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________________ ANDA कहीं मुनसान जाए....8 व्यापार करता हुआ मैं अनीति में मेरी आत्मा पीसी जायेगी? उसका विचार भी के लिये दिया, भीतर तो वर्षों तक वैर की इतना आगे बढ़ा कि फर्जी बिल और न आया। निरंतर धन, धन और धन का गाँठ बनाये रखी और जान से मार डालने के डानीकेट हिसाब लिखना, तो मेरे लिए बायें रटन चलता था। कितने ही सज्जनों का मनसूबे भी बहुत किये। पड़ोसियों को हाथ का खेल बन गया। माल बताना दूसरा विश्वासघात भी धन के लिए किया। धन गालियाँ देने में पीछे मुड़कर देखा भी नहीं। और देना दूसरा, इसमें मैं अपनी चतुराई प्राप्ति के लिए न देखा दिन, न देखी रात। क्या होगा गुरुदेव? एक अपशब्द से चंद्रा को मानने लगा। दस के बदले ग्यारह नोट तो नरक में ले जाने वाला रात्रि-भोजन । कलाई कटवानी पड़ी और सर्ग को शूली पर अनेक बार तिजोरी में डाल दिए थे। मेरी " का पाप भी इस धन की लालसा ने चढ़ना पड़ा, तो मेरी क्या गति होगी? a ध-लोलुपता तो मम्मण शेठ के साथ स्पर्धा गुरुदेव! अहंकार का तो मैं पुतला था। मेरे क ने लगी। अरे गुरुदेव! अपेक्षा से तो करवाया। क्या करूँ गुरुदेव? कर्म से मैला सामने दूसरों का नाम ले लिया गया हो और उसकी धन-लालसा मेरी अपेक्षा तुच्छ कही बना हुआ हृदय चौधार आँसुओं के सिवाय मेरा नाम भूल गए हो, तो मेरे दिमाग का पारा जा सकती है। दान धर्म के साथ तो मानो धुले ऐसा नहीं लगता। गुरुदेव! आप कहते हैं ऊँचे चढ़े बिना नहीं रहता था। पारा चढ़ने मुडो वैर ही था। धिक्कार हो मेरे इस विषयषय- रो नहीं। रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? वो आँसू के बाद वह चाहे धर्मकार्य क्यों न हो? उसे सं सानुबंधी रौद्र ध्यान को ! मेरी आंतरिक रूककर फिर आ जाते हैं। गुरु भगवंत, आप तोड़े बिना नहीं रहता। ओह गुरुवर! अब तो माताएँ तो इतनी तीव्र थी कि धनप्राप्ति में प्रायश्चित रूपी साबुन मेरे हृदय पर लगाइए, हद हो गई मेरे काले कर्मों की! माया करके काई आड़ा आया, तो गुंडों के द्वारा उसका ताकि मेरा हृदय स्वच्छ निर्मल बन जाए। दूसरों को ठगने में बुद्धि का चातुर्य समझता सफाया कराने की नीच भावना भी मुझ में छोटी-छोटी बातों में भी क्रोध से था। मायाजाल करने पर भी मैं पकड़ा नहीं जोर पकड़ रही थी। प्रज्वलित होकर दूसरों को तो क्या पत्नी गया? उसका मुझे गौरव था। वास्तव में मैंने इन कुकर्मों का दारूण विपाक मुझे ही और बच्चों को भी मारने में कुछ कमी नहीं अपनी आत्मा को ही ठगी है। गुरुदेव! अब भोगना पड़ेगा। यह विचार मुझे स्वप्न में भी रखी। आज तक कभी भाव से तो मिच्छामि क्या करूँ, जिससे मेरा पाप धुल जाए? बस, नहीं आया। क्या करूँ गुरुदेव! मेरी आत्मा दुक्कडं दिया ही नहीं और अगर देना भी मुझे तो यही लगता है कि सभी कुकर्मों का हा फेक दी जाएगी? अरे किस क्रूर रीति से पड़ा हो, तो वह भी बाहर से अच्छा दिखाने आपसे प्रायश्चित लेकर शुद्ध बन जाऊँ ।ay.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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