श्रीमती नाम की बालिका ने (जो पूर्वभव की पत्नी देवलोक से च्युत होकर धनश्री शेठ के यहाँ पुत्री रुप में जन्मी थी) अनजाने स्तंभ की तरह स्थिर रहे हुए मुनि को छूकर कहा कि यह मेरा पति है। फिर पता चला कि यह तो मुनि है। परंतु पूर्वभव के संस्कारों के कारण उसने घोषणा की, कि मैं विवाह करूंगी, तो इस मनि के साथ ही करूंगी, अन्यथा कुंवारी रहूंगी। देवों ने १२.५ लाख.. Use only
दीक्षा के लिए आर्द्रकुमार अनार्य देश में भागकर स्थलमार्ग और जलमार्ग के द्वारा आर्य देश में आए।
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कहीं मुनसा न जाए...34
सोनामोहरों की वृष्टि की। पुत्री श्रीमती और धन लेकर उसके पिता धनश्री अपने गाँव गये। मुनि ने अन्यत्र विहार किया।
अब वह कन्या क्रमशः बड़ी हुई, तब उसके पिता योग्य वर की खोज करने लगे। परंतु उसने अपना दृढ़ निश्चय बताया कि मुनि को छोड़कर वह किसी के साथ शादी नहीं करेगी, तब गाँव में आने वाले मुनियों को गोचरी वहोराने के लिये उसे पिता ने कहा। १२ वर्ष बाद वही मुनि वहाँ पधारे। पादचिह्न से उसने मुनि को पहचान लिया। श्रीमती ने उनके पाँव पकड़ लिये। श्रेष्ठी और राजा ने उनके ऊपर बहुत दबाव डाला। जिससे मुनि ने भी देववाणी को याद कर उसके साथ विवाह के लिये स्वीकृति प्रदान की। विवाह हो गया। परंतु उनका दिल उदास रहा करता था। उन्हें संयम की तीव्र तमन्ना थी। उनको पुत्र हुआ। १२ वर्ष के बाद एक दिन प्रबल पुरुषार्थ कर दृढ़ता से दीक्षा लेने का संकल्प श्रीमती को कहा। वह उदास होकर रुई कातने लगी। लड़का खेल कर घर आया और पूछा कि, "माँ तू रुई क्यों कात रही है?" माता श्रीमती ने कहा, तेरे पिताश्री दीक्षा लेनेवाले है। बालक ने सूत के धागों से पिताश्री के दोनों पाँवो को बारह बार लपेट दिया और तोतली भाषा में कहा कि, अब दीक्षा लेने कैसे जाओगे? मैंने तो आपको बांध दिया है। आर्द्रमुनि का हृदय बालवचन से पिघल गया। उसने आँटी गिनी, तो बारह थी। इसलिये दूसरे १२ वर्ष गृहवास में रहें।
इस प्रकार २४ वर्ष गृहवास सेवन करने के पश्चात् पुत्र उमर लायक हो जाने से पुनः चारित्र ग्रहण कर आर्द्र मुनि बने। दूसरी तरफ ५०० सिपाही जो आर्द्रकुमार को ढूंढने निकले थे। वे राजा के डर से वापस अनार्य देश में नहीं गये। परंतु वहीं रहकर चोरी करने लगे। एक दिन आर्द्रमुनि को वे विहार में मिले । उनको उपदेश देकर दीक्षा दी। उसके बाद ५०० मुनि के साथ मगधदेश में आर्द्रमुनि पधारे और वहाँ उत्कृष्ट साधना कर आर्द्रमुनि मोक्ष में गये। यद्यपि आर्द्रकुमार ने पूर्वभव में कायिक पाप नहीं किया था। सिर्फ मानसिक पाप ही किया था, तथापि आलोचना नहीं लेने से पापों के गुणाकार हो गये, जिससे अनार्य देश में जन्म और दीक्षा लेने के बाद २४ वर्ष तक गृहवास में रहना पडा। यूं तो इस भव में आत्मा की शुद्धि हो जाने से आर्द्रकुमार मोक्ष में गये, परंतु बीच में कितनी तकलीफें पड़ी। अतः हमें शुद्ध भाव से आलोचना करनी चाहिए।
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35...कहीं सुना न जाए
करनी पड़ेगी। तब दोनों ने कहा कि हमें बजाना 6 मेतारज मुनि, नीचगोत्र और दुर्लमिबोधिता... नहीं आता और मुनि को कहा कि आपको मल्लयुद्ध
करना पड़ेगा। दोनों मुनि के साथ मल्लयुद्ध करने लगे। उज्जयिनी नगरी में मुनिचन्द्र नाम का राजा राज्य मल्लयद्ध करते-करते दोनों कुमारों के संधिस्थानों से करता था। उसका पुत्र और पुरोहित पुत्र सौवस्तिक दोनों हड्डियाँ उतार कर सागरचन्द्र मुनि वहाँ से चले गये। अत्यंत उच्छृखल हो गये। कोई भी साधु महाराज वहां आते, स्वस्थान पर जाकर काउस्सग्ग में खड़े रह गये। इधर दोनों तब वे उन्हें राजमहल में ले जाकर परेशान करते। हंटर मार कुमार वेदना से चीखने लगे। राजा ने सिपाहियों के द्वारा साधु कर नृत्य करवाते। श्रीसंघ ने राजा के पास जाकर शिकायत भगवंत की खोज करवाई। गांव के बाहर मुनि ध्यान में खड़े हैं, की, किंतु राजा ने उस पर ध्यान नहीं दिया। तब मुनियों ने ऐसा सिपाहियों ने कहा। तब राजा वहाँ गया। जाकर देखा, तो यह बात सागरचन्द्र मुनि से कही। यह सुनकर सागरचन्द्र खुद के सांसारिक भाई खड़े थे। राजा ने कहा कि "अरे गुरुदेव! मुनि को विचार आया कि यदि उज्जयिनी नगरी में मुनिराजों यह क्या किया?" मुनि ने राजा से कहा-"अरे राजन्! क्या अपने का विहार बंद हो गया, तो लोग धर्म से विमुख होकर दुर्गति कुल में मुनि को मारने का अन्याय हो सकता है? इतने दिनों तक में पड़ेंगे। अतः इसका कोई उपाय करना चाहिए। इस प्रकार तुमने संघ की बात स्वीकार नहीं की और अब पुत्र को ठीक करने के विचार करके वे उज्जयिनी आये । गोचरी के लिये राजदरबार लिए आज यहां विनती करने आए हो। राजन्! तूने ऐसे महामुनियों में गये। राजपुत्र और पुरोहितपुत्र ने नृत्य करने के लिए खूब का अपमान व विडंबना चला ली, तुमने यह बड़ी भारी भूल की है।" जबरदस्ती की और कहा कि बहुतों को चाबुक मारकर हम राजा ने कहा कि "गुरुदेव! ये कुमार बालक हैं। अतः इनका नृत्य करवा चुके हैं। इस प्रकार दोनों युवको ने धर्म की अपराध क्षमा कीजिए! पुनः ऐसा न होगा।" मुनि ने कहा किउपेक्षा की है। ऐसा जानकर उनको सुधारने के लिये "चारित्रधारी आत्माओं को सता कर इन्होंने भयंकर कर्म बांधे हैं। सागरचंद्र मुनि ने उनको कहा कि नाचने के लिये बजाने वाले अतः यदि ये दोनों चारित्र ग्रहण करें, तो दोनों की हड्डियाँ चाहिये और बजाने वाले भूल करेंगे, तो मेरा दिमाग चढ़ यथास्थान चढा दंगा, अन्यथा वे दोनों अपने किए हए पापों का जायेगा। उस समय जो सज़ा करूंगा, वह उन्हें स्वीकार... फल भुगतते रहे।"
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कहीं मुरक्षा न जाए... 36
राजा मुनि को नमस्कार करके पुत्र के पास आया और कहने लगा कि, हे कुमारों ! वे मुनि तुम्हारे सांसारिक चाचाजी हैं। तुमने साधुओं को खूब परेशान किया है । अतः तुम्हें दंड़ दिया है। यदि दीक्षा लोगे, तो हड्डियाँ चढ़ा देंगे, अन्यथा तुम अपने आप ही तड़प-तड़पकर मर जाओगे, लेकिन मुनि भगवंत हड्डियाँ नहीं चढायेंगे। यह सुनकर कुमारों ने राजा की बात बिना इच्छा से मंजूर करते हुए कहा कि, " हम दीक्षा ले लेंगे ।" मुनि ने हड्डियाँ यथास्थान पर चढ़ा दी और दोनों ने चारित्र ग्रहण किया। चारित्र की शुद्ध आराधना करने लगे। भूतपूर्व पुरोहितपुत्र मुनि ने ब्राह्मण कुल का होने के कारण मल और मलिन वस्त्रों से घृणा की। इस प्रकार की जुगुप्सा करने से मिथ्यात्व गुणस्थानक पर आकर नीच गोत्र को बांध दिया। उसी तरह एक बार उसी मुनि को विचार आया कि "गुरुमहाराज ने जबरदस्ती से दीक्षा दी है, वह ठीक नहीं किया।" इस प्रकार उपकारी गुरु का दोष देखा। इस विचार से उसका दुर्लभबोधि कर्म का बंध हो गया। उसके बाद उस मुनि ने दोनों दोषों
की आलोचना नहीं ली। पाप वैसा का वैसा ही आत्मा में रह गया। दोनों चारित्र पाल कर देवलोक में गए। पुरोहित पुत्र ने मलिन वस्त्र की घृणा करने से नीच गोत्र बांधा था। अतः देवा पूर्ण होने पर एक चंडाल पत्नी की कुक्षि में उसका च्यवन हुआ।
इधर एक सेठ के घर पर सेठानी के मरे हुए बालक जन्म पाते थे । अतः उसका मन खिन्न रहता था। चंडालिनी ने उसकी खिन्नता का कारण पूछा, तब उसने कहा कि 'मेरे मरे हुए संतान जन्म पाते हैं। आज तक एक भी पुत्रो वात्सल्य नहीं दे सकी हूं।" चंडालिनी ने कहा कि "मेरे पुत्र जिन्द जन्म लेते हैं।" अतः सेठानी ने कहा कि मैं तुझे सोनामोहरें दूंगी। पुत्र जन्म के अवसर पर हम परस्पर संतान परिवर्तन कर लेंगे। इस प्रकार निर्णय कर दोनों ने जन्म के समय पुत्र अदल-बदल कर दिया । और उसका नाम मेतारज रखा। एक बार की घृणा ने मेतार्य के जी को चंडाल के घर में जन्म दिया।
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१) सागरचंद्र मुनि राजपुत्र और पुरोहितपुत्र के संधिस्थानो से हड्डियाँ उतार कर चले गए।
२) राजा गाँव के बाहर मुनि के पास गया bonal &srivate Use Only
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37...कहीं सुनना न जाए
MATH
बाज पक्षी को जौ चुगते हुए मुनि ने देख लिया यदि पूर्वभव में दोनों दोषों की आलोचना ले ली होती, तो जीव शुद्ध हो जाता और चंडाल
मेतारज मुनि उपसर्ग को सहन करते हुए
केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गये। के घर में उत्पन्न होने की परिस्थिति खड़ी नहीं होती। अब आनंद से मेतार्य सेठ के घर बड़ा होने पत्नियों के पास. उसने १२ वर्ष की मुद्दत लगा। उसके जीव ने देवलोक में मित्रदेव को मंगवायी। फिर वह कर्म हल्का हो जाने से प्रतिज्ञा करवायी थी कि तुं मुझे डंडे मारकर भी प्रतिबोध पाकर चारित्र लेकर मेतारज मुनि दीक्षा दिलवाना। धीरे-धीरे मेतारज युवा हआ। मासक्षमण के पारणे के दिन सोनी के घर उसकी सगाई ८ श्रेष्ठिकन्याओं के साथ हई। जब गोचरी गये। शादी की तैयारियां चल रही थी, तब देव ने धर्मलाभ सुनकर सोनी अपना सभी अवधिज्ञान से सब जाना और वह मेतारज मित्र काम छोड़कर खड़ा हो गया। वह श्रेणिक को समझाने आया। परंतु दुर्लभबोधि हो जाने से राजा के लिये सुवर्ण के १०८ जौ बना रहा
सोनी को शंका हुई कि मुनि ही लेकर गये वह नहीं समझा। फिर शादी के वरघोड़े में देव ने था। मुनि को गोचरी वहोराने के लिये
होंगे। इसलिये वह मुनि के पास आरा। चंडाल का रुप धारण करके विवाह में विघ्न रसोईघर में ले गया। बाद में बाज पक्षी ने
बारबार पूछने पर भी जीवदया के विचार से डाला। उसके बाद मेतारज की आजिज़ी से ८ वहाँ आकर सारे जौ चुग लिये। मुनि ने जो मनि ने उसका जवाब न दिया। मुनि मौन रहे। श्रेष्ठिकन्या और ९वीं राजकन्या श्रेणिक राजा की को चुगते हुए पक्षी को देख लिया। पक्षी अगर सत्य कह देते, तो बाज पक्षी को चीरकर पुत्री के साथ विवाह करवाया। परंतु दुर्लभबोधि उड़कर ऊँचाई पर बैठ गया। मुनि गोचरी सोनी जौ निकाल लेता। अतः सोनी ने क्रोध में कर्म के उदय से वह प्रतिबोधित न हुआ। १२ वर्ष लेकर बाहर निकले।
आकर आर्द्र चमड़े को सिर पर बाँध कर मुनि के बाद फिर से देव उसे प्रतिबोध करने आया, तो सोनी ने खुद के काम पर आकर को धूप में बैठा दिया। धूप के कारण चमड़ा उस समय भी उसी कर्म के उदय के कारण अपनी देखा, तो सुवर्ण के जौ दिखाई नहीं दिये। सूखने से सिर की नसें खिंचने लगी। मुनि की
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कहीं मुनसान जाए...38
7 चित्रक और संभूति चंडाल बने...
आँखे बाहर निकल गयी। खून निकलने लगा। हड्डियाँ टूटने लगी। मुनि ने क्रोध नहीं किया, समता रखकर केवलज्ञान प्राप्त किया। मुनि मोक्ष में गये। उस समय लकड़े का गट्ठर गिरने से आवाज होने पर घबरा कर बाज पक्षी ने विष्टा की। उसमें सोनी को जौ देखे। यह देखकर सोनी घबरा गया कि यह मुनि तो निर्दोष है और राजा के भूतपूर्व दामाद है। इस निर्दोष मुनि का मैंने खून कर दिया। अब राजा मुझे कर सज़ा करेंगे, इसलिये उसने भगवान महावार स्वामी के पास जाकर दीक्षा ली और वह आलोचना लेकर सद्गति में गया। __अब यह विचारना चाहिये कि यदि पूर्वभव में मेतारज ने गुरु के दोष देखने की आलोचना ले ली होती, तो दुर्लभबोधि न बनते औ ऐसी विंडबनाएँ न होती। ऐसा जानकर हमें गुरु के दोष देखने की आलोचना तुरंत ले लेनी चाहिये। मुनि का हत्यारा सोनी मुनि बन आलोचना लेकर सद्गति में गया। अतः हम 3.लोचना लेना न भूलें।
जंगल से एक मुनि गुज़र रहे थे। रास्ता भूल जाने के कारण दोपहर के समय बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। गाय चराने के लिए आये हुये चार ग्वालों ने इस दृश्य को दूर से देखा। वे नज़दीक आये। मुनि बेहोश थे। होठ सूख गए थे। चेहरा कुम्हला गया था। तृषा का अनुमान कर उन्होंने गाय को दुहकर मुँह में दूध डाला। इससे मुनि होश में आये। कुछ समय के बाद मुनिश्री ने चारों को समझाने का प्रयास करते हुए कहा कि संसाररूपी जंगल में उनकी आत्मा भटक रही हैं। उस दुःख से पार उतरने के लिये एकमात्र साधन है चारित्र धर्म। इस प्रकार का बोध दिया। चारों ने प्रतिबोध पाकर चारित्र ग्रहण किया। उनमें से दो आत्माएं तो उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चली गई।
शेष दो जनों को एक विचार आया कि स्नान किये बिना शुद्धि किस प्रकार से हो सकती है? क्या इतने मैले कपड़े रखने? इस प्रकार घृणा करने से नीच गोत्र कर्म बांध दिया। उसकी आलोचना लिये बिना ही काल कर गये। बाद में क्रम से पूर्व भव में बांधे हुए नीच गोत्र के उदय से चंडालकुल में चित्रक व संभूति के रूप में उत्पन्न हुए।
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39...कहीं भुनक्षा न जाए
युवा-अवस्था में सुरीला और मधुर कंठ होने से लोग उनके संगीत में मशगूल बन जाते थे। गीत-संगीत के रसिक महिलाओं के झुंड के झुंड उन दोनों का संगीत सुनने के लिये आते थे। अनर्थ का कारण जानकर राजा ने उनको देश-निकाल किया। दोनों पहाड़ पर से कूदकर आत्महत्या करने का विचार कर रहे थे। इतने में तो मुनि ने उनको मानव जीवन की महानता समझाई, जिससे दोनों भाईयों ने दीक्षा ली। गाँव-गाँव विहार करने लगे।
दो मुनियों में से संभूति मुनि को बंदन करते करते चक्रवर्ती सनतकुमार की पट्टरानी के सुकोमल केश छू जाने पर संभूति मुनि ने नियाणा
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कहीं सुना न जाए...40
एक बार दोनों मुनि हस्तिनापुर आये। वहाँ मासक्षमण के पारणे में दोनों मुनि गोचरी गये थे। तब पूर्वअवस्था के वैर का स्मरण होने से चक्रवर्ती सनतकुमार के मंत्री नमुचि ने खुद के गौरव की रक्षा के लिये सिपाहियों के द्वारा दोनों मुनियों को गाँव के बाहर निकलवा दिये। संभूति मुनि क्रोध में आकर उसके ऊपर तेजोलेश्या छोडने को तैयार हुए। मुख में से धुआँ निकलने लगा। लोग घबरा गये। सनतकुमार चक्रवर्ती ने मुनि के पास आकर माफी मांगी और मंत्री के पास भी माफी मंगवायी। चित्रक मुनि के बहुत समझाने पर संभूति मुनि ने सब को क्षमा तो किया, लेकिन दोनों मुनि ने विचार किया कि इस देह के कारण कषायादि करने पड़ते हैं, इसलिये हम दोनों अनशन कर लें। दोनों मुनि जंगल में अनशन करने लगे। अब लोग दोनों मुनि की खूब प्रशंसा करने लगे। यह सुनकर सनत्कुमार की पत्नी स्त्रीरत्न सुनंदा १ लाख ९२ हजार परिवार के साथ दोनों मुनि को वंदन करने आयी। वंदन करते-करते सुनंदा के केश संभूति मुनि के पाँव को छू गये। उस केश के स्पर्श से संभूति मुनि को अत्यंत राग उत्पन्न हुआ और नियाणा किया कि संयम का फल स्त्रीरत्न, परभव में मुझे मिले। चित्रक मुनिने उनको बहुत समझाया। लेकिन उन्होंने आलोचना न ली, बल्कि कहा कि, मैंने दृढ़ मन से नियाणा किया है, वह फिरने वाला नहीं । इसलिये आप अब मुझे कुछ मत कहना। यह सुनकर चित्रक मुनि शांत रहे। फिर दोनों मुनि काल करके देवलोक में गये। उसके बाद चित्रक का जीव पुरिमताल नगर में श्रेष्ठिपुत्र बना और संभूति मुनि का जीव कांपिल्यपुर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना और मरकर सातवीं नरक में गया।
यदि उसने आलोचना ले ली होती, तो सातवीं नरक के योग्य कर्म बंध न होता। अतः हमें अवश्य आलोचना लेनी चाहिये।
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41...कहीं मुना न जाए
की पुत्री के रूप में उत्पन्न हआ। इलाचीकुमार 8 पूर्वमत में इलाचीकुमारने
को पूर्वभव में पत्नी साध्वी के ऊपर स्नेह था। आलोचना न ली...
व उसकी आलोचना नहीं ली थी। अतः
इलाचीपुत्र उत्तमकुल में उत्पन्न होने पर भी वसंतपुर नगर में अग्निशर्मा नामक
लोक लज्जा छोड़कर नटनी के नाच को ब्राह्मण युवक रहता था। उसने अपनी पत्नी
देखकर उसके साथ गया। के साथ चारित्र लिया। परन्तु परस्पर मोह
इलाचीकुमार ने एक दिन नटराज को नहीं टूटा।
कहा कि, "अब मैं नट १) अग्निशर्मा मुनि आलोचना लिए विना मरकर देवलोक में गए। उसकी भूतपूर्व २) साध्वीजी ब्राहमणकुल के अभिमान व पांच आदि धोने की आलोचना लिए विना मरकर देवलोक में गए । हो गया है, तो मेरे साथ पत्नी साध्वी ने एकबार
नटनी का विवाह कर ब्राह्मणकुल का अभिमान किया। उसकी
दीजिये।" नटराज ने कहा कि, "तुम राजा आलोचना लिए बिना ही वह मर कर देवलोक
के पास से इनाम प्राप्त करो, तो तुम्हारे साथ गई। मुनिश्री भी काल करके देव-लोक गये।
उसका विवाह करूंगा।" उसके बाद एक दिन वहां से मृत्यु पाकर अग्निशर्मा का जीव
बेनातट के बंदरगाह पर कला देखने के लिये इलावर्धन नगर में धन्यदत्त सेठ के पुत्र
राजा को आमंत्रण दिया गया। नटनी ढोल इलाचीकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। पूर्व भव
बजाने लगी। इलाचीपुत्र ने रस्सी पर नाचना की उसकी पत्नी का जीव कुलमद की
शुरु किया। लोगों ने नट की करामात देखकर
इलाचीपुत्र नटनी को रस्सी पर नाचते हुए देखकर आलोचना न लेने के कारण नीच कुल में नट
तालियाँ बजाई। हर्ष से किलकारियाँ कारने उस पर मोहित हो गया।
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कहीं मुनसान जाए....42
लगे परतु राजा की दृष्टि नटनी -पर पड़ी और वह नटनी पर मोहिल हो गया। जिससे राजा ने उसे इनाम न दिया। फिर से दूसकी बार, तीसरी बार खेल बताने के लिये कहा। चौथी बार रस्सी पर चढ़ा, परंतु राजा नमी पर मोहित हो जाने से इलाचीकुमार की मौत चाहता था। इस कारण इनाम न दिया। रस्सी पर चढ़े हुए उसने एक महल में देखा, तो एक पधिनी स्त्री मुनि को मिठाई वहीरने के लिये बिनति कर रही थी और जितेन्द्रिय मुनि
आँख की पलक भी ऊंची किये बिना ना-ना कह रहे थे। यह देखकर इलाचीकुमार को
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अपनी कामवासना के ऊपर फटकार और मुनि के ऊपर अहोभाव जगा। अहोभाव बढ़ते-बढ़ते शुक्लध्यान पर चढ़े हुए इलाचीकुमार ने रस्सी पर ही केवलज्ञान प्राप्त किया। देवों ने साधुवेष अर्पण कर वंदन किया। इलाचीपुत्र केवली ने देशना दी। उसमें उन्होंने कहा कि खुद मैंने पूर्व के तीसरे भव में आलोचना न ली और नटनी के जीव ने भी आलोचना न ली, जिससे यह सारी विडंबनाए हुई। यह सुनकर नटनी को भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ, साथ ही तीव्र पश्चाताप हआ और उसने भी केवलज्ञान प्राप्त किया।
रस्सी पर नाचते हुए इलाचीकुमारने महल में मुनि को देखा और अहोभाव बढ़ने से इलाचीकुमार को केवलज्ञान हो गया।
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43... कहीं सुनसान जाए
9 कमलश्री कुत्ती, बंदरी बनी...
शिवभूति और वसुभूति दो भाई थे। शिवभूति की स्त्री कमलश्री अपने देवर वसुभूति के प्रति राग वाली बनी और उसने मोहवश अनुचित याचना की। भाभी के ऐसे अनुचित वचनों को सुनकर वसुभूति विचार करने लगा कि"ओह ! धिक्कार हो कामवासना को, जो ऐसी अनुचित याचना करवाती है। मुझे तो किसी भी हालत में कामाधीन नहीं होना है।" इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न होने पर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। यह बात कमलश्री तक पहुँची । राग के उदय से आर्तध्यान में रहती हुई वह मानसिक और वाचिक पाप की आलोचना लिए बिना ही शुनी ( कुत्ती ) के रूप में उत्पन्न हुई।
१) कमलश्री को अपने देवर वसुभूति के ऊपर राग हो गया। उसकी आलोचना न लेने से क्रमश: २) कुत्ती ३) बंदरी ४) हंसिनी ५) अंत में व्यंतर देवी बनी ।
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कहीं सुनसा न जाए...44
एक बार वसुभूति मुनि गोचरी के लिये बचकर अन्यत्र चले गए। बंदरी आर्तध्यान में परंतु मुनिश्री के तप के प्रभाव से वह मार न जा रहे थे। कुत्ती की दृष्टि मुनि पर पड़ी। मरकर तालाब में हंसिनी बनी।
सकी। जिससे दूसरे अनेक अनुकूल उपसर्ग पूर्वभव के राग के कारण वह मुनि की छाया
संयोगवशात् मुनि उस तालाब के
करने लगी, परन्तु मुनि अपने व्रत में दृढ़ रहे के समान उनके साथ-साथ चलने लगी। किनारे शीत परिषह सहन करने के लिए
और उन्होंने शुभध्यान के प्रताप से हमेशा पनि के साथ कुत्ती को देखकर जहां। काउस्सग्ग कर रहे थे। उन्हें देखकर हंसिनी
केवलज्ञान प्राप्त किया। सब लोगों के समक्ष भी मुनि जाते, लोग उनको शुनीपति (कुत्ती अव्यक्त रीति से मधर शब्द व विरह वेदना केवली ने देवी के पूर्वभवों के संबंध का वर्णन पति) मनि कहने लगे। लोगों के ऐसे वचन
67 ला लागा कस वचन की आवाज़ करने लगी और पास में आकर किया। जिससे देवी ने सम्यक्त्व प्राप्त सुनकर पुनि लज्जित होने लगे। एक दिन
किया। मुनिश्री पृथ्वी पीठ को पावन करते मुनि किसी भी तरीके से कुत्ती की दृष्टि से स्थिर रहे। हंसिनी की दृष्टि से बचकर मुनि हुये क्रम से मोक्ष सिधाये। बचकर अन्यत्र चले गए। मुनि को न देखने अन्यत्र विहार कर गए। मुनिश्री को न देखने अब इस तरह सोचना चाहिए कि एक पर ती आर्तध्यान से मरकर जंगल में पर हंसिनी व्यंतर निकाय में देवी के रूप में
ही घर में केवल खराब दृष्टि रखने से और बन्दरा बनी। उत्पन्न हुई।
उसकी आलोचना न लेने से कितना भयंकर पूर्ववत् बन्दरी मुनि को देखकर मुनि म विभंग ज्ञान से स्वयं के साथ मुनिश्री परिणाम हुआ कि तीन-तीन भव तिर्यंचगति के साथ-साथ घूमने लगी। लोग मुनि को का संबंध जान कर वह देवी विचार करने में जन्म लेना पड़ा। इसलिये अगर हम अपने बन्रीपति कहने लगे। जब लोग ऐसा कहते, लगी कि मेरे देवर ने मेरा कहना नहीं माना। जीवन में हुए पापों की शुद्धि नहीं करेंगे, तो तः बन्दरी खुश होती और विषय की चेष्टा अतः मेरी यह दुर्दशा हुई है। अब वह क्रोध से अपनी क्या दशा होगी? अतः आलोचना लेने करती। एक बार मुनि बंदरी की नज़र से आगबबूली होकर मुनि को मारने आयी। में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
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१) राजकुमार रुपसेन और राजकुमारी सुनंदा ने एक दूसरे की विकारमय दृष्टि से देखा।
राजकुमार रुपसेन मकान की दीवार गिरने से उसीक नीचे दबकर मर :
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कहीं मुनसान जाए...46
10 रुपसेन के ७ मत बिगड़े...
पृथ्वीभूषण नगर में कनकध्वज राजा की पुत्री का नाम सुनंदा था। राजकुमारी ने यौवन के आँगन में पदार्पण किया। उसका रूप लावण्य और सौंदर्य गज़ब था। एक दिन राजभवन के सामने पानवाले की दुकान पर बंगदेश के राजा वासुदत्त का चौथा खूबसूरत पुत्र रूपसेन पान खाने आया। वह इधर-उधर देख रहा था।
इतने में सुनंदा की दृष्टि रूपसेन पर पड़ी। दृष्टि पड़ते ही उसके रोम-रोम में काम की ज्वाला धधक उठी। दासी के द्वारा सुनंदा ने रूपसेन को अपने अभिमुख किया। आँखों-आँखों से बात हो गई। सुनंदा ने दासी के द्वारा रूपसेन को कहलाया कि, "आप कौमुदी महोत्सव के प्रसंग पर राज-महल के पीछे के भाग में पधारना।"
कौमुदी महोत्सव के दिन माया-कपट करके सुनंदा ने सिर-दर्द का बहाना बनाया और राजदरबार में स्वयं की दासी के साथ रह गई। राजा-रानी परिवार सहित गाँव के बाहर महोत्सव देखने चले गए। कैसी भयंकर है वासना? जिसके कारण सुनंदा असत्य बोली व उसने माया की। इसी प्रकार रूपसेन भी माया और असत्य से बहाना बना कर घर में ही रह गया। शेष परिवार महोत्सव में चला गया।
रूपसेन स्वगृह पर ताला लगाकर सुनंदा से मिलने के मनोरथ से घर से निकल पड़ा। आँख के दोष से प्रेरणा पाकर कायिक दोष सेवन की इच्छा से वह मन में सुनंदा के रूप, लावण्य और उसके संगम के विचारों को लेकर हर्षित होता हआ रास्ते से गुजर रहा था। इतने में एक जीर्ण मकान की दीवार उस पर गिर पड़ी। वह उसी के नीचे दब कर मर गया। कैसी भयंकर विचार श्रेणी में मरा? मिला कुछ भी नहीं। परन्तु वह जीव राग दशा को बढ़ाकर पाप बांध कर मृत्यु को प्राप्त हुआ।
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47...कहीं सुना न जाए
इधर रात्रि के समय नगर में शून्यता जान कर महाबल नामक जुआरी, चोरी करने के लिए निकल पड़ा। घूमते-घूमते उसने राजभवन के पृष्ठ भाग में लटकती हुई रस्सी की बनी सीढ़ी देखी। राज भवन में प्रवेश का यह सुन्दर साधन है। यह मान कर वह चढ़ने लगा। सुनंदा की दासी रस्सी की आवाज़ से विचार करने लगी कि जिस रूपसेन को संकेत किया था, वही आया होगा। इतने में रानी ने स्वयं की दासियों को राजकुमारी का स्वास्थ्य पूछने के लिए भेजा। वे भवन की तरफ आ रही थी। सुनंदा की दासी ने दीपक बुझा दिया। अन्तेवासी दासी ने स्वास्थ्य पच्छा के लिए आयी हई दासियों से कह दिया कि राजकुमारी को अब नींद आ गई है, इस प्रकार झूठ बोलकर रानी की दासियों को वापस भेज़
दिया। रस्सी की सीढ़ी से ऊपर चढ़कर महाबल राजमहल में प्रवेश करने लगा, तब दासी ने अंधकार में ही उसका सत्कार किया और स्वागत करते हुए मंद स्वर से कहा कि पधारिये रूपसेन ! आवाज़ मत कीजिये। पधारिये ! पधारिये ! जआरी विचार करने लगा कि यहां न बोलने में नौ गुण हैं। अतः हूं-हूं करता हुआ सुनंदा के
पास पहुंच गया और अंधेरे में ही कुकर्म करके चला गया। विधि की विचित्रता से १) सुनंदा ने गर्भपात करवाया।
दीवार से दब कर मरा हुआ रूपसेन का जीव सुनंदा की कुक्षि में ही उत्पन्न हुआ।
कुछ समय बीतने पर सुनंदा के शरीर पर गर्भवती के लक्षण दासियों को नज़र |
आने लगे। दासियों ने सुनंदा को क्षार आदि गर्भ गलाने की दवाइयाँ पिलाई, २) सुनंदा के पति राजाने सर्प को मार दिया।
फलस्वरूप रूपसेन का जीव भयंकर वेदना प्राप्त कर कुक्षि से च्युत हो गया। वहां
से मरकर वह सर्पिणी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ और काल क्रम से सर्प बना। इधर सुनंदा का विवाह क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा के साथ हो गया। एक दिन राजा-रानी बगीचे में घूमने-फिरने के लिए गए। वहाँ अचानक (रूपसेन का जीव) सर्प आ पहुंचा। सुनंदा को देखते ही स्नेहवश सर्प की दृष्टि उस पर स्थिर हो गई। सर्प को इस प्रकार स्थिर दृष्टि वाला देखकर सुनंदा भयभीत हो गई। उसके पति ने सर्प को शस्त्र से मार डाला। सर्प आर्तध्यान में मर गया।
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कहीं मुनसान जाए...48
राजाने कौए को मारा।
राजाने हंस को मारा।
राजाने हरिण का शिकार किया।
वहाँ से मरकर रूपसेन का जीव कौए के रूप में उत्पन्न हुआ। एक दिन बगीचे में राजा-रानी के साथ संगीत का आनंद ले रहा था। इतने में कौआ सुनंदा को देखकर रागवशात् जोर-जोर से हर्ष पूर्वक काँव-काँव करने लगा। अनेक बार उड़ाने पर भी वह पुनः पुनः आकर वहीं बैठ जाता था राजा ने क्रोध में आकर उसे शस्त्र से मरवा दिया।
कौआ मरकर हंस के रूप में उत्पन्न हुआ। एक कौवे से उस हंस की मित्रता हो गई। एक दिन राजा और उसकी रानी सुनंदा एक वृक्ष के नी। बैठे थे। हंस की दृष्टि सुनंदा पर पड़ते ही उसे देखने में हंस मग्न हो गया। कौआ तो राजा के ऊपर विष्टा करके उड़ गया। राजा ने ऊपर हंस को देखते ही बाण मारकर उसे खत्म कर दिया। रूपसेन के भव में आत्मा ने आँख के पाप से मोह के संस्कार डाले थे। वे पीछे के भ और अंत में कुमृत्यु से मरना पड़ा। ___ वह हंस मरकर छठे भव में हरिणी की कुक्षि में हरिण के रूप में उत्पन्न हुआ। एक बार राजा अपनी पत्नी के साथ जंगल में शिकार करने गया श। घोड़े पर सवार होकर राजा और रानी हरिण के पीछे दौड़े। हरिण तीव्र गति से दौड़ रहा था। इतने में उसकी दृष्टि सुनंदा के चेहरे पर पड़ी। दृष्टि पड़ते ही हरिण स्थिर हो गया। उसकी मांसल काया पर राजा ने बाण फेंका और हरिण का जीव मर कर हथिनी की कुक्षि में पहुंच
लिया।
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49...कहीं सुनसान जाए
राजा के रसोईये ने हरिण का मांस पकाया। राजा और रानी आनंद से प्रशंसा करते हुए मांस खा रहे थे। इतने में दो मुनि वहाँ से गुज़रे। एक ज्ञानी मुनिश्री ने दूसरे मुनिराजश्री से कहा कि कर्म की कैसी विचित्रता है? जिस सुनंदा के निमित्त से बेचारा रूपसेन केवल आँख और मन की कल्पना से
राजा और रानी हरिण का पकाया हुआ मांस खा कर्म बांधकर ७-७ भव से भयंकर वेदना का शिकार हुआ।
यह देखकर दोनों मुनिओंने सिर हिलाया। वही सुनंदा उसका मांस खा रही है। इस प्रकार मंद स्वर से कहकर सिर हिलाया। यह देखकर राजा-रानी ने मुनिश्री से सिर हिलाने का कारण पूछा। तब मुनि ने सुनंदा को अभयदान देने के वचन पर स्पष्ट करते हुए कहा कि जिस रूपसेन के ऊपर सुनंदा को स्नेह था, उसी जीव का मांस सुनंदा खा रही है। अतः हमने आश्चर्य से सिर हिलाया। इस प्रकार मुनि के पास से हकीकत सुन कर सुनंदा को खूब आघात लगा। ओह गुरुदेव! मेरे प्रति आँख और मन के पाप करने वाले की ७-७ भव तक ऐसी दुर्दशा हुई है, तो मेरा क्या होगा? मैं तो उससे भी आगे बढ़कर कायिक पाप-पंक से मलिन बनी हुई हूँ। मुनिश्री ने कहा कि किये हए अपराधों की आलोचना करके चारित्र लेने से आत्मा शुद्ध हो जाती है एवं मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इत्यादि तात्त्विक उपदेश सुनकर सुनंदा ने दीक्षा ग्रहण कर ली। आलोचना का प्रायश्चित लेकर संयम का पालन करते हुए सुनंदा ने अवधिज्ञान प्राप्त किया। eirary org
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कहीं मुनसा न जाए...50
सुनंदा साध्वी एक बार अवधिज्ञान से रुपसेन के जीव को हाथी बना हआ जानकर हाथी को प्रतिबोध देने के लिए जंगल में जा रही थी। तब गांव के लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, परन्तु साध्वीजी किसी की भी सुने बिना एक जीव को प्रतिबोध करने के लिए जंगल में गई। मदोन्मत्त हाथी की दृष्टि सुनंदा पर पड़ते ही वह चित्रवत् स्थिर हो गया। तब साध्वीजी ने कहा - "बुज्झ-बुज्झ रूवसेण, अरे रूपसेन ! बोध प्राप्त कर, बोध प्राप्त कर।" मेरे प्रति स्नेह रखने की वजह से तू इतने दुःखों का शिकार होने पर भी मेरे प्रति स्नेह को क्यों नहीं छोड़ता ? इस प्रकार के वचन सुनने से हाथी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उसने पूर्व के ७ भवों की दुःखमय श्रृंखला देखी। वह खूब पश्चात्ताप करने लगा। अरर ! मैंने यह क्या कर दिया ? अज्ञान दशावश मोह के अधीन होकर आर्तध्यान में मरकर दुर्गति में गया। अब मुझे दुर्गति नहीं देखनी है। इस प्रकार विचार करते हुए हाथी मन में जागृत हुआ। साध्वीजी ने राजा को कहा कि अब यह हाथी तुम्हारा साधर्मिक है। इसका ध्यान रखना। हाथी बेले-तेले वगैरह तप करके देवलोक में गया।
इस कथा से हम समझ सकते हैं कि मन और दृष्टि का पाप कितना भयंकर होता है? उसकी आलोचना न ली, तो रूपसेन के ७-७ भव बिगड़ गए। आलोचना का कैसा अद्भुत प्रभाव है कि साध्वीजी सुनंदा गुरुमहाराज के पास पापों की शुद्धि करके साध्वी बनकर शल्यरहित शुद्ध संयम पालन कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गई। अतः इस बात को आत्मसात् कर आलोचना लेकर
शुद्ध बनना चाहिये।
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सुनंदा साध्वीजी हाथी को प्रतिबोध दे रही है। Use Only
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51...कहीं सुनसान जाए
दूसरे भव में अरुणदेव को शूली पर चढ़ना पड़ा और देवणी को कलाइयाँ कटवानी पड़ी।
11 चंद्रा और सर्गने क्रोध की आलोचना न ली...
वर्धमान नगर में सुघड नाम का कुलपुत्र था। उसकी चन्द्रा नाम की पत्नी थी। उससे सर्ग नाम का पुत्र था। घर में दरिद्रता होने से दोनों जने मज़दूरी कर जीवन चलाते थे। युवावस्था में ही सुघड़ की मृत्यु हो गई। एक दिन चन्द्रा किसी के घर काम करने बाहर गई हुई थी। वहाँ कामकाज ज्यादा होने से आने में देरी हो गई। इतने में उसका पुत्र जंगल से लकड़ी का गट्ठर लेकर आया। चारों ओर देखने पर भी भोजन दिखाई नहीं दिया। जिससे वह अत्याकुल हो गया। इतने में काम पूर्ण करके भूख और प्यास से व्याकुल चन्द्रा आ रही थी। तब क्रोध से धधकते हुए सर्ग ने कहा कि-"क्या तू कहीं शूली पर चढ़ने गई थी? इतनी देर कहाँ लगी?" इतने कठोर और तिरस्कार पूर्ण शब्दों को सुनकर चंद्रा क्रोध से लाल-पीली होकर बोली - "क्या तेरी कलाई कट गई थी कि जिसके कारण तुझे सीके पर से भोजन लेने में जोर पड़ता था?" इस प्रकार के क्रोध मय वचनों को बोलकर आलोचना नहीं ली। शास्त्र में कहा हैं कि - "ते पुण मूढतणजे कत्थवि नालोइय कहवि" मूढ़ता के कारण उन्होंने आलोचना नहीं ली। काल करके अनुक्रम से सर्ग का जीव ताम्रलिप्त नगर में अरूणदेव नाम का श्रेष्ठीपुत्र बना और चन्द्रा का जीव पाटलीपुत्र में जसादित्य के यहां पुत्री के रूप में जन्म पाया । उसका नाम देवणी रखा गया। यौवन वय में योगानुयोग अरूणदेव और देवणी की परस्पर शादी हो गयी । कैसी विचित्र स्थिति है कर्म की? एक बार माता और पुत्र का संबंध था, अब वह मिटकर पति-पत्नी का संबंध हो गया।
एक दिन अरुणदेव मित्र के साथ समुद्रपथ से जहाज में रवाना हुआ। परन्तु अशुभ कर्म के योग से जहाज टूट गया। सद्भाग्य से दोनों के एक लकड़ी का तख्ता मिल गया। उसके सहारे तैरते-तैरते वे दोनों किनारे पर आ गये। वहां से आगे चल कर पाटलीपुत्र नगर के पास पहुंचे। Jain Education Interational,
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कहीं सुनसा न जाए...52
के आवेश में पत्र ने सगी माँ को, "क्या तू शूली पर चढ़ने गई थी?" और माँ चंद्राने पुत्र को, "क्या तेरी कलाईयाँ कट गई थी?" ऐसा कहा।
मित्र ने कहा- अरुणदेव! तेरा ससुराल इस गाँव में है। हम हैरान-परेशान हो चुके हैं। चलो हम तुम्हारे श्वसुर के घर चलें। अरुणदेव ने कहा-इस दरिद्रावस्था में मैं वहां कैसे जाऊं? मित्र ने कहा-कि तू यहाँ बैठ। मैं वहाँ जाकर आ जाता हूं। मित्र गाँव में गया। अरुणदेव एक देवमन्दिर में निद्राधीन हो गया। समुद्र में तैरने के कारण थकावट से शीघ्र ही खर्राटे भरने लगा। इतने में देवणी अलंकृत होकर उपवन में आयी। वहां किसी चोर ने तलवार से उसकी कलाई काट कर कंकण ले लिए और वह भाग गया। देवणी ने शोरगुल मचाया। सिपाही चोर के पीछे लग गये। छिपने या भागने की जगह न होने के कारण चोर देव-मंदिर में घुस गया और अरुणदेव के पास रक्तरंजित तलवार और कंकण रखकर भाग गया। पीछा करने वाले सिपाही अरुणदेव के पास आए और चोरी का माल उसके पास देखकर, उसे पकड़ा और मारा । बाद में सिपाही उसे राजा के पास ले गए। इस प्रकार दिन दहाड़े कलाई काटने वाला जानकर राजा ने अरुणदेव को शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। जल्लादों ने उसे शूली पर चढ़ा दिया।
___ इधर मित्र भोजन आदि लेकर आया। पूछ-ताछ करने पर मालूम हुआ कि अरुणदेव को तो शूली पर चढ़ा दिया गया है। जसादित्य को इस बात का पता चलने पर वह भी वहाँ पर आया और अपने दामाद को इस प्रकार शूली पर चढ़ाया गया है। यह सर्व वृत्तांत जानकर उसे लगा कि यह बहुत बड़ा अनिष्ट हुआ है। यह विचारकर वह राजा
के पास गया और कहा कि ''हे राजन! ये तो मेरे जमाईराज हैं। वे तख्ते के सहारे से समुद्र से बचकर आये हुए हैं। अतः मेरी पुत्री की कलाई किसी ओर ठग ने काटी होगी।" जसादित्य द्वारा इस प्रकार सुनकर राजा ने ली पर से अरुणदेव को उतरवा दिया। अनेक उपचारों से उसे स्वस्थ किया। अन्त में अरुणदेव और देवणी दोनों अनशन करके देवलोक में गये। इस प्रकार क्रोधी वचनों की आलोचना न लेने के कारण अनन्तर भव में चंद्रा के जीव को कलाई कटवानी पड़ी और अरुणदेव को शूली पर चढ़ना पड़ा। अतः क्रोधादि कषायों की भी आलोचना लेनी चाहिये।
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53... कहीं मुरक्षा न जाए
12 लक्ष्मणा साध्वीजी ने
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•स्पष्ट आलोचना नहीं ली।
आज से ८०वीं चौविशी के पहले अन्तिम तीर्थंकर के शासन में लक्ष्मणा नाम की एक राजकुमारी थी। विवाह के समय शादी के मंडप में ही वह विधवा हो गई। श्रावक धर्म का पालन करती हुई शुभ दिन को उसने दीक्षा अंगीकार की। बाद में अनेक को प्रतिबोध देकर अनेक शिष्याओं की गुरुणी बनी। एक दिन चिड़ा-चिड़ी की संभोग क्रिया को देखकर लक्ष्मणा साध्वी विचार करने लगी कि अरिहंत भगवान ने संभोग की अनुमति क्यों नहीं दी ? अथवा भगवान अवेदी थे, अतः वेद वाले जीवों की वेदना उन्हें क्या मालूम ? ऐसा विचार क्षणमात्र के लिये उसे आया। फिर उसे पश्चात्ताप हुआ कि मैंने यह गलत विचार किया है, क्योंकि अरिहंत भगवान तो सर्वज्ञ होते हैं। अतः सर्वजीवों की वेदना जान सकते हैं।
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कहीं मुनझा न जाए...54
इस भयंकर विचार की मुझे आलोचना लेनी चाहिये। ऐसा विचार करके उसने आलोचना लेने के लिये प्रयाण किया, परन्तु प्रयाण करते ही पैर में कांटा चुभ गया। उस वक्त साध्वीजी के मन में यह विचार अंकुरित हुआ कि "यह अपशकुन हुआ है। अतः आलोचना लेने पर मैं अधम गिनी जाऊंगी। गुरुदेव मुझे कैसी सत्त्वहीन गिनेंगें? और शल्ययुक्त रहना भी उचित नहीं है-इत्यादि" विचार करके उसने दूसरे के नाम से आलोचना लेने का निर्णय किया। उसने गुरुदेव के पास जाकर पूछा - "हे गुरुदेव ! किसी को इस प्रकार का विचार आया हो, तो क्या प्रायश्चित आता है?" मैंने ऐसा विचार किया है, यह बात छिपा दी। उसके पश्चात् १० वर्ष तक छट्ठ-अट्ठम-चार उपवास, पांच उपवास और पारणे में निवी की। २ वर्ष तक भुने हुए धान्य का आहार किया। १६ वर्ष तक मासक्षमण किये। २० वर्ष तक आयंबिल किये। २ वर्ष तक भुने हए निर्लेप चीणे खाये। इस प्रकार ५० वर्ष तक घोर तप किया, फिर भी पाप की शुद्धि नहीं हुई। जिससे आर्तध्यान में मरकर, उसने असंख्य भव किये। अनागत चौविशी के प्रथम तीर्थंकर के शासन में वह मोक्ष में जायेगी। इस प्रकार माया कपट कर शुद्ध आलोचना नहीं ली। तो उसका भव-भ्रमण बढ़ गया। अगर उसने मानसिक आलोचना शुद्ध ले ली होती, तो न उसे इतना तप करना पड़ता और न दुर्गति भी होती। पाप को छिपाने से उसका तप भी सफल नहीं हुआ। अतः मानसिक आलोचना लेकर शुद्ध बनना चाहिए।
आज कुछ जीव वाचिक और कायिक आलोचना ले लेते हैं। जैसे कि अपशब्द बोलें, जीव मरे इत्यादि, परन्तु मन से कषाय-वासनादि के जैसे-तैसे विचार किये, ऐसी मानसिक आलोचना बहुत कम जीव लेते हैं। मानसिक आलोचना के सिवाय सम्पूर्ण शुद्धि नहीं होती है। अतः मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों प्रकार से आलोचना लेनी चाहिए। कदाचित् मानसिक आलोचना भूल से रह गई हो, या जानकर रख ली हो, तो वापस आलोचना लेनी चाहिये।
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55...कहीं मुना न जाए
13 एक थी राजकुमारी... ऋषिदत्ता AM राजकुमारी धर्मात्मा बनी... गंगापुर नाम का नगर था। उसमें गंगादत्त नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी गंगा रानी से
गंगसेना नाम की पुत्री हुई। राजकुमारी गंगसेना साध्वीजी महाराज से प्रतिबोध प्राप्त कर धार्मिक बन गई। जैन धर्म का
सार समझकर उसने यौवनावस्था में ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया। वह आयंबिल आदि तपश्चर्या में जीवन बिताने लगी। कलंक देने का प्रायश्चित नहीं लिया... संगा नाम की एक गरीब श्राविका थी। उसने साध्वीजी से प्रतिबोध पाकर दीक्षा ली।
दीक्षित बनने के बाद वह बहुत तपश्चर्या करने लगी। ज्ञान-ध्यान-तप में लीन बनी हुई साध्वीजी ने साधना के द्वार ऐसी सिद्धि प्राप्त की, जिससे उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गयी। जिससे लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। यह देखकर राजकुमारी गंगेसना को ईर्ष्या के कारण यह प्रसिद्धि सहन न हई। उसको लगा कि यह मेरी प्रतिस्पर्धिनी है और लोग की प्रशंसा-पात्र बनी है। लोग पहले मेरी प्रशंसा करते थे और अब उसकी कर रहे हैं! नहीं... यह नहीं चलेगा। अतः मैं इसको लोगों की दृष्टि में किसी तरह भी नीचे गिरा दूं। इस प्रकार ईर्ष्या में आकर उसने साध्वीजी संगाश्रीजी पर कलंक लगाया कि यह तो राक्षसी है। दिन में तपश्चर्या करती है और रात्रि में मुर्दे खाती है। इस प्रकार बारंबार लोगों को कहने लगी। कहा जाता है कि, एक झूठी बात जब सौ बार कहने में आये, तब लोग उसे सच मान लेते हैं।
राजकुमारी होने के कारण समाज पर उसका प्रभाव था और धर्मात्मा का चोला पहने हुई थी। इसलिए लोगों का विश्वास पाना सहज था। अतः लोग उसकी बात को सत्य मानने लगे। "संगा साध्वी राक्षसी है..!!" .
हाथी के दांत खाने के दूसरे और दिखाने के दूसरे.... बाहर से तपस्वी और अंदर से ऐसी हीनवृत्ति... छि ! धिक्कार है.... मुँह में राम, बगल में छुरी। समता की सरिता समान साध्वीजी संगा..... चुपचाप उसने यह कलंक सहन
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कर लिया और विचार किया कि यह मेरे खुद के कर्म का दोष है। इस प्रकार विचार कर उसने राजकुमारी पर द्वेष नहीं किया। राजकुमारी ने इस प्रकार ईर्ष्या से कलंक देने के पश्चात् प्रायश्चित नहीं लिया और मृत्यु पाकर उसने अनेक भवों में भ्रमण किया। उसके बाद इसी गंगापुर नगर में वह पुनः राजकुमारी बनी। वैराग्य पाकर उसने दीक्षा ली। आयुष्य पूर्ण होने पर दूसरे देवलोक में देवी बनी। वहां पर अपना आयुष्य पूर्ण करके वह मृतिकापदा नगरी के राजा हरिषेण राजा की पत्नी प्रियमती की कुक्षि में अवतरित हुई। राजा रानी ने तापसधर्म स्वीकार किया....
एक बार संसार से विरक्त होकर हरिषेण राजा ने अपनी पत्नी से कहा कि मैं राज्य का कारोबार छोड़कर तपोवन में जाऊंगा और वहां पर आत्म-साधना करूंगा। तुम यहीं पर रहना । पतिव्रता रानी प्रियमती ने कहा कि जो आपका मार्ग, वही मेरा मार्ग। मैं भी आपके साथ तपोवन में चलकर साधना करूँगी।
राजा को यह मालूम नहीं था कि यह गर्भवती है। अतः राजा ने अनुमति दे दी। दोनों विश्वभूति तापस के पास गये और तापस धर्म का स्वीकार किया। दोनों तापस- तापसी बन गये। जंगल में फलाहार इत्यादि करके निर्वाह करने लगे । परन्तु कुछ दिन व्यतीत होने के बाद प्रियमती के शरीर पर गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगे। यह स्थिति देखकर कुलपति ने विचार किया कि यह क्या हुआ? अपनी बेइज्जती होगी। यह जानकर कुलपति राजा हरिषेण और प्रियमती को छोड़कर अन्यत्र चले गये ।
ऋदृत्ता अदृश्य बनने लगी.... क्रम से समय व्यतीत होने के बाद प्रियमती तापसी ने पुत्री को जन्म दिया। जन्म देते ही वह मरण के शरण हो गई। पिता हरिषेण ने ऋषि की कृपा से यह पुत्री हुई है। यह सोच कर इसका नाम ऋषिदत्ता रखा। वह क्रमशः बड़ी होने लगी। उसने यौवन के प्रांगण में कदम रखा। उसका रूप और लावण्य देखकर पिता हरिषेण को चिंता होने लगी। इसलिये जंगल में उसके शील की रक्षा के लिए पिता ने उसे अदृश्य विद्या प्रदान की, जिससे वह कभीकभी अदृश्य हो जाती थी।
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कहीं सुना न जाए... 56
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57... कहीं मुनसा न जाए
शादी के लिये कनकरथ का प्रयाण... एक बार रथमर्दन नगर के राजा हेमरथ के रूप, लावण्य, कला और गुणसंपन्न पुत्र कनकरथ को काबेरीपुरी के राजा सुंदरपाणी ने अपनी पुत्री रूक्मिणी के साथ शादी करने के लिए निमंत्रण दिया । निमंत्रण का स्वीकार कर हेमरथ राजा ने अपने पुत्र कनकरथ को सैन्य सहित काबेरीपुरी की ओर प्रयाण करवाया ।
प्रयाण करके राजकुमार उसी जंगल में पहुँचा, जहाँ ऋषिदत्ता रहती थी। उसको बहुत प्यास लगी। पानी की खोज करने के लिए सिपाही इधर-उधर घूमने लगे। बहुत देर के बाद पानी लेकर सिपाही आए। तब राजकुमार ने अपनी प्यास बुझाई और उनसे पूछा, कि "इतनी देर क्यों हुई?'
हाथ जोड़कर सिपाहियों ने जबाब दिया कि हे स्वामिन् ! आपको आश्चर्य होगा, परंतु यह बात सच है कि पानी की शोध में हम जंगल में भटक रहे थे। तब यहाँ से ४ कोश (१३ किलोमीटर) जाने पर हमने एक सरोवर देखा। उसके किनारे एक देवमंदिर था। जिसके पास वट का पेड़ था। वहाँ पर एक तापस दिखाई दिया। जिसके पास कभी-कभी रूप-यौवन से सुशोभित लड़की दिखाई देती व पुनः क्षणभर में वह अदृश्य हो जाती । अरे ! वह लड़की बारबार दृश्य-अदृश्य हो रही थी। यह हमारी आँखो का भ्रम तो नहीं? मृगजल के समान हमारी कल्पना तो नहीं? इस आश्चर्य को देखने के लिए हम वहां खड़े रहे । अतः वापस आने में विलम्ब हुआ है।
ऋषिदत्ता की शादी... दूसरे दिन कुमार को उत्कंठा हुई कि किसी भी तरह मुझे इसका रहस्य प्राप्त करना है। 'इसलिये कुमार ने उस क्षेत्र की ओर प्रयाण किया । वहाँ पर राजकुमार ने भी देखा, कि क्षणभर में एक लड़की दिखाई देती और पुनः अदृश्य हो जाती। राजकुमार देवमंदिर में गया। वहाँ पर उसने एक वृद्ध तापस को देखा। राजकुमार ने उसका अभिवादन किया। तापस ने राजकुमार से उसका परिचय पूछा। तापस को अपना परिचय देकर उसने वहाँ रहने की अनुमति मांगी। तापस ने सहर्ष अनुमति प्रदान की।
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कहीं मुरझा न जाए...58
एक दिन राजकुमार ने तापस से क्षणभर में अदृश्य होने वाली लड़की के बारे में पूछा। तब तापस ने यह सोचा कि यह मेरी पुत्री को चाहता है, इसलिए तापस ने उसका सारा पूर्व वृतांत विस्तार से बताया, जिसे सुनकर राजकुमार के रोम-रोम में खुशी की लहर छा गई। तापस ने भी योग्य जानकर अपनी पुत्री ऋषिदत्ता की शादी कनकरथ राजकुमार के साथ कर दी। शादी के बाद कनकरथ का मन शांत हो गया। इसलिये उसने दूसरी शादी करने का विचार छोड़ दिया। वहाँ से वापस लौटकर वह अपने नगर की ओर चला और धूमधाम से नगर प्रवेश किया। जब रूक्मिणी को पता चला कि कनकरथ बीच में से ही अन्य के साथ शादी करके वापिस चला गया है, तब वह चिंता से आकुल व्याकुल हो गई और नागिन की तरह बदला लेने के लिये तैयार हो गयी, किसी भी तरह मैं कनकरथ को ऋषिदत्ता से विमुख कर दूंगी, जिससे कनकरथ राजकुमार मेरे साथ शादी करने के लिये तैयार हो जायेंगे, कैसा है वासना का तूफान? जिससे दूसरे इंसान को नुकसान पहुंचाकर भी खुद के मनसूबे को पूरा करना । यह कैसी मैली मुराद है?
मानव का अहंभाव... एक दिन सुलसा नाम की एक तापस रूक्मिणी के पास आई। उसने उससे चिंता का कारण पूछा। तब रूक्मिणी ने अपने दिल की सारी गूढ बात कह सुनाई, जिसे सुनकर सुलसा अहंभाव में आई और उसने कहा कि चिंता मत कर । मैं प्रतिज्ञा करती हैं कि मैं तेरा कार्य अवश्य कर दूंगी।
___ सुलसा रथमर्दन पहुँच गई। ऋषिदत्ता को देखते ही वह हतोत्साह हो गई। अरर ! ऐसी गुणवती पत्नी पाकर दूसरी की चाह कौन करेगा? अमृत पाकर विष पाने की चाहना कोई करता है क्या ? राजकुमार ने सही निर्णय लिया है, परन्तु मैंने तो रूक्मिणी के पास प्रतिज्ञा की है कि मैं तेरा यह काम अवश्य करूँगी। यह प्रतिज्ञा निष्फल कैसे हो सकती है? मैं किसी तरह से इस ऋषिदत्ता को बर्बाद करूँगी। मानव का अहंत्व कैसा भयंकर है? जिसके फलस्वरूप वह दूसरे का विनाश सोचता है।
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तापसी मेली विद्या के बल से राजमान्य पुरुष को मारकर
रात को ऋणदत्ता के हाथ, मुँह, बिस्तर आदि को मांस और खून से रंग देती। (OIONSIONORONOROCONVONG
मांसभक्षण का आरोप... वह तापसी मैली विद्या के बल से राजमान्य पुरुष को मारकर (निर्दोष) ऋषिदत्ता के हाथ और मुँह को माँस और खून से रंग देती। धीरे-धीरे यह बात प्रकट होने लगी। लोगों में चर्चा होने लगी, कि "ऋषिदत्ता राक्षसी है। वह रात्री में लोगों की हत्या कर माँस खाती है।"
____ राजकुमार ने ऋषिदत्ता से पूछा, कि "तू यह क्या करती है?" उसने नम्रता पूर्वक प्रत्युत्तर दिया कि मैं कुछ भी नहीं जानती हूँ। पूर्वभव के कर्मोदय के कारण मुझ पर किसी ने यह कलंक लगाया गया है। परंतु मैं कुछ नहीं जानती। यह सुनकर कुमार की शंका दूर हो गयी।
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कहीं मुनसान जाए...60
आपको विश्वास नहीं होता हो, तो इसमें मैं किसी को दोष नहीं देती। मेरे ही कर्मों का दोष है।" यह कहते कहते उसकी आँखों में से गंगा-जमुना बहने लगी।
सुलसा ने अपना प्रयत्न चालू रखा दूसरे दिन मांस का टुकड़ा उसने बिछाने में रख दिया। तीसरे दिन खून से रंगी हुई छूरी भी बिस्तर में रख दी। विद्या के प्रभाव से सुलसा का गमनागमन कुमार को मालूम नहीं हुआ।
आ तो कुमार की श्रद्धा डगमगाने लगी। इसलिये उसने ऋषिदत्ता से पुनः पूछा कि यदि तुझे मानव को मांसभक्षण की
च्छा हो, तो मैं तुझे गुप्त रीति से खिला दूंगा। तू असलियत बता दे।
खुद के कर्मों का ही दोष जानकर ऋषिदत्ता रो पडी, स्वामिनाथ ! जन्म से अहिंसा को ही मैंने प्राण माना है। स्वप्न में भी मैं यह इच्छा नहीं कर सकती। पुनः ऋषिदत्ता ने विनय पूर्वक प्रत्युत्तर दिया, कि "क्या आज दिन तक मैंने कोई बात आपसे छिपाई है ? फिर भी
कनकरथ किंकर्तव्यविमूढ हो गया।.. न कहा जाये, न सहा जाये। उसकी ऐसी करुणदशा हो गयी कि ऐसे कातिल दृश्य देखने की उसमें हिम्मत नहीं थी और सुशील पत्नी के वियोग को भी सहन करने में वह असमर्थ था। अतः किसी के द्वारा पूछने पर वह टालमटोल करता हुआ कहता कि मैं तो इस विषय में कुछ भी नहीं जानता।
हेमरथ राजा का कोप और फैसला... एक दिन हेमरथ राजा ने आक्रोश में आकर मन्त्रियों से कहा कि
इस प्रकार रोजाना मानवहत्या हो रही है
और आप लोग कुछ भी नहीं कर रहे हो। क्या आप लोगों की बुद्धि का दिवाला निकल चुका है ?
राजा का प्रजा के प्रति प्रेम होने से, अहिंसा के अविहड राग से और रोष से भरे हुए वचन सुनकर मंत्री थर-थर कांपते हुए उपाय सोचने लगे। मंत्रियों ने काफी मेहनत की, लेकिन सब जगह निष्फलता मिली। अन्त में थक कर वे सुलसा तापसी के पास गये और उससे मानव-हत्या का कारण पूछा। कपट विद्या में पारंगत उसने बहाना बनाते हए जवाब दिया कि प्रश्न जटिल है। रात्रि में देवता को पूछकर मैं जवाब दूंगी। इस प्रकार बहाना बनाने का यह प्रयोजन था कि देवता के नाम से लोगों को पूर्णतया विश्वास हो जाएगा।
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61... कहीं मुना न जाए
सुलसा तापसी रात्रि में ऋषिदत्ता का मुँह खून से रंगकर उस पर अवस्वापिनी निद्रा डालकर राजा व मंत्रियों के दिमाग में इस बात को बिठाने के लिये उनके पास गई। विशेष विश्वास जमाने के लिए कपटपटु उसने राजा से कहा कि आप यदि अभयदान दें, तो मैं सारी हकीकत बताऊं। राजा के स्वीकार करने पर उसने राजा से कहा कि आप स्वयं ऋषिदत्ता के पास जाकर देखिये। राजा वहाँ गया और उसने वही स्थिति देखी। देखते ही राजा के दिमाग का
पारा चढ़ गया।
अरर ! यह तो ऋषिदत्ता का ही सारा षड्यंत्र है। छुरी से मार कर यही रोज खून पीती है, आज तो मैंने अपनी इन आँखो से देखा है। बस, अब मुझे राजकुमार से कुछ भी नहीं पूछना है। अतः उसने तुरन्त उसे मारने के लिए चंडालों को सौंप दिया और कहा कि इस पाप के भार से पृथ्वी को हल्का बना दो। वे उसे श्मसान में ले गये। वहाँ उन्होंने निराधार ऋषिदत्ता को बहुत धमकाया । अबला के आँखो में से बैर बैर जितने आँसू टपकने लगे।
महासती पर चंडालों को दया आई... सती के सद्भाग्य से एक चंडाल ने कहा कि ऐसी निर्दोष और दयालु सती ऐसा कार्य कर ही नहीं सकती, परन्तु अब क्या करें?
चंडालों को भी रहम आ गई और उन्होंने कहा कि तुम दूर
देश में चली जाओ। जिससे राजा हमें दोषी न ठहरा सके कि तुम्हारे साथ हमारी मिलीभगत थी, इसलिये हमने तुम्हें जीवित छोड़ दिया ।
कर्म के फल का विचार करती हुई वह अपने पिता के आश्रम की ओर चल पड़ी। चंडालों ने किसी अन्य का मस्तक काटकर राजा को बता ★ दिया। अन्य ग्रन्थों में यह उल्लेख मिलता है कि चंडालों ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई। अतः चंडाल उसे मृतवत् मान कर चले गये। जब उसे चेतना आई, तब वह कर्म का विचार करती हुई अपने पिता के आश्रम की ओर चल पड़ी। जब वहाँ पहुँची, तो पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उसके पास चमत्कारी जड़ीबूट्टी थी । अतः शील की सुरक्षा के लिए जटिका (जड़ीबूट्टी) के प्रभाव से उसने पुरुष वेष धारण कर लिया और तापस कुमार बनकर रहने लगी।
कनकरथ की रूक्मिणी के साथ शादी... दूसरी ओर कनकरथ राजकुमार ऋषिदत्ता के वियोग से जल बिन मीन की तरह तड़पने लगा । उसके वियोग से वह संतप्त रहने लगा। इसी समय में काबेरी से सुन्दरपाणी राजा का दूत रूक्मिणी के साथ शादी करने हेतु निमन्त्रण लेकर आया। हेमरथ राजा ने अपने पुत्र कनकरथ को समझाया कि ऋषिदत्ता तो यम शरण हो गई है। अतः निमंत्रण स्वीकार करना उचित है। पिता के अनुरोध से कनकरथ ने स्वीकृति प्रदान कर दी और उसने काबेरी की ओर प्रयाण किया। रास्ते में वही आश्रम आया, जहाँ ऋषिदत्ता तापस के रूप में रहती थी। वहाँ राजकुमार का दाहिना नेत्र स्फुरायन
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कहीं सुना न जाए....62 होने लगा। उसने सोचा आज जरुर कोई लाभ होगा। इतने में उस वहाँ तापस कुमार को देखा। देखते ही उस पर राजकुमार
एक दिन घूमती-फिरती सुलसा तापसी भी उसी आश्रम में आ पहुँची।
तापसकुमार ने अनुमान लगाया कि मुझे घर से निकालने वाली यही तापसी अत्य-त मोहित हो गया।
होनी चाहिए। तापस ने उससे कहा कि गुरु के उपदेश से किये हुए तप के उसने नमस्कार कर तापस कुमार से पूछा कि "आप यहाँ
द्वारा मुझे अभी तक विद्या प्राप्त नहीं हुई है। तब तापसी को लोभ जगा कि कैस ?" तब तापस कुमार ने अपना स्वरूप छिपाते हुए कहा कि
यह गुरु में निष्ठा रखने वाला तपस्वी है। इसलिए मैं इसके साथ अच्छा संबंध यहा पर हरिषेण नाम का तापस रहता था। उसकी एक लड़की
रखूगी, तो जैसे इसको विद्या मिलेगी, तो इनसे मुझे भी विद्या मिल जायेगी। थी। उसका नाम ऋषिदत्ता था। उसकी शादी किसी राजकुमार
इसलिए तापसी ने तापस कुमार से कहा कि मेरे पास अवस्वापिनी वगैरह के साथ करके तापस मर गया। घूमता-घूमता मैं यहाँ आया और
विद्या है और मैंने ऋषिदत्ता पर इसका प्रयोग करके सफलता प्राप्त की है। सुनसान प्रदेश देखकर मैं यहीं पर रहने लगा।
तापस कुमार ने उससे सारा वृतान्त जानकर एक वाक्य में प्रत्युत्तर दे दिया राजकुमार उसे देखकर एवं उसके विनयपूर्ण वचन सुनकर कि मुझे ऐसी पाप विद्या की जरुरत नहीं है। परंतु मन में तापसकुमार समझ अत्यधिक प्रसन्न हुआ, मानो उसे ऋषिदत्ता ही मिल गई हो।
गया कि मुझे आपत्ति में डालने वाली यह दुष्ट सुलसा ही है। लेकिन अवसर
आने पर देखा जायेगा। इस प्रकार विचार कर वह स्वस्थ हो गया। उसने तापस कुमार से आग्रहपूर्वक कहा कि आपको देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसलिये
तापस कुमार व राजकुमार की मित्रता... एक बार बहुत देर होने पर साप मेरे साथ रहिये । तापस कुमार ने कहा कि "गृहस्थों के साथ भी तापस कुमार वापस नहीं लौटा, तब राजकुमार स्वयं उसके पास गया पस का क्या लेना-देना ?" जब राजकुमार ने विशेष आग्रह
और आग्रह पूर्वक अपने शामियाने में उसे ले आया। रात भर दोनों साथकिया, तब तापस कुमार ने साथ रहने के लिए हां भरी।
साथ सोकर परस्पर बातचीत करने लगे। तापस कुमार ने राजकुमार को उद्विग्न जानकर पूछा कि ऐसी कैसी ऋषिदत्ता थी कि अभी तक आपका मन संतप्त रहता है व आपको चैन क्यों नहीं पड़ता? तब राजकुमार ने गद्गद् स्वर से उसके रूप, लावण्य और गुणों का कुछ वर्णन किया और कहा कि "हे मित्र ! एक जीभ से कभी उसका वर्णन पूरा नहीं हो सकता।" www.janeite
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63...कहीं नुनमा न जाए
क्या कहूं उसकी विनय शीलता? क्या बताऊँ, उसका रूप व सौन्दर्य, इत्यादि बातें करते रात्रि पूर्ण हो, गई। सुबह होते ही काबेरी से मंत्रीजी आये। उन्होंने प्रयाण के लिए निवेदन किया। तब राजकमार ने कहा कि मेरा मित्र तापसकुमार यदि वहाँ साथ चलेगा, तो मैं आऊँगा, अन्यथा नहीं। तापस कुमार को बहत मनाया गया। अंत में राजकुमार ने उससे कहा कि आप एक बार तो मेरे साथ चलो, शादी होने के बाद मैं आपको यहां पर पहुँचाने आऊँगा। इतना कहने-सुनने के बाद तापसकुमार चलने के लिए तैयार हुआ।
सभी ने वहाँ से प्रयाण किया। काबेरी पहुंचने के बाद राजकुमार कनकरथ के साथ राजकुमारी रूक्मिणी की धामधूम से शार्द, हो गई। बहुत दिनों तक कनकरथ ससुराल में ही रहा। राजकुमारी ऋषिदत्ता की याद में वह उद्विग्न रहता था और उदासीनता में अपना समय व्यतीत करता था।
आखिर भंड़ा फूटा... एक दिन राजकुमार उदासीन मुद्रा में बैठे हुए थे, तब रूक्मिणी ने राजकुमार से पूछा कि "आप उदास क्यों रहते हो? ऐसी कैसी ऋषिदत्ता थी कि मेरे जैसी सुन्दर पत्नी मिलने पर भी आप उसको भूलते नहीं हैं?" तब राजकुमार ने का कि "तू तो रूप लावण्य में उसके सामने कुछ भी नहीं है। अरे ! हिमालय पर्वत के सामने तू राई समान है। कहाँ उसका रूप, कहाँ उसका लावण्य और कहाँ उसकी गुणों की माला...! उसके मरने के बाद मेरे पिताजी ने आग्रह किया। इसलिए मैं शादी करने आया हँ, अन्यथा तेरे से शादी करने आता ही नहीं।"
यह सुनते ही रूक्मिणी की आत्मा में अहंभाव जाग उठा और वह जोर से बोल उठी। यह तो सारी मरी करामात थी, जिससे आपके पिताजी ने आपको यहां पधारने के लिए कहा। अन्यथा आपके पिताजी भी नहीं कहते। यह कहकर उसने अपनी चतुराई बताने के लिए किस प्रकार सुलसा तापसी द्वारा यह काम करवायाँ ? यह सारी घटना सुना दी। षड्यंत्र का भंडा फूट गया, “पाप छुपाये न छुपे... छुपे तो मोटे भाग, दाबी दुबी ना रहे रुई लपेटी आग..."
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कहीं शुनझा न जाए...64
यह सुनकर राजकुमार अत्यन्त खिन्न हो गया। अरे ! एक महासती के ऊपर ऐसा भयंकर कलंक इस पापिणी ने अपने स्वार्थ के लिये लगाया। राजकुमार के मन में रूक्मिणी के प्रति अत्यंत तिरस्कार भाव जागा और खुद को कोसने लगा कि मेरे आश्रित व्यक्ति को मैं बचा न सका और मेरी मजबूरी के पाप से एक महासती परलोक में पहुँच गयी। राजकुमार अग्निस्नान करने को तैयार हुआ... इधर तापसकुमार के रूप में रही हई ऋषिदत्ता आनंद विभोर हो गई, क्योंकि आज वास्तव में उसला कलंक उतर गया।
घर-घर यही बात थी। सुंदरपाणी राजा ने सुलसा तापसी का तिरस्कार कर उसे अपने राज्य से निकाल दिया। परंतु फौलादी पुरुष के विचार भी फौलादी थे। अनेक रीति से
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इसलिये वह मन ही मन खुश हो रही थी। राजकुमार कनकरथ क्रोध से तमतमा उठा। एक निष सती के ऊपर कलंक लगाने वाली रूक्मिणी के प्रति उसे तिरस्कार भाव जगा। इतना ही नहीं, उसे स्वयं पर भी तिरस्कार भाव जगा। अरर ! मैं सर्वथा निकम्मा निकला। एक निर्दोष सती पत्नी की रक्षा भी नहीं कर पाया। अतः मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं है, आश्रित की सुरक्षा करने में सफल मानव के लिए अग्नि ही शरण है और सती को पीड़ा पहुंचाने वाले का यही प्रायश्चित है। इस प्रकार विचार कर उसने चिता जलाई। राजकुमार उसमें कूदकर अग्नि स्नान करने की तैयारी करने लगा। तब दूसरे लोगों को भी असलियत मालूम हुई।
राजकुमार का निर्णय पवन की तरह सारे नगर में फैल गया, साथ ही ऋषिदत्ता की सुगंध और रूक्मिणी की दुर्गंध भी.... जनमुख में बस यही तीन बातें चल रही थी कि, धन्य है महासती ऋषिदत्ता को... धिक्कार हो रूक्मिणी को... और किसी भी संयोग में राजकुमार को बचा लिया जाये।
समझाने पर जब राजकुमार ने जल मरने की जिद्द न छोड़ी, तब सुन्दरपाणी तापसकुमार के पास गया और राजकुमार को बचाने के लिए उससे प्रार्थना की।
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तापसकुमार पर्दे में गया और पर्दे में से ऋषिदत्ता प्रगट हुई, तब उसका रूप देखकर लोग आश्चर्यचकित हो गये।
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कहीं गुना न जाए....66
वास्तव में तापसकुमार भी धर्मसंकट में फँसा हुआ था। बुद्धि से काम लेने में न आये, तो गड़बड़ हए बिना नहीं रहेगी। राजा की प्रार्थना को स्वीकार कर वह राजकुमार के पास गया और उसको समझाने लगा। अरे ! मित्र ! यह क्या कर रहा है? आत्महत्या कितनी भयंकर है। तेरे। माता-पिता भी दुनिया में मुँह कैसे दिखायेंगे ? अरे मित्र ! परलोक में तेरा क्या होगा ? अरे मित्र ! त जिंदा रहेगा, तो शायद ऋषिदत्ता भी। वापस मिल जाएगी, परन्तु जल मरने पर तो कभी नहीं मिल सकेगी। पेड़ पर रात्रि में बैठे हुए पक्षी प्रातः होते ही अलग-अलग दिशा में उड़ जाने के बाद वापस मिलते हैं क्या ? नहीं, तो यहाँ पर भी ऐसा समझिये।।
उचित बातें होने पर भी मनुष्य अपने मतलब की बात पकड़ लेता है। यदि जिंदा रहेगा, तो संभव है कि ऋषिदत्ता मिल भी जाएगी। इतना सुनते ही राजकुमार बोल उठा ! अरे मित्र ! यदि तू ऋषिदत्ता को ले आये, तो मैं जिंदा रह सकता हैं। इसके लिए तू जो मांगेगा, वह तुझे वरदान दूंगा। अरे मित्र ! सच बोल, क्या तूने ऋषिदत्ता को कहीं देखी है? "ज़रुर देखी है। विधाता के पास" तापसकुमार ने गंभीरता से जवाब दिया। राजकुमार ने कहा कि, "तू वहाँ जाकर उसे ले आ। तापसकुमार ने जवाब दिया कि, अगर मैं वहाँ जाऊँगा, तो मुझे वहाँ ही रहना पडेगा और ऋषिदत्ता यहाँ आ जायेगी। कोई बात नहीं त आये, तो ठीक, नहीं तो ऋषिदत्ता को जरुर भेजना। राजकुमार की यह बात सुनकर तापसकुमार ने कहा कि वरदान तो आप अब अपने ही पास रखिये और पर्दा करवा दीजिए। मैं ध्यान के बल से उसे आपके पास भेज दूंगा, परन्तु मैं वापस नहीं लौटूंगा। कनकरथ ने कहा खैर, कोई बात नहीं, आप उसे तो भेज दीजिये।। मनुष्य अपने स्वार्थ-साधना में कितना प्रवीण होता है? यह इससे सिद्ध हो जाता है कि जो मित्र के बिना एक पल भी नहीं रह सकता। था, वही राजकुमार ऋषिदत्ता के लिये मित्र को छोड़ने के लिये तैयार हो गया।
ऋषिदत्ता का प्रकट होना... तापसकुमार पर्दे में गया और जटिका निकालकर ऋषिदत्ता के रूप में पर्दे से बाहर आया। सब के सामने ऋषिदत्ता प्रकट हई। तब उपस्थित लोग दांतो तले उंगली दबाने लगे और कहने लगे कि रूक्मिणी को छोड़कर ऋषिदत्ता के स्नेह में। राजकुमार आसक्त रहता था। यह उचित ही था कि अमृत को पाकर विष कौन पीएगा? अब राजकुमार को रूक्मिणी के प्रति और भी घृणा उत्पन्न हो गई। जिससे उसकी तरफ देखना भी बंद कर दिया। यह देखकर कद्रदान ऋषिदत्ता का मन व्यग्र हो उठा।।
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67...कहीं सुनसा न जाए
ऋषिदत्ता की हृदय की विशालता... एक दिन राजकुमार को प्रसन्न देख कर ऋषिदत्ता ने भूतपूर्व सारी हकीकत सुनाकर कहा कि मैं ही तापसकुमार बनी थी। जिससे कनकरथ को मित्र के वियोग की व्यथा भी मिट गई। लेकिन ऋषिदत्ता ने वरदान की बात याद दिलाकर कहा कि, "अब वरदान दीजिये।" तब कुमार ने कहा कि तू जो मांगे, वह देने के लिए मैं तैयार हैं।
परोपकारिणी ऋषिदत्ता ने कुमार से कहा कि जैसा बर्ताव आप मेरे प्रति रखते हो, वैसा ही बर्ताव आज से रूक्मिणी के प्रति रखिए। यही मुझे वरदान के रुप में चाहिये। स्त्री-हृदय की इतनी उदारता देखकर वह आश्चर्यमुग्ध हो गया। मनोमन उसकी विशालता के प्रति झुक पड़ा। यह कैसी नारी ? जिसने ऐसा भयंकर अपराध किया, उसके ऊपर भी प्रेम और दया की भावना। कुमार की आँखों से हर्ष के आँसू छलकने लगे। "अहो ! अभाव तो दूर रहा, परन्तु समग्र अपराधों को माफ कर यह इनाम ! गज़ब-गज़ब कर दिया ऋषिदत्ता तूने !" राजकुमार बोल उठा। राजकुमार ने उसकी बात का स्वीकार किया। उसके बाद राजकुमार रूक्मिणी पर भी समान रूप से स्नेह करने लगा। कुछ दिन पश्चात् उसने दोनों पत्नियों के साथ रथमर्दन नगर की ओर प्रयाण किया। वहाँ पर पहुँच कर हेमरथ राजा के चरणों में नमस्कार किया।
हेमरथ राजा का पश्चाताप व दीक्षा... सारा वृत्तांत सुनकर राजा को बहुत पश्चात्ताप हुआ। अरर ! एक निर्दोष सती को मैंने कितने भयक कष्टों का शिकार बना दिया। धिक्कार हो मेरे अहंभाव और अज्ञानता को ! उसने ऋषिदत्ता से क्षमा याचना की। राजा के मन पर इतनी चोट लगी कि उसका हृदय पानी-पानी हो गया। समस्त संसार के प्रति उनको वैराग्य उत्पन्न हो गया। यह संसार ही भयंकर है, क्योंकि संसारी मानव निर्दो
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कहीं सुनसा न जाए...68
| जीवों पर भी जुल्म करता है। इतने में वहाँ चार ज्ञान वाले आचार्यदेव श्री यशोधरसूरीश्वरजी म.सा. पधारे वैराग्य वासित हृदय वाले हेमरथ राजा ने कनकरथ को राज्य देकर उनके पास दीक्षा ली।
कनकरथ व ऋषिदत्ता की दीक्षा... अब कनकरथ राजा बना। समय बीतने पर ऋषिदत्ता ने सिंह को स्वप्न में देखने के बाद सिंह के समान पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम सिंहरथ रखा।
एक दिन प्राकृतिक दृश्य को देखने में लीन राजा-रानी वातायन के द्वारा बाहर आकाश में गौर से देख रहे थे... संध्या काल में सूर्य के प्रभा मंडल से प्रकाशित बादलों का समह विविध रंगों से ससज्ज होकर अनेक रूप-रंग में नाच रहा था। रानी ! इधर तो देखिये... इन बादलों के विविध रंग कितने सुंदर
ग रहे हैं।.... और थोड़ी ही देर में संध्या के बादल तितर-बितर होकर नष्ट हो गये। तब राजा की चिंतनधारा आगे चलने लगी, अरे... मेरा जीवन भी इसी तरह एक दिन नष्ट हो जायेगा ? विचारों के प्रचंड झंझावात से महाराजा का हृदय हिल उठा।
मनुष्य जीवन का क्या भरोसा? यह भी कनकरथ ने राज्य का भार पुत्र को वायु जैसा अस्थिर है। आराधना से वंचित सौंपा व राजा-रानी दोनों ने दीक्षा को होकर मैं कहाँ जन्म पाऊँगा ? ऐसे वैराग्य स्वीकार किया। विशुद्ध संयम की। के फव्वारे राजा के हृदय-बाग में उछलने
___साधना करके केवलज्ञान पाकर दोनों लगे। इतने में उद्यान में वे ही आचार्यदेव
मोक्ष में गये। श्री यशोधरसूरीश्वरजी म.सा. हेमरथ मुनि के
सोचिये इन विचित्र कर्मों की साथ वहाँ पधारे।
गति ! एक छोटी-सी चिनगारी भी प्रवचन सुनने के बाद ऋषिदत्ता ने
दावानल का रूप ले सकती है। इसी उनसे पूछा कि "मैंने पूर्वभव में क्या पाप
प्रकार आलोचना न लेने पर एक किया था, जिससे बेगुनाह मुझको इतना कष्ट
छोटे-से कटु कलंकवचन से कितना इस जीवन में भोगना पड़ा।" आचार्यदेवश्री ने
कष्ट भुगतना पड़ा। ऋषिदत्ता यदि
राजकुमारी गंगसेना के भव में संगा उसके पूर्व भव बताते हुए कहा कि "तूने पूर्वभव
साध्वीजी को राक्षसी कहने के में ईर्ष्या के परवश होकर संगा साध्वीजी के
पाप की आलोचना ले लेती, तो ऊपर कलंक दिया था और उसकी आलोचना न
उसे इतने कष्टों का शिकार नहीं ली । इससे तुझे इतना कष्ट भुगतना पड़ा है।
बनना पड़ता और शीघ्र आत्मयदि तू आलोचना प्रायश्चित्त ले लेती, तो तुझे यह
कल्याण हो जाता। अतः हमें कष्ट भुगतने की नौबत नहीं आती।"
आलोचना लेकर अपनी आत्मा यह सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हआ। को शुद्ध बनानी चाहिये | ary.ora.
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69... कहीं मुना न जाए
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निर्दोष सीताजी पर कलंक क्यों आया ?
महान् पवित्र आत्मा सती सीताजी पर जन-सामान्य ने असदारोप (झूठा) लगाया। जिससे सीताजी को अनेक कष्ट भुगतने पड़े। क्योंकि जैनदर्शन CAUSE AND EFFECT थियरी को मानता है। कारण के बिना कार्य उत्पन्न होता ही नही। इसका संबंध पूर्व भव से है। क्योंकि उनकी आत्मा पूर्व भव में आलोचना (प्रायश्चित्त) न ले सकी। इसलिये महासती के ऊपर भी काला कलंक लगा ।
श्रीभूति पुरोहित की पत्नी सरस्वती ने पुत्री को जन्म दिया। उसका नाम वेगवती रखा गया। क्रमशः वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई, फिर भी उसकी धर्मकार्यों में
अच्छी लगनी थी। एक दिन उसने कायोत्सर्ग
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में खड़े सुदर्शन मुनिश्री को देखा, मुनि भगवंत त्यागी और तपस्वी थे। जिन्हें अनेक लोग वंदन करते थे। वेगवती ने हँसी में आरोप लगाते हुए लोगों से कहा कि इनको आप क्यों वंदन करते हो? इनमें क्या पड़ा है? मैंने तो स्त्री के साथ क्रीड़ा करते हुए इन्हें देखा है और इन्होंने उस स्त्री को दूसरी जगह भेज दिया है। यह सुनकर शीघ्र ही लोकमानस बदल गया ।
ऐसी बात !! विश्वस्त सूत्र जैसी अपने गाँव की लड़की वेगवती के मुंह से..... सबको विश्वास हो गया। महान पवित्र आत्मा होते हुए भी कुमारिका वेगवती ने सिर्फ उपहास में आरोप लगाया था, परंतु लोग कलंक की घोषणा सुनते ही मुनिश्री के प्रति
दुर्भाव वाले बन गये ।
यह देखकर सुदर्शन मुनिश्री ने वेगवती के ऊपर द्वेष नहीं किया, परंतु अपने कर्मों का विचार कर अभिग्रह किया कि जब तक यह कलंक नहीं उतरेगा, तब तक मैं कायोत्सर्ग नहीं पारूंगा। कायोत्सर्ग के प्रभाव से देव ने वेगवती के मुख को श्याम व विकृत बना दिया, कोयले जैसा काला और टेढ़ा-मेढ़ा.... उसके पिताश्री यह देखकर आश्चर्यचकित हो गये... मेरी सुंदर लड़की को यह कौन-सा रोग हो गया.... " पुत्र । ! यह क्या किया ? कोई दवाई तो नहीं लगाई। कुछ उल्टा-सुल्टा तो नहीं किया !" श्रीभूतिने आश्चर्य से पुछा ।
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वेगवती ने नम्रता से जवाब दिया, पिताश्री ! और तो मैने कुछ नहीं किया, परंतु कौतुक वृत्ति से मज़ाक में लोगों को कहा कि "सुदर्शन मुनि को मैंने स्त्री के साथ देखा है।" यह सुनते ही श्रीभूति क्रोधायमान हुए कि, "अररर... यह तूने क्या किया ? जा, अभी जा और उस महान मुनि से माफी माँगकर आ...।" पिताजी के रोष से वेगवती भयभीत हो गई और प्रकट रूप से वह थर-थर काँपने लगी। उसने सभी लोगों के सामने मनि से क्षमा-याचना की और कहा कि मैंने उपहास में असत् दोषारोपण करके आपके ऊपर कलंक लगाया है। आप निर्दोष हैं। यह सुनकर लोग वापस मुनिश्री का सत्कार करने लगे। प्रकट रूप से माफी माँगने के पश्चात उसने आलोचना न ली|molorary org
क्यान मुखवाली बेगवती ने सभी लोगों की उप स्थति में सुदर्शन मुनि से माफी मांगी।
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3.71...कहीं सुना न जाए
बाद में उसने दीक्षा ली। चारित्र जीवन की सुंदर आराधना कर मृत्यु पाकर पांचवे देवलोक में गई। वहाँ से मरकर जनक राजा और विदेहा की पुत्री सीता बनी। रामचन्द्रजी की पत्नी बनने के बाद वनवास के दरमियान जंगल में रावण ने उसका अपहरण किया। भयंकर युद्ध हुआ। रावण की करूण मौत हुई। राम की विजय हुई। फिर राम, लक्ष्मण और सीता को अयोध्या में लोगों ने बड़ी खुशी से प्रवेश करवाया।
महान् सती सीताजी पर लोग झूठा दोषारोपण करने लगे कि सीताजी इतने दिन रावण के घर अकेली रही, अतः वह कैसे सती रह सकती है ? रामचन्द्रजी ने कोई परीक्षा किये बिना ही सीताजी को कैसे वापस घर में रख लिया? इन्होंने सूर्यवंश पर काला धब्बा लगाया है। इस प्रकार एक निर्दोष पवित्र आत्मा सीताजी पर झूठा कलंक आया, क्योंकि वेगवती के भव में उन्होंने आलोचना नहीं ली थी।
रामचन्द्रजी स्वयं जानते थे कि सीताजी महान् सती है, उसमें तनिक भी दोष नहीं है। फिर भी उन्होंने लोकापवाद के कारण कृतान्तवदन सारथी को बुलाया और तीर्थयात्रा के निमित्त से गर्भवती सीताजी को जंगल में छोड़ने के लिए कहा।
कृतान्तवदन जब सिंहनिनाद नामक भयानक जंगल में पहुँचा और वहाँ वह रथ से नीचे उतरा । तब उसका मुख म्लान
हो गया। आँखों से श्रावणभाद्रपद बरसने लगा, तब सीताजी ने उससे पूछा कि "आप शोकाकुल क्यों है ?" तब उसने कहा कि "इस पापी पेट के कारण मुझे यह दुर्वचन कहना पड़ रहा है कि आप रथ से उतर जाईये, क्योंकि यह रामचंद्रजी की आज्ञा है कि आपको इस जंगल में निराधार छोडकर मुझे वापस लौटना है।" रावण के यहाँ रहने के कारण लोगों में आपकी निंदा होने लगी है। इसलिए सती होते हुए भी आपको रामचंद्रजी ने लोक-निंदा से बचने हेतु जंगल में छोड़ने के लिए मुझे भेजा है।
सीताजी यह सुनते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ी; आँखें बंद हो गई, शरीर भी निश्चेष्ट-सा हो गया, सारथि जोर से रोने लगा। अरे ! मेरे वचन से एक सती की हत्या ? कृतान्तवदन असहाय होकर खड़ा रहा। इतने में जंगल की शीतहवा ने संजीवनी का काम किया । उससे निश्चेष्ट सीताजी होश में आ गई। पश्चात् सीताजी ने सारथि के साथ रामचंद्रजी को संदेश भेजा कि जिस तरह लोगों के कहने से आपने मेरा त्याग किया है, उससे आपका कुछ भी नुकसान नहीं होगा क्योंकि मैं मंदभाग्यवाली हूँ। परंतु उसी प्रकार लोगों के कहने से धर्म का त्याग मत करना। नहीं तो भवोभव बिगड़ जायेंगे।
यह सुनकर सारथि की आँखो में आँसू आ गये। उसका ह य गद्गद् हो गया... महासती के सत्य पर धन्य-धन्य पुकार उठा।
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कहीं सुना न जाए...72
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सीताजी को छोड़कर सारथि चला गया। उस भीषण जंगल में वज़जंघ राजा अपने मंत्री सुबुद्धि आदि के साथ हाथियों की शोध के लिये आये हुए थे। दूर से अकेली, अबला स्त्री को देखकर सहायता के लिये राजा अपने सिपाहियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। सीताजी उन्हें लूटेरा समझकर गहने उनकी तरफ फेंकने लगी। तब वजजंघ राजा ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि, "आप चिंता मत कीजिये। हम आपकी सहायता के लिये आये हैं। आपके भाई के समान हैं।" तब सीताजी ने सब हकीकत कही, उसके बाद वजजंघ राजा वहाँ से सीताजी को सम्मान पूर्वक सुरक्षा के लिए पुंडरीक नगरी में ले गया। वहाँ पर उसने लव-कुश दो पुत्रों को जन्म दिया। जब वे बड़े हुए, तब उन्होंने राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध किया। युद्ध में राम-लक्ष्मण आकुल-व्याकुल हो गये। इतने में नारदजी वहाँ आये | उन्होंने पिता-पुत्र का परिचय करवाया और युद्ध को रोक दिया गया। उनका सुखदायी मिलन हआ। लव
और कुश को मान-सन्मान के साथ अयोध्या में प्रवेश करवाया। बाद में रामचंद्रजी की आज्ञा को मान देकर सीताजी ने अग्नि-दिव्य किया।
रामचन्द्रजी ने सम्मानपूर्वक अयोध्या में प्रवेश करने के लिए सीताजी से कहा। सीताजी ने उसी पल आत्म-कल्याण करने हेतु स्वयं लोच कर संयम स्वीकार किया; इत्यादि बातें हम जानते हैं।
पूर्वभव में उपहास में मुनि पर कलंक का आरोपण दिया था, उसका प्रायश्चित न लेने से एक महासती के ऊपर कलंक आया और उसके कारण कितने कष्ट सहने पड़े। अतः हमें जरूर आलोचना लेनी चाहिए।
सीताजी रथ में से मुर्छित होकर गिर पड़ी।
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15 हरिश्चन्द्र को श्मशान में क्यों रहना पड़ा ?
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पूर्वभव में हरिश्चंद्र राजा ने निर्वाष मुनियों को हंटर मरवाये थे।
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कहीं सुना न जाए...74
पूर्व भव में भी हरिश्चन्द्र और तारा राजा-रानी थे। एक दिन दो मुनिवरों को देखकर रानी कामवश हो गई। उसने दोनों मुनियों को दासी द्वारा बुलवा कर हाव-भाव दिखाने शुरू किये। मेरु की तरह अड़िग मुनियों के सामने उसकी सभी मुरादें निष्फल गयी।
उसकी प्रार्थना को ठुकराते हुए मुनिवर ने उसे बहुत समझाने की कोशिश करते हुए कहा कि, "विष्टा से भरी हुई आकर्षक अस्तर वाली थैली पर मोहित होना अज्ञानता है। उसी तरह मलमूत्र से भरे पानवीय शरीर पर मोहित होना अज्ञानता है, इत्यादि अनेक तरीकों से दोनों मुनियों के द्वारा समझाने पर भी वह टस से मस न हुई। क्योंकि जिसे मोह का नशा चढ़ा हुआ हो, मोह के उल्टे चश्मे लगे हुए हो, तो सच्ची बात उसके गले कैसे उतरे ?... निराश होकर रानी ने छेड़ी हुई नागिन की तरह बदला लेने के लिये हाहाकार मचा दिया। मेरे शील के ऊपर इन दुराचारी साधुओं ने आक्रमण किया है। बचाओ ! बचाओ !
सिपाहियोंने मुनियों को पकड़कर राजा के सामने उन्हें खड़े किये।
राजा की आँखों में से अग्नि की ज्वाला बरसने लगी। अरे... रे.. ऐसी नीचवृत्तिवाले ये साधु हैं। जाओ... कोड़े (हन्टर) मार-मार कर इनको अधमरा बना दो..... और कारागार में डाल दो ! इनको रोज के १००-१०० कोड़े मारना।
एक महीने के बाद राजा को वस्तु स्थिति मालूम पड़ने पर उन्हें जेल से मुक्त कर दिया। राजा व रानी ने क्षमा माँगी । किंतु आलोचना-प्रायश्चित नहीं लिया। अतः हरिश्चन्द्र राजा के भव में उन्हें चंडाल के घर पर १२ साल तक स्मशान में काम करने के लिए रहना पड़ा तथा तारा रानी पर राक्षसी होने का कलंक आया व पुत्र रोहित का वियोग हुआ।
ये सारे कष्ट उन्हें पूर्वभव में किए हुए पापों की आलोचना-प्रायश्चित न लेने से आए। यह जानकर हमें भी आलोचना-प्रायश्चित लेना चाहिए।
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75...कहीं भुना ज जाए
16 आलोचना न लेने से दुःखी बने श्रीपाल राजा
श्रीपालजी पूर्वभव में श्रीकान्त नाम के राजा थे। एक दिन नगर से मलिन वस्त्र वाले मुनिश्री को देखकर तिरस्कार भरे शब्दों में फटकारते हुए उन्होंने मुनि से कहा कि तुम कोढ़ी हो।
दूसरी बार श्रीकान्त राजा ने नदी के किनारे कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े हए मुनि के प्रति तिरस्कार करते हए उनको पानी में डुबकी लगवाई। मुनि ने तो उपसर्ग जानकर समभाव से सहन कर किया, परंतु श्रीकांत को कर्म का बंध हो गया।
श्रीकांत राजा ने इन दोनों पापों की आलोचना न ली, इसलिये दूसरे भव में श्रीपालजी को कोढ़ रोग हुआ। उस कर्म को भुगतने के बाद पानी में डुबाने का कर्म उदय होने पर धवल सेठ ने उन्हें समुद्र में गिराया, परन्तु वहाँ पर नवपद के ध्यान के प्रताप से मगरमच्छ की पीठ पर गिरने के कारण बच गये।
प्रायश्चित न लेने के फल बहुत दुःखदायी होते हैं। अतः छोटे-से पाप की आलोचना भावपूर्वक लेनी चाहिए।
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कहीं मुनसा न जाए...76
ICT
वसुदेव की पत्नी देवकी के जीव ने पूर्व भव में सौतन के सात रत्न चुराये थे। मगर जब सौतन बहुत आकुल-व्याकुल हुई, तब दया से आर्द्र होक उसने एक रत्न किसी तरह वापस दे दिया। इस पोरी की आलोचना देवकी के जीव ने नहीं ली। उसके बाद वही जीव आगे जाकर देवकी। बना।
भद्दिल ग्राम में नागिल सेठ रहते थे। उनकी धर्म त्नी का नाम सुलसा था। 'उससे मरे हुए बच्च ही जन्मेंगे,' ऐसी भविष्यवाणी एक नैमित्तिक ने की थी। इसलिए उसने हग्नैिगमेषी देव की साधना की। देव ने उसे स्पष्ट कहा कि तेरा है पुष नहीं है कि तुझसे जीवित संतान जन्म पाये, इसलिए मैं अपनी शक्ति से दूसरे के संतान त्झे अर्पण करूँगा। तू उन्हें बड़ा हरके खुद को पुत्रवती समझना । 'नामा नहीं तो काना मामा' इस कहावत के अनुसार सुलसा ने देव की बात को स्वीकार कर लिया।
की चोरी की थी।
में सौतन के ७रली
देवकी के विवाह प्रसंग पर अईमत्ता मुनि ने कंस की पत्नी चोग की जीवयशा को कहा कि "देवकी की सातवी संतति कंस का घात करेगी।
इसलिये मृत्यु से भयभीत बने हुए कंस ने देवकी के प्रथम सात संतानों को वसुदेव से प्राप्त करने की स्वीकृति प्राप्त कर उन्हें मारने का संकल्प किया, परन्तु जन्म पानेवालों का पुण्य प्रबल होने से क्रमशः जब देवकी के पुत्र जन्म पाते गये, तब हरिनैगमेषी उन्हें सुलसा के पास रख देता और सुलसा के पास से मरी हुई संतानें देवकी के पास रख देता। ____ कंस उन मुर्दो पर छुरी चला देता और खुश होता। इस प्रकार छः संतानों का वियोग देवकी को हआ। बाद में उन छ: संतानोंने नेमिनाथ भगवान के वचन से प्रतिबोध पाकर दीक्षा ली। देवकी से जब सातवीं संतान कृष्णजी जन्म पाए, तब वसुदेव ने उन्हें यशोदा को सौंपा और उसकी लड़की देवकी के पास रखी। कंस ने उसकी नाक काट ली। इस प्रकार छ: रत्न की चोरी का प्रायश्चित न लेने से देवकी को छ: पुत्रों का वियोग हुआ। एक रत्न वापस दिया था, इसलिये कृष्ण का थोड़े समय के लिये वियोग हुआ, परंतु बाद में स्वयं उन्हें कुछ समय बड़ा कर सकी। इससे हमें सीखना चाहिये कि ईर्ष्या अथवा लोभ से । किसी भी प्रकार की चोरी अपने जीवन में हो गयी हो, तो
अवश्य प्रायश्चित की निर्मल गंगा में स्नान करके शुद्ध और
भाररहित हो जाना चाहिये। For Personal & Private Use Only
*जीव ने पूर्वभव में
देवकी के जीव
"पस दे दिया था।
उसमें से एक
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77...कहीं मुनसान जाए
18 ठंडण कुमार और अंतराय
ढंढण कुमार का जीव पूर्वभव में
किसानों का निरीक्षक था, परन्तु जब किसानों को भोजन करने की छुट्टी का समय होता, तब
. वह किसानों से कहता कि "एक-एक चक्कर मेरे खेत में काट दो, जिससे मुझे खेत जोतना न पड़े।" इस प्रकार मुफ्त में काम करवा कर उसने भोजन में अंतराय किया और इसकी आलोचना नहीं ली, तो दूसरे भव में नेमनाथ भगवान के पास दीक्षा लेकर जब वे ढंढण मुनि बने, तब उन्होंने अभिग्रह किया कि यदि मेरी स्वयं की लब्धि से आहार मिलेगा, तो ही पारणा मैं करूँगा, अन्यथा नहीं। यहाँ दूसरों को भोजन में किये हुए अंतराय के कारण बांधा हुआ अंतराय कर्म उदय में आया। शास्त्रकार ने कहा है कि, "बंध समये चित्त चेतीये रे, उदये शो संताप" अरे जीव ! कर्मों को बांधते समय विचारना चाहिये, उदय आने पर रोने से क्या फायदा... हँसते हुए बांधे कर्म रोने से भी नहीं छूटते.... छः छः महिने तक घूमे, परंतु उनको स्वयं की लब्धि से गोचरी नहीं मिली। एक दिन नेमिनाथजी ने ढंढण मुनि को सर्वश्रेष्ठ कहा, यह सुनकर आये हुए कृष्णजीने उनका रास्ते में वंदन किया, यह देखकर एक पुण्यशाली ने ढंढण मुनि को गोचरी वहोरायी। नेमनाथ भगवान ने ढंढण मुनि से कहा... अरे ढंढण ! ये तो कृष्ण महाराजा आपको वंदन कर रहे थे, इसलिये भावित होकर उसने आपको गोचरी वहोरायी है... इस प्रकार श्रीकृष्ण के प्रभाव (लब्धि) से आपको गोचरी वहोराई गयी है, अतः आपकी लब्धि से यह आहार नहीं मिला है.. स्वयं का अभिग्रह पूरा नहीं हुआ है, यह जानकर वे गोचरी परठवने गये। परठवते परठवते शुक्ल ध्यान में चढ़कर उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त किया। आहार के अन्तराय की आलोचना न ली, उससे कितना सहन करना पड़ा... इसलिये हे भविजनो !
आलोचना अचूक लेनी चाहिये।
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हंढणकुमार का जीव निरीक्षक किसानों को कहता है, कि मेरे खेत में एक-एक चक्कर लगाकर फिर भोजन करना | inelibrary org
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79...कहीं सुनसा न जाए
19 दौपदी को पांच पति मिले...
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सकुमालिका नाम की साध्वीजी जंगल में वैशाख महिने के दिनों में आतापना लेती थी, यानी कड़ी धूप सहन करती थी। इतने में वहाँ पाँच व्यक्ति एक वेश्या को लेकर आये और वे उसके भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श करते करते उसके साथ क्रीड़ा करने लगे। ... अरे ! कामान्ध लोग लाज-शरम को भी छोड़ देते हैं... इस दृश्य पर साध्वीजी की नज़र गिरी और वह भान भल गयी। और उस समय सुकुमालिका ने नियाणा किया यानी इस धर्म के बदले में अगले भव में पांच पति की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प किया। उसकी आलोचना नहीं ली।
सुकुमालिका मर कर जब द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी बनी, तब उसने राधावेध को साधने वाले अर्जुन के गले में वरमाला डाली, परन्तु दिव्य प्रभाव से पाँचों पांडवों के गले में वह माला दिखाई दी। द्रुपदराजा चकित हो गये। अरेरे ! यह क्या? इतने में आकाशवाणी हई कि जो हआ है, वह बराबर है, फिर वहाँ चारण मुनि आये
और समस्या का हल निकाला कि जिस दिन जिसकी बारी होगी, उसके अलावा दूसरे को मन से भी वह नहीं इच्छेगी, जो अत्यंत कठिन कहलाता है।
___ सुकुमालिका ने आलोचना नहीं ली, इसलिये यह आश्चर्यकारी घटना बनी अर्थात् वह पाँचों पांडवों की पत्नी बनी, नहीं तो विचारों की आलोचना के प्रायश्चित में कोई मासक्षमण नहीं करने पड़ते, परंतु जीव अहंभाव से आलोचना लेने का टाल देते हैं। जिससे भवांतर में उसके जीवन में भयंकर अनहोनियाँ बनती है। दुःख की रामायण और महाभारत में जीवन धूलधानी हो जाता है। करुण चीखें और वेदना से भरे हुए आँसुओं के अलावा कुछ नहीं रहता। इसलिये ज्ञानी भगवंत कहते हैं कि, अरे ! भाई चेतिये.... बाजी अभी भी अपने हाथ में है। प्रायश्चित से जीवन की काली किताब को धो दीजिये।
मालिका, अम निषेध होते हुए भी गांव के बाहर
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881...कहीं सुना न जाए
20 ईर्ष्या की आलोचना न ली...
ईर्ष्या एक ऐसी आग है, जो सामने वाले व्यक्ति को कुछ नहीं कर सकती, परंतु व्यक्ति स्वयं ही उस आग में जल-जलकर खाख हो जाता है। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी साधुओं की सच्ची भक्ति और वैयावच्च करने वाले पूर्व में चक्रवर्ती के पुत्र बाहु-सुबाहु मुनि के वैयावच्च गुण की एक दिन गुरुदेवश्री ने अनुमोदना की। तब पीठ व महापीठ के दिमाग में उनके प्रति ईर्ष्या खड़ी हई। ये दोनों वैयावच्च में पानी लाना, गोचरी लाना, पाँव दबाना इत्यादि.... शारीरिक श्रम (मजदूरों का काम) करते हैं और गुरुदेवश्री इनकी प्रशंसा करते हैं। हम शास्त्रों में कितना बौद्धिक श्रम करते हैं? उसका महत्त्व कोई गिनती में ही नहीं । इस प्रकार दोनों मुनियों के दिमाग में ईर्ष्याभाव खड़ा हुआ। परंतु यह नहीं सोचा कि, अरे भाई! समय-समय पर सब की कीमत होती है, लेकिन यह बात समझे कौन? उनका मन तो ईर्ष्या की आग में जल रहा था।
सुबाहु मुनि मुनिओं के पाँव दबा रहे हैं। २) ५०० साधुओं की सेवा (विश्रामणा) करने वाले वैवावच करने वाले वाह मुनि गुरुदेवश्री को गौचरी बता रहे हैं। ०० साधुओं की गोचरी आदि द्वारा
इस प्रकार उस ईर्ष्या की आलोचना न ली, तो अगले भव में ब्राह्मी व सुन्दरी के स्वरूप में उन्हें स्त्री बनना पड़ा। और बाहु-सुबाहु, भरत-बाहुबली बने । इसलिये आलोचना शुद्धि सब को करनी चाहिये।
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21 अंजनासुन्दरी दुःखी क्यों हुई ?
एक राजा की दो पत्नियाँ थी। लक्ष्मीवती और कनकोदरी । लक्ष्मीवती रानी ने अरिहंत परमात्मा की रत्नजड़ित मूर्ति बनवाकर अपने गृहचैत्य में उसकी स्थापना की। वह उसकी पूजा - भक्ति में सदा तल्लीन रहने लगी। उसकी भक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। "धन्य है रानी लक्ष्मीवती को, दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।"
यह रानी तो सुख में भी प्रभु सुमिरन करती हैं, धन्य है !!' बच्चे, बूढे, नौजवान सभी के मुँह पर एक ही बात - धन्य है रानी लक्ष्मीवती, धन्य है इसकी प्रभु भक्ति । लोक में कहा जाता है कि जिसको ज्वर चढ़ जाता है, उसे अच्छे से अच्छा भोजन भी कडवा लगता है। रसगुल्ला खिलाओ, तो भी वह व्यक्ति थू..... थू करेगा । ईर्ष्यालु व्यक्ति की यही दशा होती है। रानी कनकोदरी के अंग-अंग में ईर्ष्या का बुखार व्याप्त हो गया। अपनी सौतन की प्रशंसा उससे सहन नहीं हो पाती थी। 'लोग मेरी प्रशंसा क्यों नहीं करते?' यह बात वह निरन्तर सोचती रहती थी। 'तू भी धर्म कर, तू भी परमात्मा की पूजा-सेवा कर। अरे ! उससे भी बढ़कर लोग तेरी प्रशंसा करेंगे।' 'मैं करूँ या नहीं करूँ, मगर लक्ष्मीवती की प्रशंसा तो होनी ही नहीं चाहिये।' इस प्रकार के विचारों की आंधी कनकोदरी के दिल और दिमाग में ताण्डव नृत्य मचाने लगी। देखिये ! ईर्ष्या की आग, ईर्ष्या की धुन कैसी-कैसी भयंकर विपदाएं खड़ी कर देती हैं? कनकोदरी ने निर्णय लिया "मूलं नास्ति कुतः शाखा'' जब बाँस ही नहीं रहेगा, तो बांसुरी बजेगी कैसे? लोग इसकी प्रशंसा करते हैं आखिर क्यों? मूर्ति हैं इसलिये न ! मूर्ति है, इसलिय वह पूजा करती है, जिससे लोग प्रशंसा करते हैं और मुझे जलना पड़ता हैं। यदि मूल ही काट दिया जाये, तो बस, चलो छुट्टी! और वह सक्रिय हो उठी। ईर्ष्या से अन्धी बनी हुई कनकोदरी एक भयंकर कृत्य करने के लिये तत्पर हो गयी। अत्यंत गुप्त रीति से वह गई गृहमंदिर में और परम कृपालु परमात्मा की मूर्ति को उठाकर डाल दी... अहा...हा ! कूड़े करकट में... अशुचि स्थान में... अरे ! ऐसी गंदगी में जहाँ से भयंकर बदबू ही बदबू आ रही थी। मगर उस अज्ञानान्ध, ईर्ष्यान्ध स्त्री को इस बात का दुःख तो दूर, लेकिन अपार हर्ष था, अपनी नाक कटवा कर जैसे दूसरों के लिये अपशुकन करने का अनहद आनन्द हो । ओह!...' हंसता ते बाँध्या कर्म, रोतां ते नवि छूटे रे। जैसा कर्म करेगा बंदे, वैसा ही फल पायेगा। काश ! कनकोदरी यह जान पाती !!
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कनकोदरी ने भगवान की प्रतिमा को अशुचि स्थान में डाल दिया।
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83...कहीं सुलझा न जाए
22 रानी कुन्तला पूरे राज्य में हाहाकार मच गया। तहलका ।
कुन्तला रानी ने अपनी सौतों को जिनभक्ति वगैरह सिखाई थी। मगर वे कुन्तला से आगे बढ़ मच गया....चोरी....चोरी !! रानी | गई। कुन्तला के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई कि मैंने ही सब को धर्म बताया था और ये सभी रानियाँ मुझसे भी लक्ष्मीवती की आँखें रो....रो कर सूज । धर्म में आगे निकल गयी ! अगर वे आगे बढ़ भी गयी, तो तेरे घर का क्या जाता हैं? वे करती तो धर्म की गयी। हाय ! मेरे परमात्मा को कौन उठा । क्रिया ही हैं न नहीं... वे करें उसके लिये मना नहीं, परंतु वे मेरे पीछे होनी चाहिये। अपनी पंक्ति को बड़ी ले गया? साध्वी जयश्री को इस बात का । करने के बदले. दसरों की पंक्ति को मिटा देना, ऐसी ईर्ष्यावृत्ति की आलोचना न लेने के कारण कुन्तला को राज मिल गया। उन्होंने कनकोदरी को ।
। दूसरे भव में कुत्ती का जन्म मिला। इस जन्म में और करना भी क्या ? सिर्फ भोंकते ही रहना... समझा-बुझा कर परमात्मा की पुनः । स्थापना तो करवा दी। लेकिन किसी की ये पंक्तियाँ कितनी सुंदर हैं, कुत्ते की ईर्ष्यावृत्ति के ऊपर... पूर्ण चंद्रबिंब आकाश में से कनकोदरी ने इस कत्य की विधिवत । चांदनी बरसाता हुआ उगा और पूरी नगरी धवल बन गयी। परंतु उसके इस प्रकाश से नगरी के सारे कुर आलोचना नहीं ली। इसलिये उसे इस | जाग उठे और भोंकने लगे। लेकिन कुत्ता कितना भी भोंके और कितनी बार भी भोंके अमीछींटा बरसात कृत्य का भयंकर परिणाम भुगतना पड़ा । हुई चांदनी क्यों प्रकाश देना बंद करे ? उसको प्रकाश देता हुआ चंद्रबिम्ब जैसे-जैसे देखे, वैसे-वैसे कुत्त अंजना सुंदरी के भव में । अंजना सुंदरी । को ज्यादा से ज्यादा चानक चढ़ती । अर्थात् कुत्ते सारे भोंकने ही लगे... भों!... भों!... यह तो चला ! को पति-वियोग में बाईस वर्ष तक । लेकिन उसके भोंकने से तारे टूट कर गिरने वाले नहीं। तारों का काम तारा करता है और कुत्ते का काम रो...रो...कर व्यतीत करने पड़े। पूर्व भव । कुत्ता करे। तारा कभी भी फ़रियाद नहीं करता, अरे ! तुझे भोंकना हो, तो भोंक ना... हमें देख-देखकर में वसन्ततिलका ने उसके इस अपकृत्य । क्यों भोंकता है। तारे तो टिमटिमाने ही वाले हैं और कुत्ते तो भोंकते ही रहेंगे। यह ईर्ष्यावृत्ति उसके खून में का अनुमोदन किया था, अतः उसे भी । ही होती है। अंजना के साथ दुःख सहने पड़े। यदि । हम किये गये पापों की आलोचना नहीं ।
दूसरे ईर्ष्या करे, तो क्या अपने को भी ईर्ष्या ही करनी ? नहीं कभी भी नहीं, अपने को तो चांदनी करते हैं और प्रायश्चित लेकर शद्ध नहीं । की तरह प्रसन्न रहना चाहिये। दूसरे के पास तीन बंगले हैं, चार मारूती हैं और अपने को तो एक के भी बनते हैं, तो उसका अति भयंकर । फाँफे पड़ रहे हैं, तो क्या ईर्ष्या करनी? नहीं, कदापि नहीं। दूसरे रोज बदाम का सिरा खाते हो और आने परिणाम भुगतना पड़ता है, जैसे अंजना । को पेट की भूख मिटाने के लिये रोटी भी मुश्किल से मिलती हो। तब क्या ओरों की ईर्ष्या करनी चाहिए? सन्दरी की जिन्दगी के वे वियोग भरे वर्ष । नहीं... ध्यान रखना, अगर ऐसी छोटी-सी भी ईर्ष्या हो गयी हो, तो गुरु भगवंत के पास आलोचना ना आँसू की कहानी बन कर रह गये। मत भूलना। नहीं तो कुन्तला से भी बुरा हाल अपना होगा और फिर कुत्ते बनकर करना भी क्या ? नहीं
सामायिक या नहीं पौषध, सिर्फ भोंकते ही रहना... भों...! भों...! भों...!
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कहीं मुनसा न जाए...84
23 भगवान महावीर स्वामी के जीव ने, प्रायश्चित न लिया तो...
त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में एक रानी का तिरस्कार किया और शय्यापालक नौकर के कान में गरमागरम जस्ता डलवाया। उसकी आलोचना नहीं ली... जिससे रानी के जीव ने तीर्थंकर के भव में कटपुतना के रुप में भयंकर शीत उपसर्ग किया और शय्यापालक के जीव ने किसान बन कर प्रभु के कान में खीले ठोके।
24 हरिकेशीबल उत्पन्न हुए चंडालकुल में...
त्रिपृष्ठ वासुदेव शय्यापालक के कान में गर्मागर्म जस्ता डलवाता हैं।
सोमदेव पुरोहित ने दीक्षा लेने के बाद कुल का अभिमान किया था, परंतु उसने कुल के अहंकार की आलोचना न ली, जिससे नीच गोत्र कर्म का बन्ध हुआ। उस कर्म के उदय से चंडालकुल में जन्म लेना पड़ा। लेकिन पूर्व भव में सोमदेव के जीव ने दीक्षा लेने के बाद विशेष आराधना करके बहुत सारे कर्मों की निर्जरा की थी, इसलिये थोड़े कर्म शेष रहने के कारण हरिकेशीबल के भव में चरम शरीरी के रूप में जन्म प्राप्त किया था। पूर्वभव में आराधना के संस्कारो के कारण हरिकेशीबल के भव में दीक्षा लेकर शुक्लध्यान पर चड़कर केवलज्ञानी बन कर मोक्ष में गये, परंतु आलोचना न ली, इसलिये एक बार तो कर्म राजा ने उन्हें चंडाल के भव में फेंक दिया।
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१) कलावती रानी ने पूर्वभव में तोते के दोनों पंख काटे थे। २) जिससे उसको अपनी दोनों कलाइयाँ कटवानी पड़ी।
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कहीं सुनसा न जाए...86
25 कलावती की कलाईयों का छेदन किया गया...
कलावती रानी पूर्वभवमें तोते के दोनों पंख को काटकर खुश हई थी, उसकी आलोचना नहीं ली। उसके बाद क्रम से तोते का जीव राजा बना, उसकी रानी कलावती बनी। एक दिन अचानक रानी के हाथ में कंकण (हाथ के आभूषण) पहने हुए देखकर दासीने पूछा कि, "ये कहाँ से आये?" रानी ने जवाब दिया, "जो हमेशा मेरे मनमें रहता है और जिसके मन में सदा मैं रहती है, रात-दिन जिसे मैं भूला नहीं पाती, जिसको देखने से मेरे हर्ष का कोई पार नहीं होता, उसने ये भेजे हैं।" ऐसे वचन गुप्त रीति से सुनकर राजा शंका में पड़ गया कि क्या रानी दुराचारिणी है? जिससे मेरे अलावा किसी दूसरे में उसका मन है, जिसने ये गहने भिजवायें हैं। राजा क्रोध से आगबबूला हो गया और सिपाहियों को कहा कि गर्भवती रानी को जंगल में ले जाओ और कंकण सहित कलाईयों को काटकर ले आओ। सिपाही रानी को जंगल में ले गये। वे कलाईयां काटकर ले आये। रानी ने पुत्र को जन्म दिया कि तुरंत ही महासती के शील के प्रभाव से देव ने दोनो हाथों को ठीक कर दिया और महल बना कर जंगल में मंगल कर दिया।
राजा ने कंकण पर जब रानी के भाई जय-विजय के नाम देखे, तब राजा को बहुत अफ़सोस हुआ और किसी भी तरह खोज करवा कर रानी को मान-सन्मान पूर्वक ले आये। केवलज्ञानी भगवान को पूछने पर पूर्वभव में तोते के पंख काटने का यह फल मिला है। यह जानकर पुत्र को राज्य अर्पण कर राजा-रानी दोनों ने संयम ग्रहण किया। फिर २१वें भव में कर्मो का क्षय कर रानी कलावती की आत्मा मोक्ष में गई। पूर्वभव में आलोचना न ली, तो कलाईयां कटवानी पडी। इसलिये आलोचना लेने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं रखना चाहिये।
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87... कहीं सुरक्षा न जाए
26 अंडे लिये हाथ में....
रानी ने कौतुक से मोरनी के अंडो को हाथ में लिया।
१६ घडी अर्थात् ६ घंटे २४ मिनिट के बाद बारिश से धुले हुये अंडो को मोरनी ने पोसा।
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रूक्मिणी का जीव एक भव में राजा की रानी थी। राजा-रानी बगीचे में घूमने गये। वहाँ मोरनी ने अंडे रखे थे। रानी ने कौतुक से मोरनी के अंडे हाथ में लिये और ... उसके हाथ कुंकुमवाले होने से अंडे कुंकुमवर्ण वाले हो गये। जिससे मोरनी ने अंडो को नहीं पोसा । १६ घड़ी यानी ६ घंटे २४ मिनिट के बाद बारिश हुई। तब अंड़े धुल जाने से मोरनी ने उनको पोसा! रानी ने उसकी आलोचना नहीं ली। इस कारण से रूक्मिणी के भव में १६ वर्ष तक संतान का वियोग हुआ । नेमिनाथ भगवान को पूछने से प्रभु ने रूक्मिणी का समाधान किया। उसके बाद दीक्षा लेकर रूक्मिणी मोक्ष में गयी।
अंडे को हाथ लगाने से १६ घड़ी का वियोग होने पर १६ वर्ष के वियोग का कर्म बंध हो गया। तो फिर अंडे और आमलेट खाने वाले को कैसा कर्मबंध होगा? और उसकी आलोचना नहीं लेनेवाले की हड्डी -पसली एक हो जायेगी । इसलिये आलोचना लेनी चाहिये ।
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कहीं मुनसा न जाए...88
27 देवानंदा के गर्भ का
अपहरण क्यों हुआ?
ज्ञान की विराधना की आलोचना नहीं ली।
पूर्वभव में देवानंदा का जीव जेठानी और त्रिशला का जीव देरानी था। देरानी की रत्नपेटी में से बहुत रत्न जेठानी ने चुरा लिये। झगड़ा होने पर जैसे-तैसे कुछ रत्न वापस दिये। देरानी ने गुस्से में आकर ऐसा कहा कि, "तुम्हारी संतान मुझे मिले।" जेठानी ने आलोचना नहीं ली। इस कारण से भवांतर में देवानंदा के गर्भ में रहे हुए भगवान महावीर स्वामी का संक्रमण त्रिशला की कुक्षि में हुआ। इस प्रकार कथा प्रचलित हैं। इसलिये चोरी की आलोचना लेने में लापरवाही नहीं करनी चाहिये।
आचार्य श्री वसुदेवसूरीश्वरजी म.सा. ने पूर्वभव में गुस्से में आकर ५०० शिष्यों को वाचना देना बंद किया। १२ दिन मौन रह कर आलोचना लिये बिना ही उनकी मृत्यु हो गयी। दूसरे भव में वरदत्त के रूप में उत्पन्न हुए। शरीर में कुष्ट रोग फैल गया। पढ़ने पर एक अक्षर भी उन्हें नहीं चढ़ता। था। फिर विजयसेनसूरीश्वरजी महाराज के पास हकीकत का पता चलने से ज्ञानपंचमी की आराधना की और तीसरे भव में मोक्ष में गये। ज्ञानविराधना की आलोचना न लेने से। कुष्ट रोग हुआ और ज्ञान नहीं चढ़ता था।
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89...कहीं सुनमा न जाए
29 देवद्रव्यमक्षण की आलोचना नहीं ली...
साकेतपुर नगर के सागर सेठ मंदिर बँधवाने का हिसाब-किताब संभालते थे। कमाई करने की लालच से दुकान में से मज़दूरों को पैसे के बदले में खुद की दुकान में से माल-मसाला देते थे। इस प्रकार १००० कांकणी अर्थात् १२.५० रुपिये की कमाई की। उसकी आलोचना न ली। जिससे अंडगोलिक मत्स्य, बीच में तिर्यंच के भव करके सातों नरक में दो-दो बार गमन, १०००-१००० भव-सूअर, बकरा, हरिण, खरगोश, जंगली मृग, लोमड़ी, बिल्ली, चूहा, छिपकली और सर्प के तथा १ लाख
विकलेन्द्रिय के भव उसके हए। उसके बाद दरिद्र मनुष्य बनकर जब ज्ञानी गुरु को पूछा, तब गुरु ने उसका कारण बतलाया। सागर सेठ के जीव ने आलोचना लेकर १००० गुना १२५०० रुपये देवद्रव्य में खर्च किये और तीर्थंकर नामकर्म बाँधकर तीसरे भव में वे मोक्ष में गये।
देवद्रव्य के भक्षण की आलोचना न ली, तो तीर्थंकर की आत्मा की भी ऐसी दुर्दशा हुई। इसलिये सत्पुरुषों को आलोचना लेने के लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।
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कहीं मुनक्षा न जाए....90
आलोचना लेने से बने चमकते सितारे
कामलक्ष्मी स्वयं के बालक को रखकर पानी भरने गई थी।
1 माता पुत्र केवलजानी बने...
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लक्ष्मीतिलक नगर में एक दरिद्र वेदसार नामक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम कामलक्ष्मी था। वेदसार ब्राह्मण के वेदविचक्षण नाम का पुत्र था। प्रतिपक्षी राजा ने लक्ष्मीतिलक नगर पर आक्रमण कर दिया। कामलक्ष्मी पानी भरने के लिए नगर के बाहर गई थी। आक्रमण के कारण नगर के दरवाजे बन्द कर दिये। अतः कामलक्ष्मी बाहर ही रह गई।
एक सिपाही उसे उठाकर राजा के पास ले गया। राजा ने उसे सौन्दर्य की मूर्ति जानकर अपनी रानी बना ली। कालान्तर में जब वेदविचक्षण बड़ा हो गया। तब उसे घर सौंप कर वेदसार ब्राह्मण अपनी पत्नी की खोज के लिये निकल पड़ा। Hain Education international
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सिपाही कामलक्ष्मी को पकड़कर राजा के पास ले गया।
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91... कहीं मुरझा न जाए
दूसरी ओर स्वपति पर अनुराग रखने वाली कामलक्ष्मी राजा की अनुमति से प्रतिदिन दान देने लगी, ताकि उसका ब्राह्मण पति उसे किसी भी तरह से याचकसमूह में मिल जाये। एक बार घूमता- घूमता वेदसार ब्राह्मण वहाँ दान लेने आया। कामलक्ष्मी ने उसे पहचान लिया। पास में बुलाकर उसको स्वयं का परिचय दिया और उसके साथ भाग जाने के लिये एक योजना बनाई और कहा कि सातवें दिन मैं चंडीदेवी के मन्दिर में रात को आऊँगी। आप भी वहाँ आ जाना। वहाँ से हम दोनों इष्ट स्थान पर चले जायेंगे।
रानी ने राजा के गले पर तलवार से प्रहार किया।
इसके बाद रानी ने पेटदर्द का बहाना बनाया। अनेक वैद्य आये, परन्तु कोई फर्क नहीं पड़ा। तब कामलक्ष्मी ने राजा से कहा- मैंने एक बार आपकी बीमारी के समय मन्नत (मानता) की थी कि "हे चंडीदेवी! यदि यह वेदना मिट
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गई, तो मैं और राजा दोनों काली चौदस के दिन तेरे पूजन के लिए आयेंगे ।" उसी समय आपकी वेदना शांत हो गई थी। परन्तु बाद में मैं पूजन हेतु जाना भूल गई । अतः हे
राजन् ! आने वाली काली चौदस को पूजा करने हेतु चलने क निर्णय कर लीजिये । इसे सुनने के बाद राजा द्वारा निर्णय करने पर वेदना शांत हो गई। इस प्रकार का दिखावा कामलक्ष्मी न किया। चौदस के दिन घोड़े पर बैठकर राजा-रानी पूजा का सामान लेकर चंडीदेवी के मन्दिर की ओर रवाना हुए। चंडीदेवी के मन्दिर पर पहुँच कर घोड़े से उतर कर राजा व रानी चंडी देवी के मन्दिर की ओर चलने लगे। राजा मन्दिर के बाहर तलवार रखकर मन्दिर के दरवाजे पर माथा झुकाकर ज्यो ही प्रवेश कर रहा था, इतने में पीछे से रानी ने तलवार उठाकर राजा के गले पर प्रहार कर दिया। राजा का मस्तक धड़ से
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अलग हो गया। कामलक्ष्मी ने अन्दर दीपक के प्रकाश में जाकर देखा, तो वेदसार ब्राह्मण को सर्प ने डस लिया था। उसका शरीर नीला हो गया था। उसके प्राण पंखेरू उड़ गये थे। रानी ने विचार किया कि
'अब क्या करूँ, यदि राजभवन
मे लौटूंगी, तो राजहत्या का आरोप शायद मुझ पर आ जायेगा।" अतः रानी घोड़े पर बैठकर जंगल में भाग गई। भागते-भागते एक नगर में माली कि घर घोड़े को खड़ा कर स्वयं
एक मन्दिर में गई। वहाँ बाजे
ज रहे थे। अलंकार और श्रृंगार से सज्जित एक नारी को देखकर एक स्त्री ने उससे पूछा- तुम कौन कामलक्ष्मी बेश्या के वहाँ उसका पुत्र वेदविक्षण आया। हो ? कहाँ से आयी हो? किस की अतिथि हो ? उसने असत्य का जाल बिछा कर कहा कि मैं अपने पति के साथ ससुराल जा रही थी। बीच में चोर मिले और उन्होंने मेरे पति को मार
डाला। मैं किसी प्रकार से बच कर यहाँ आई हूँ । यहाँ मेरा
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कहीं मुरझा न जाए... 92
कोई नहीं हैं ! मैं निराधार हूँ। ये बातें सुनकर उस स्त्री ने मायावी वचनों से कामलक्ष्मी को आकर्षित किया और अपने घर ले गई। वह स्त्री एक वेश्या थी। उसने कामलक्ष्मी को भी गीत नृत्य आदि कलायें सिखाकर वेश्या बना दी।
एक दिन वेदविचक्षण ने विचार किया कि मेरी माता की तलाश में पिताजी गये थे। माताजी तो आई नहीं, परन्तु पिताजी भी नहीं आये। क्या कहीं वे भी खो गये ? क्या हुआ ? मैं उनकी तलाश करने जाऊँ । यह विचार करके युवक वेदविचक्षण घर से निकला ।
घूमते-घूमते वह उसी वेश्या के यहाँ आया और वहाँ फँस गया। कुछ समय बीतने के पश्चात् धन समाप्त हो जाने पर वह वेश्या का घर छोड़कर जाने लगा, तब उसने वेश्या को स्वयं का परिचय दिया। उसे सुनकर कामलक्ष्मी को मन में खूब दर्द हुआ।
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93...कहीं मुनमा न जाए साथ दैहिक संबंध कर लिया।
दुःख रूप नहीं लगता। जैसे उसकी सज़ा यही है कि, मैं
बड़ा ऋण हो जाय, तो छोटा जाज्वल्यमान चिता में जलकर भस्म
ऋण, ऋण रूप में नहीं हो जाऊँ।" यह बात प्रधान वेश्या
सताता।" उसने बगीचे में दोडने के कारण एक ची का पानी का मटका फूट गया, वह गती है। को मालूम हुई। उसने कामलक्ष्मी को और दूसरी कामलक्ष्मी का दही का मटका फुट गया, तो भी वह हंसती है,
बैठकर स्वजीवनी सुनाई। वह
पूछने वाला पुरोहित और कोई स्वस्थ हुई। तब ग्वाले ने उसे अपनी
नहीं, उसका ही पुत्र वेदविचक्षण पत्नी बना ली।
था। सारा वृत्तांत सुनकर उसको एक बार वह मटका भर कर मार्मिक चोट लगी। अरर ! यह दही बेचने गई। उसके साथ एक
मैंने क्या किया ? माता के साथ दूसरी स्त्री पानी का मटका भरकर संभोग ! धिक्कार हो मेरी विषय गोवालने डूबती हुई कामलक्ष्मी को पकड़कर बाहर निकाला।
चली आ रही थी, उनके पीछे हाथी वासना को। मां बेटे दोनों खूब समझाया, परन्तु वह न मानी। दौड़ता हआ आ रहा था। दोनों करूणा के भंडार तुल्य पूय
उसने नदी के बीच में चिता जलाई स्त्रियां घबराहट से दौड़ने लगी। गुरुदेव से आलोचना-प्रायश्चित्त कोमलक्ष्मी नदी के बीच चिता जलाकर और उसमें कूद पड़ी। संयोग से उसी इतने में उनके मटके फूट गये। पानी
लेकर चारित्र स्वीकार कर उसमें कूदने जा रही थी कि उतने में
समय भारी बरसात आ गई और का मटका जिसका फटा था. वह रोने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जोरदार बारिश हुई व नदी में बाढ़ आ गई।
चिता बुझ गई। नदी में बाढ़ आने से लगी और दही का मटका जिसका गये। जिस प्रकार हृदय में वह युवक तो चला नदी के प्रवाह में कामलक्ष्मी बह गई। फूटा था, वह हँसने लगी। एक
| किसी भी प्रकार का शल्य या गया। उसके बाद कामलक्ष्मी एक ग्वाले की नज़र नदी के प्रवाह में पुरोहित आकर उसके हँसने का शरम रखे बिना शुद्ध भाव से के मन में विचार आया कि बहती हुई उस पर पड़ी और उसने कारण पूछने लगा, तब उसने कहा- आलोचना लेकर माता-पुत्र "अरर ! यह मैंने भयंकर भूल उसको खींच कर बाहर निकाली। "मैं किस-किस दुःख को रोऊँ, शुद्ध बने। उसी प्रकार अपने की हैं, अरर ! मैंने पुत्र के अनेक उपचार करने पर कामलक्ष्मी बहत दुःख आ जाने से थोडा दःख, को भी लज्जा रखे बिना युद्ध
आलोचना लेनी चाहिए।ary cary
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कहीं मुरझा न जाए...94
संता के अत्यंत राग से पुष्पकेतु राजा ने प्रजा की सभा बुलाकर, उस, कपट से पुत्री का विवाह पुत्र के साथ करने की अनुमति प्राप्त की।
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आलोचना-प्रायश्चित्त लेका शुद्ध बनी हुई पुष्पचूला...
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पुष्पभद्र नगर में पुष्पकेतु नाम का राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उसने पुष्पचूल और पुष्पचूला नाम के युगल को जन्म दिया। पुष्पचूल और पुष्पचूला परस्पर अत्यन्त प्रेम से बड़े हुए। दोनों एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे। अब राजा विचार करने लगा कि यदि पुत्री पुष्पचूला का विवाह अन्यत्र करूँगा, तो दोनों का वियोग हो जाएगा। अतः उसने प्रजाजनों की सभा बुलाई। सभा में पुष्पकेतु राजाने प्रश्न किया कि अगर मेरी धरती पर रत्न उत्पन्न हो जाये, तो उसे कहाँ जोड़ना, यह अधिकार किसका है? प्रजा ने उत्तर दिया कि, उत्पन्न हुए रत्न को जोड़ने का अधिकार आपको ही है। राजा ने घोषणा की-कि मैं इस पुत्ररत्न व पुत्रीरत्न को शादी द्वारा जोड़ता हूँ। इस प्रकार कपट से प्रजाजनों की सम्मति लेकर उनका परस्पर विवाह कर दिया। इस प्रकार के अन्याय से पुष्पवती के हृदय को गहरी चोट लगी। वैराग्य आने से उसने दीक्षा ले ली। मर कर देव बनी। पुष्पकेतु राजा भी कालांतर में परलोक में चला गया । .vate use only
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95...कहीं सुनसान जाए
भाई-बहन पति-पत्नी बन कर काल व्यतीत करने लगे। इतने में तो उस देव (मातुश्री के जीव) ने अपने अवधिज्ञान से देखा और मन में विचार किया कि ये दोनों पूर्वभव में मेरे पुत्र-पुत्री थे और अब इस प्रकार के अनैतिक वैषयिक पाप से वे नरक में जायेंगे। अतः उनको सन्मार्ग पर लाने के लिए उस देव ने पुष्पचूला को रात्रि में नरक का स्वप्न दिखाया। उससे भयभीत बनी हुई पुष्पचूला ने सुबह जाकर राजा से बात कही। राजा ने नरक का स्वरूप जानने के लिए अन्य दर्शनों के योगियों को बुलाया। उन्होंने कहा-“हे राजन् ! शोक, वियोग, रोग आदि की परवशता
पुष्पचूला को देव ने स्वप्न में नरक का दृश्य दिखाया। ही नरक का दुःख है।" पुष्पचूला ने कहा- "मैंने जो नरक का स्वप्न देखा है, वह ऐसे दुःखों से सर्वथा भिन्न है, वैसे दुःखों का तो अंशमात्र भी यहाँ नहीं दिखता है।' तब जैनाचार्य अर्णिकापुत्र को बुला कर पूछा। उन्होंने यथावस्थित जैसे दुःख रानी ने स्वप्न में
OPEOOOOOननननन-CG देखे थे, वैसे ही सातों नरक के भयंकर दुःखों का वर्णन किया।
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उसके बाद देव ने देवलोक के सुख का स्वप्न दिखाया। पुष्पचूला ने दूसरे दर्शनकारों को बुलाकर उन्हें देवलोक का स्वरूप पूछा। वह सत्य जान न पायी । पुनः अर्णिकापुत्र आचार्य को बुलाकर पूछा, तो उन्होंने देवलोक का स्वरूप वैसा ही बताया, जैसा कि पुष्पचूला ने स्वप्न में देखा था। इससे वैराग्य पाकर चारित्र लेकर आलोचना- प्रायश्चित आदि से निरतिचार चारित्र का पालन कर वैयावच्च से उसी भव में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गई। यहाँ विशेष विचारने जैसा हैं कि कारणवश भाई-बहन पति-पत्नी बन गये, परन्तु आलोचना प्रायश्चित करके चारित्र ग्रहण कर पुष्पचूला मोक्ष तक पहुँच गई। अतः हमे भी स्वयं को शुद्ध बनाने के लिए प्रायश्चित लेना चाहिए। हमने ऐसे घोर पाप तो किये ही नहीं हैं, अतः डरने का कोई कारण नहीं है। कदाचित् भयंकर पाप कर भी दिये हो, तो भी डरने की क्या आवश्यकता ? प्रायश्चित लेने से उनकी आत्मा शुद्ध हो गई, तो क्या हमारी आत्मा शुद्ध नहीं होगी ? अरे जीव ! पाप करते हुए नहीं डरा, तो पापों की शुद्धि करने से क्यों डरता है ?
पुष्पचूला को देव ने स्वप्न में देवलोक का दृश्य दिखाया।
कहीं मुरझा न जाए.... 96
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97. कहीं मुरझा जाए
3 नमो नमो खंधक महामुनि
जितशत्रु राजा और धारिणी के पुत्र खंधक कुमार पूर्वभव में चीभड़ी की छाल निकालकर खुश हुआ था कि "कितनी सुंदर छाल उतारी है?" इस प्रकार छाल उतारने का कर्मबंध हो गया। उसके पश्चात् उसकी आलोचना नहीं ली। क्रम से राजकुमार खंधक बने। फिर धर्मघोष मुनि की देशना सुनकर राज्य-वैभव छोडकर संयम लिया राजकुमार में से खंधक मुनि बने । चारित्र लेने के पश्चात् बेले-तेले वगेरे कठोर तपश्चर्या कर काया को कृश दिया। एक दिन विहार करते-करते खंधक मुनि सांसारिक बहनबहनोई के गाँव में आये। राजमहल के झरोखे में बैठी हुई बहन की नज़र रास्ते पर चलते मुनि के ऊपर पड़ते ही विचार करने लगी, ''कहाँ गृहस्थावास में मेरे भाई की गुलाब-सी
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काया और कहाँ आज तप के कारण झुर्रियाँ पड़ी हुई काले कोयले जैसी काया ।
अरे ! चलते-चलते हड्डियाँ खडखड़ाती हैं। इस प्रकार अतीत की सृष्टि में विचार करती हुई भावावेश में आकर वह जोर-जोर से रोने लगी। मुनि पर दृष्टि और रुदन देखकर पास में बै हुए राजा ने सोचा कि, "यह संन्यासी इसका पहले का कोई यार पुरुष होगा, अब उससे देहसुख नहीं मिलेगा, इसलिये रानी रो रही होगी ।
तप से कृश हुए शरीर के कारण अपना साला होते हुए भी राजा मुनि को पहचान न पाया और जल्लादों को कह दिया कि, जाओ... उस मुनि की जीते जी चमड़ी उतार कर ले आओ। जल्लादो ने मुनि को कहा कि "हमारे राजा की आज्ञा है कि आपके शरीर की चमड़ी उतारनी है। उन पर क्रोध न करके मुनि आत्म-स्वरुप का विचार करने लगे कि देह और कर्म से आत्मा भिन्न है। चमड़ी तो शरीर की उतारेंगे, इससे मेरे कर्मो की निर्जरा होगी, कर्मनिर्जरा करने का ऐसा अपूर्व अवसर फिर कब आयेगा ? इस प्रकार मन में सोचकर जल्लादों को कहा कि, "अरे भाई ! तपश्चर्या करने से मेरा शरीर खुरदरा हो गया है। इसलिये तुझे तकलीफ़ न हो, इस प्रकार मैं खड़ा रहूँ।" मुनि का कैसा उत्तम चिंतन ? अपनी तकलीफ़ का विचार न करके जल्लादों की तकलीफ़ का विचार करने लगे। अब आप ही सोचिये कि, "जिसकी चमड़ी उतर रही हो, उसे तकलीफ़ ज्यादा होती है या जो चमड़ी उतार रहा हो, उसे ज्यादा होती है? समताभाव में ओतप्रोत मुनि ने राजा के जल्लादों पर जरा भी द्वेष नहीं किया। चार का शरण स्वीकार कर, काया को वोसिरा कर मुनि शुक्लध्यान पर मुनि चढ़ गये। चड़-चड़ चमड़ी उतरती गयी और मुनि शुक्लध्यान में आगे बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चले गये। पास में रही हुई मुहपत्ति खून से लाल
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कहीं मुनझा न आए....98
प्रायश्चित से अरणिककुमार की आत्मशुद्धि...
हो गयी। माँस का टुकड़ा समझकर चील उसे लेकर आकाश में उड़ने लगी। संयोगवश वह मुहपत्ति राजमहल में रानी के आगे है गिरी। मुहपत्ति को देखकर रानी ने नौकरों के पास जाँच करवाई, तब पता चला कि राजा ने ही हुकुम करके तपस्वी मुनि की हत्या करवाई है। भाई मुनि की करुण मृत्यु जानकर रानी का हृदय थरथर काँपने लगा। आँखों में से बैर-बैर जितने आँसू गिरने लगे। राजा को भी हकीकत का पता चलने पर दोनों
ती-फाड़ रुदन करने लगे। संसार में अघटित और अनुचित यह काम हुआ है। अब यदि संसार नहीं छोडेंगे, तो ऐसे काम होते रहेंगे, इस प्रकार संसार के स्वरूप का विचार कर दोनों ने दीक्षा लेकर आलोचना ली। एक सज्झाय में भी कहा है कि, 'आलोई पातकने सवि छंडी कठण कर्मने पीले' आलोचना प्रायश्चित तप वगेरे करके केवलज्ञानी बनकर दोनों मोक्ष में गये। ____यहाँ पर यह चिंतन करना चाहिये कि पूर्वभवमें चीभड़ी की छाल उतारने का प्रायश्चित न लिया, तो शरीर की चमड़ी उतरवानी पड़ी और इस भव में मुनि की हत्या करवायी, तो भी प्रायश्चित ले लिया, तो राजा-रानी मोक्ष में गये। इस चिंतन में ओतप्रोत होकर आलोचना लेने में प्रमाद नहीं करना चाहिये।
अरणिक मुनि और उनकी माता ने चारित्र लिया था। संयम का विशुद्ध पालन करते करते मुनिश्री एक दिन ग्रीष्म ऋतु में दोपहर को गोचरी लेने के लिये गये थे। वहाँ धूप में उनके पाँव जल रहे थे। सिर भी धूप के कारण गरम हो चुका था। जैसे फूल मुरझा जाता है, ऐसी हालत मुनि की हो गयी थी। तब मुनिश्री एक मकान के नीचे खड़े रहे। कामवासना से आकुल बनी हुई एक नारी ने अपनी दासी के द्वारा मुनि को बुलवाया। गोचरी वहोराने के बहाने से दासी मुनि को ले गयी। नारी के कामण भरे वचन से मुनि का पतन हो गया। मुनि वहाँ के रंगराग में फँस गये। मुनिश्री की सांसारिक मातुश्री गली-गली में पागल व्यक्ति की तरह उसे ढूंढने लगी। माता की यह हालत देखकर मुनिश्री को बहुत आघात लगा। वह महल में से उतरकर माँ के चरणों में गिर पड़ा। सांसारिक मातुश्री साध्वीजी ने उसे समझाकर गुरु के पास भेजा, वहाँ मुनिश्री ने आलोचना ली। अंत में धगधगती शिला पर संथारा कर मुनि ने अनशन स्वीकारा और वे केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गये। महाव्रत का खंडन करने पर आलोचना-प्रायश्चित लेकर अरणिक मुनि ने आत्मशुद्धि की। यह जानकर हमें भी आत्म शुद्धि का अमोघ कारण रुप आलोचना अवश्य करनी चाहिये।
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99...कहीं सुना न जाए
आंध्र जैसे प्रदेशो में जीते जी जलकर मरना पडता प्रायश्चित की ताकत...
है। महिष बनकर भरुच के ऊँचे ढलानों पर पानी
उठाकर चढ़ना पड़ता है। ओह ! तब याद आयेगा केन्सर की गाँठ हो, फिर भी अभिमान आदि को दूर कर काली स्याही कि प्रायश्चित ले लिया होता तो...! ऑपरेशन-SURGERY करने में आये, तो जैसी जीवन की काली किताब को गुरु के मरीज़ अच्छा हो जाता है। परंतु जो एक चरणो में सौंप दो। एक भी पाप मन में न रह
प्रश्नोत्तर छोटा-सा भी काँटा पाँव में रह जाये, तो जाये... तन का पाप... मन का पाप... वचन
प्रश्न :- आलोचना करने से क्या फल होता है ? इंसान को मार डालता हैं। इसी प्रकार का पाप..., सभी प्रायश्चित के प्रताप से
उत्तर :- रागद्वेष के कारण संक्लिष्ट मन से कर्म बड़े-बड़े पाप जीवन में हो गये हो, तो भी जलकर खाक हो जायेंगे| ATOM BOMB से भी प्रायश्चित-आलोचना के प्रताप से जीव ज्यादा ताकत है इस प्रायश्चित में !!
का बंध होता है। परंतु आलोचना करते समय
अहंकार, माया आदि रागद्वेष कमजोर हो जाने से धवल हंस के पंख की तरह निर्मल बन
यदि पाप करते ही रहे और विशद्धिवाले चित्त से कर्मों का क्षय होता है और सकता है। परंतु जो एक छोटा-सा भी
आलोचना-प्रायश्चित से शुद्ध न हुए हों, तो सरलभाव प्राप्त होने से कर्मों का संपूर्ण क्षय होने पाप मन में छुपा दिया, तो सत्यानाश....
आ जाईये वन्स मोर.... ONCE MORE पर मोक्ष भी हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में भवोभव बिगड़ जाते हैं। इसलिये जाओ
नरकगति में.... जहाँ परमाधामी नारक जीव कहा है कि, “आलोयणाओणं भंते ! जीवे किं गीतार्थ गुरुभगवंतो के चरणो में... शरम,
को भयंकर दुःख देते हैं.... शरीर के टुकड़े- जणयई मायाणिया ? मिच्छ दरिसणसल्लाणं टुकड़े करता हुआ असिपत्र वन, गरमागरम मोक्खमग्गविग्धाणं अणंतसंसारबंधणाणं उद्धरणं जस्ता.... हड्डी-माँस-खून से भरी हुई करेई उज्जुभावं च जणयई उज्जुभावपडिवा ओणं वैतरणी नदी आदि की वेदना, जो छक्के छुड़ा वियणं जीवे अमाई इत्थिवेयं नपुसंगवेयं च 7. दे, ऐसी परिस्थिति... पल पल मृत्यु को वच्चई पुव्वबद्धं च णं निज्जरई" चाहे... तो भी मृत्यु जहाँ कोसों दूर रहती है। अर्थात् आलोचना करते समय मोक्षमार्ग में अथवा तो जाईये पशुयोनि में सुअर बन कर विघ्नभूत अनंत संसार के बंधन मिथ्यात्वा
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विशल्यों का नाश होने से सरलभाव उत्पन्न होता है। जिससे स्त्रीवेद और नंपुसकवेद का बंध नहीं होता और अगर पूर्व में बाँधे हुए हो, तो उनका नाश हो जाता है। इतना ही नहीं, सभी कर्मों का नाश हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसीलिये कहा है कि, उद्धरिय सव्वसल्ला, तित्थगराणाओ सुत्थिया जीवा, भवसयकम्माई खविओ पावाई या सिवं ठाणं हि
अर्थात् जिनेश्वर भगवान की आज्ञा में सुंदर रीति से रहे हुए जीव सभी शल्यों की आलोचना करके सेंकडो भवों के पापकर्मों का क्षय कर शिवस्थान यानी कि मोक्षधाम में पहुँचते हैं। कवि कलापी ने भी कहा है कि, "हा पस्तावो विपुल झरणुं स्वर्गथी उतरे छे, पापी तेमां डूबकी लईने पुण्यशाली बने छे ।।"
आलोचना कैसे लिखनी चाहिये ?
जीवन में कौन से पाप हो सकते हैं? उन्हें समझाने के लिए और आलोचना लेने के लिए कुछ पाप स्थान - ज्ञानाचार आदि के अपराधों का ब्योरा भव-आलोचना मार्गदर्शिका नाम की पुस्तक में दिया गया है। वह पुस्तक इस पुस्तक के साथ निःशुल्क दी जाती है। उसमें से जिस पापस्थान का सेवन किया हो, उस पाप स्थान का क्रमांक एक नोट बुक या कागज पर लिख लीजिये। ज्ञात, अज्ञात या बलात्कार आदि रीति से पाप हुआ हो, उसी प्रकार धर्मस्थान या अन्यत्र होटल आदि में हुआ हो, जैसे भाव से यानी दर्द से या आनन्दपूर्वक हुआ हो, उसी प्रकार एक-एक क्रमांक के आगे कागज में विवरण लिख लीजिये। लिखने के बाद पुनः पढ़ लीजिये। बाद में क्रमांक के स्थान पर संपूर्ण विगत व्यवस्थित रीति से लिख लीजिये। फिर उस पुस्तक के अंत में रहे हुए एक पेज निकालकर पू. गुरुदेवश्री को दे दीजिये। फिर जो प्रायश्चित गुरुदेवश्री दे। उसे पूर्ण करने का प्रयत्न कीजिए ।
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कहीं मुरसान जाए... 100
उस पुस्तक में जितने पापस्थानक लिखे हुए हैं, उनसे अन्य पापस्थान का जीवन में सेवन किया हो, तो उन्हें गीतार्थ गुरु भगवंत के पास समझने का यत्न करना चाहिये। इस पुस्तक में लिखे गये पापस्थानकों के सिवाय पाप स्थानक नहीं होते, ऐसा न मानें, इस पुस्तक के पाप स्थानक तो केवल दिग्दर्शन मात्र हैं, ऐसा समझना चाहिए। उस पुस्तक से अतिरिक्त पापों की भी आलोचना लेनी चाहिये ।
अपने जीवने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य की प्रवृत्तियों में जो अपराध किये हो, उन्हें याद कराने के लिये अब ज्ञानाचारादि के अपराधों (अतिचारों) की सूची उस पुस्तक में
दी गई है। उसे आप पढ़ेंगे, तो मालूम होगा कि मैंने कौन-कौन से अपराध किये हैं । अपराधों का ब्यौरा लिखकर गुरूदेव के पास प्रायश्चित लेंगे, तभी अपनी आत्मा शुद्ध होगी।
भूल से भगवान की आज्ञा के विरुद्ध लिखने में आया हो, तो मिच्छामि दुक्कडं ।
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चालो आपणे साचा जैन बनीये
एक हती राजकुमारी गुज., अंग्रेजी = १००/
भक्तामर स्तोत्र सचित्र हिन्दी, गुज. = ३०/
चालो आपणे साचा जैन बनीये
गुज.
चलो अनानपूर्वी गीने हिन्दी, गुज. = ४०/
पर्युषण महापर्व के प्रवाऔर सांवत्सरिक क्षमाकन
हिन्दी, गुज. = १०/-1 पर्युषण महापर्व के ८ व्यारवान सहित सांवत्सरिक क्षमापना हे भेजने की अद्भुत भेंट।
प्रासंगिक मल्टी कलर में फोटो युक्त, हनुमानजी की मातुश्री अंजनासुदरी के चरित्र की करुण हृदयस्पर्शी कहानी है।
शत्रुजय तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ भगवान के ४४ तीर्थों के दर्शन वाला सचिन भक्तामर स्तोत्र इसमें है।
श्रावक के दैनिक ६ कर्तव्य आदि विषयों का विस्तार से वर्णन इस पुस्तक में किया गया है।
सुंदर रंगीन अलग अलग २४ तीर्थकर भगवान के २४ चित्रों सहित अनानुपूर्वी की आकर्षक पुस्तक।
पूज्यश्री
कदारा
प्रस्तुत
उत्तम
साहित्य
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रखवणराढा
आगराग मारवटा
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खवग-सेढी प्राकृत, संस्कृत
अनशन को सिद्धवट हो हिन्दी, गुज., अंग्रेजी = ३०/
बंधनकरण संस्कृत = १००/
उपशमनाकरण प्राकृत, संस्कृत = १००/
चित्रमय तत्वज्ञान अल्बमा
हिन्द, गुज, = ५०/
६ वर्ष के अल्प पर्याय में पूज्यश्री द्वारा लिखित २०,००० श्लोक प्रमा, प्राकृत-संस्कृत भाषा में क्षश्रेणि का विश्लेषण करता अलोकिक महाग्रंथ है। बीन पुनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्लाऊझ वन ने भी इसकी खुब प्रशंसा की है।
रंगीन प्रासंगिक फोटो सहित ६ गाउ की भावयात्रा और साडे आठ करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त करनेवाले शांब व प्रद्युम्न का विस्तृत चरित्र है।
इस ग्रंथ पर पूज्यश्री ने १५,००० श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका लिखी है। इसमें सत्पदादि द्वार से आठ कर्मों के बन्ध की मार्मिक जानकारी है।
१५,००० लोक प्रमाण प्राकृत संस्कृत भाषा में उपशम श्रेणि के विषय का अद्भुत ग्रंथ है। उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति, क्षयोपशम और क्षापिक सम्यक्त्व, अनंतानुबंधि कपाय का क्षय, देशविरति और उपशम का तात्विक वर्णन है।
प्रवेशकों को संक्षेप में १४ राजलोक, अड़ी द्वीप, नौ तत्व आदि १७ विषयों पर मल्टी कलरमय १८ चित्रों सहित तत्वज्ञान की एका झाँकी।
पूज्यश्री प्रस्तुत उत्तम साहित्य
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टेन्सन टु पीस To terania
टेन्शन टु पीस गुज., हिन्दी १०/
विश्व भर के टेन्यानों से भरे हुए मानव के मन के लिये शांति के विविध प्रयोगों को बताने वाली यह पुस्तक है।
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चलो सिद्धगिरि चले हिन्दी, गुज., अंग्रेजी २००/
शत्रुंजय महातीर्थ के प्रत्येक स्थान की संपूर्ण जानकारी और उनके ऐतिहासिक वर्णन के साथ संपूर्ण भावयात्रा का हूबहू विवेचन करती हुई यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। रंगीन चित्रों के साथ छपी हुई यह आकर्षक सर्व प्रथम पुस्तक शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा करने व करवाने में सभी को विशेष उपयोगी बनेगी।
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रे कर्म तेरी गति न्यारी गुज., हिन्दी = २०/
आत्मा प्रत्येक समय में किस प्रकार, कौन-कौन से कर्म बांधती है ? और उन कर्मों का क्या-क्या फल होता है ? इस प्रकार के विशेष तत्वज्ञान वाली यह पुस्तक गुजराती में है।
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श्री शत्रुंजय आदि ४ महातीर्थ दिशा दर्शक यन्त्र हिन्दी, गुज., अंग्रेजी ७०/
इस विश्व के किसी भी कोने में रह कर आपको शत्रुंजय, शंखेश्वर, सम्मेतशिखर अपवा नाकोड़ा तीर्थ को भाव से वंदन करने हों, तो अपने स्थान से उन-उन तीथों की दिशा बतानेवाला यह पन्त्र आज ही बसा लीजिए।
पूज्य श्री
द्वारा
प्रस्तुत
उत्तम साहित्य
जैन रामायण
जैन रामायण हिन्दी, अंग्रेजी, गुज. ४००/
राज्य के हक को तिलांजलि देक राम का पिताश्री के प्रति समर्प भाव, सुशील पत्नी का त्याग क वाले राम के प्रति सीताजी क समपर्ण भाव, वृद्ध को देखक दशरथ की, चाचा की मृत्यु देखकर लवकुश की और सूर्या को देखकर हनुमानजी की दी वगैरह कौटुम्बिक संस्कारी अ आध्यात्मिक संस्कारो के लिए ज पहिये सचित्र जैन रामायण |
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LAHARI
विनीता नगरी
एक पावन परिवर्तन
उपधान
आत्म जागृति का सुअवसर Sure निरीक्षण • निजमाव पान • स्वर अवलोकन
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________________ Learn from past, five in present and plan the future. भूतकाल की भूलों से सीखो... वर्तमान में जीओ और भविष्य की प्लानिंग (योजनाएँ) इस प्रकार बनाओ कि जिससे उन भूलों की पुनरावृत्ति न हो पाए। भूल इंसान से ही होती है, परंतु वह अपनी भूलों का इकरार कर सद्गुरु के पास प्रायश्चित ले लेता है, तो वह इंसान पूजनीय व परमात्मा बन जाता है। शास्त्र में कहा है कि, "जं पडिसेविज्जइ, तं न दुक्कर। ज आलाइज्जइ, तं दुक्कर // 1 // " पाप का सेवन करना, वह मुश्किल नहीं, परंतु उसकी आलोचना लेनी, वह ज्यादा मुश्किल काम है। इस पुस्तक की विशेषता धन्य है जिनशासन। जिसमें पापीओं के पाप को धोनेवाले प्रायश्चित का उत्तम विधान है। क्या गंगा मैली तो मैली ही रहेगी? नहीं। नहीं... प्रक्रिया करोगे, तो वह शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल बन जायेगी। प्रायश्चित में यह अपूर्व शक्ति है, कि उसके बल पर आत्मा संपूर्ण निर्मल बन सकती है। MULTY GRAPHICS B0221 23873222423484222 Jain Education Intematonai For Bes t e Use Only www.janelibra