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________________ 9... कहीं मुरझा न जाए भविष्य मनोव्यथा गुरुदेव! मुझे जब अपने जीवन की काली किताब याद आती है, तब रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अरे जीव! तेरा क्या होगा? कण जितने सुख के लिए मण जितने पाप किये हैं, उनसे टन जितना दुःख आएगा, उन्हें तू किस तरह सहन करेगा? गुरुदेव, जरा-सी गर्मी पड़ती है, तो आकुल-व्याकुल होकर पंखे या एयरकंडिशन की हवा खाने के लिये दौड़ता हूँ, तो फिर नरक की भयंकर भट्ठियों की असह्य गर्मी को कैसे बर्दाश्त करूँगा? जहाँ लोहा क्षणभर में पिघल कर पानी जैसा प्रवाही बन जाता है, परमाधामी भट्ठी के ऊपर मुझे भुट्टे की तरह सेकेंगे, तब गर्मी कैसे सहन कर सकूँगा? तड़प-तड़प कर आकुल-व्याकुल बने मन को आश्वासन देनेवाले वचनों के बदले परमाधामी के कड़वे वचन सहन करने पड़ेंगे, "ले, अब कर मज़ा।" जब पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि मांसाहार छोड़ दे। जीवों को पीड़ा मत दे। तब कहता था, "किसने देखा है परलोक? मछली वगैरह प्राणियों को तल कर व अंडे वगैरह को केले के समान उबाल कर खाता था, तब क्या तुझे भान नहीं था? ले, अब कर मज़ा।" ऐसा कहकर परमाधामी भीषण ज्वालाओं से कराल जैसी भट्ठी पर चढ़ाई हुई कढ़ाईयों में तल देंगे, मुँह में जस्त का गरमा-गरम रस डालेंगे और तब त्राहिमाम्-त्राहिमाम् (मुझे बचाओ) की पुकार कोई नहीं सुनेगा, तब मेरा क्या होगा? इतना ही नहीं, गुरुदेव ! ऊपर से परमाधामी सुनाएँगें- "दूसरों की निंदा करने में आनंद आता था न! ले, अब कर मजा ।" तेरी जीभ खींच लेता हूँ। सोडा लेमन, बीयर, व्हिस्की आदि अभक्ष्य पान के सेवन में आनंद आता था न? अब तृषा लगी है न, तो ले ये गरमागरम जस्त का रस । परस्त्रियों के चुंबन और आलिंगन तुझे मीठे लगते थे न, तो ले इन गरमागरम लोहे की पुतलियों के साथ कर चुंबन और आलिंगन । जीवों को चीर कर अभक्ष्य भोजन करता था न ले, तेरे टुकड़े टुकड़े कर देता हूँ।" ऐसा कहकर आम की फाँक की तरह शरीर के टुकड़े टुकड़े कर देंगे। वह मुझसे किस प्रकार सहन होगा ? ओह गुरुवर्य ! और कहेंगे कि, थोड़ी-सी दुर्गंध आती थी, तो नाक बंद कर डी. डी. टी. छिड़का के लिए तैयार हो जाता था, अब भयंकर दुर्गंधमय वातावरण और वैतरणी नदी में तुझे असंख्यात वर्ष तक मजबूरी से रहना पड़ेगा। "जरा-सी भी कुरूपता देखनी अच्छी नहीं लगती थी, उसके प्रति तिरस्कार और अपमान बरसाता था। अब नरक में असंख्यात वर्षों तक कुरूप जीवों को देखते रहना पड़ेगा। खुद दोष जरा भी सुनने अच्छे नहीं लगते थे और दूसरों के दोष जानने में आनंद आता था, तो अब तू सुनते रह अपने दोष और अपराधों को तू अपराधों को नहीं सुनेगा और भाग जाने का प्रयत्न करेगा, तो पटक-पटक कर चूर-चूर कर दूँगा।" परमाधामियों के ऐसे कठोर वचन कैसे सहन करूँगा? यहाँ तो सब्जी व दाल में नमक-मिर्च जरा-सी भी कम हो जाए, तो रौद्र रूप धारण कर लेता हूँ, तो फिर नरक में बिभत्स और दुर्गंधमय नीरस आहार कैसे ग्रहण करूँगा? गुरुदेव ! मेरी आत्मा पाप से कंपित हो उठी है। ओह! कल्याणमित्र पूज्य गुरुदेव ! गुमराह बने हुए मुझे कोई सन्मार्ग बताइए। शीघ्र बताइए। क्या करूँ मैं?
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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