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________________ 881...कहीं सुना न जाए 20 ईर्ष्या की आलोचना न ली... ईर्ष्या एक ऐसी आग है, जो सामने वाले व्यक्ति को कुछ नहीं कर सकती, परंतु व्यक्ति स्वयं ही उस आग में जल-जलकर खाख हो जाता है। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी साधुओं की सच्ची भक्ति और वैयावच्च करने वाले पूर्व में चक्रवर्ती के पुत्र बाहु-सुबाहु मुनि के वैयावच्च गुण की एक दिन गुरुदेवश्री ने अनुमोदना की। तब पीठ व महापीठ के दिमाग में उनके प्रति ईर्ष्या खड़ी हई। ये दोनों वैयावच्च में पानी लाना, गोचरी लाना, पाँव दबाना इत्यादि.... शारीरिक श्रम (मजदूरों का काम) करते हैं और गुरुदेवश्री इनकी प्रशंसा करते हैं। हम शास्त्रों में कितना बौद्धिक श्रम करते हैं? उसका महत्त्व कोई गिनती में ही नहीं । इस प्रकार दोनों मुनियों के दिमाग में ईर्ष्याभाव खड़ा हुआ। परंतु यह नहीं सोचा कि, अरे भाई! समय-समय पर सब की कीमत होती है, लेकिन यह बात समझे कौन? उनका मन तो ईर्ष्या की आग में जल रहा था। सुबाहु मुनि मुनिओं के पाँव दबा रहे हैं। २) ५०० साधुओं की सेवा (विश्रामणा) करने वाले वैवावच करने वाले वाह मुनि गुरुदेवश्री को गौचरी बता रहे हैं। ०० साधुओं की गोचरी आदि द्वारा इस प्रकार उस ईर्ष्या की आलोचना न ली, तो अगले भव में ब्राह्मी व सुन्दरी के स्वरूप में उन्हें स्त्री बनना पड़ा। और बाहु-सुबाहु, भरत-बाहुबली बने । इसलिये आलोचना शुद्धि सब को करनी चाहिये। For Personal & Private Use Only Jain Education International New jainelibraries
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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