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अरे पुण्यशाली मानव! तू वास्तव में
कहीं मुनसा न जाए...10 धन्यवाद का पात्र है। पाप हो जाना, कोई आश्चर्य नहीं है। मोहनीय कर्म के उदय से
शब्द ही नहीं मिल रहे हैं। अरे! मेरा किसने कौन-से पाप नहीं किये? क्या मोह ने
शब्दकोष भी वामन हो गया है! अब
का आश्वासन तीर्थंकर की आत्मा को भी छोड़ा है? क्या
दिल में एक भी पापरूपी काँटा मत
रखना, अन्यथा जैसे अश्वपालक के उन्होंने अपने पूर्व जीवन में भयंकर पाप नहीं किये? क्या उन पापों से उन्हें सातवी नरक तक नहीं जाना पड़ा? परंतु जीवन की काली-श्याम किताब
घोड़े के पैर में काँटा लग गया था और को धोकर तुझे उज्जवल बनने का मनोरथ हुआ हैं। अतः तू धन्यवाद का पात्र है। तू तो काली किताब का
अश्वपालकने काँटा नहीं निकाला, एक-एक पन्ना खोलकर कालिमा को धो रहा है। अतः तू विशेष रूप से धन्यवाद का पात्र है। बालक जैसी
जिससे पैर में मवाद भर गई और अंत सरलता से एक एक पाप निष्कपट भाव से प्रगट कर दे। अरे! आत्मा पर से झिड़क दे इन पापों को।
में संपूर्ण पैर कटवाना पड़ा, उसी
प्रकार तू भी अंदर पाप रखकर घोड़े हे भाग्यवंत! तेरे द्वारा सरलतापूर्वक हो रही आलोचना से तेरे प्रति मेरे हृदय में वात्सल्य का सागर
की तरह दुःखी मत होना। तू अंदर रल रहा है, क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि आलोचना लेनेवाला ही वास्तव में आराधक है। हृदय रुपी गंदी
किसी भी प्रकार की शर्म मत रखना। गर में आराधना का इत्र डालने से क्या सुगंध आ सकती है? नहीं। पाप, शल्य व दोष तो मुर्दे के समान
मुझ पर दृढ विश्वास रखना। जो तूने है। मुर्दे पर कितने ही फूल चढ़ाये जायें, थोड़ी देर के लिए सुगंध आती रहेगी, परंतु अन्दर तो बदबू बढ़ती
आलोचना कही है, वह किसी के भी है। रहेगी। पाप शल्य व दोषों की आलोचना न लेने से थोड़ी देर के लिए आनंद आ सकता है, परंतु भावों
कान तक नहीं जायेगी। मैं मरूँगा, तो की अभिवृद्धि तो मुर्दे की तरह दोषों को आत्मा में से बाहर फेंकने से ही होगी। तूने आज मेरे सामने हृदय
मेरे साथ ही आयेगी। उसे मैं हृदय रूपी प्रखोलकर आलोचना कही, जिससे तेरा हृदय साफ हो गया है, अब तेरा जीवन आराधना की सुगंध से महक
कब्रिस्तान में गाड़ चुका हूँ। ज्यादा ठेगा। अतः तू आज धन्यवाद का पात्र है, परन्तु याद रखना, भूलना मत । एक भी पाप को कहने में गलती
क्या कहूँ? आलोचना का प्रायश्चित त करना, शरम मत रखना। हृदय में एक भी शल्य मत रखना। तूं वास्तव में भारहीन हो जायेगा। तेरा
देने का अधिकार उसीको है, जो सर हल्का हो जायेगा। तेरा हृदय स्वच्छ हो जायेगा। सिर पर से सारा बोझ उतर जायेगा।
अपरिश्रावी होता हैं अर्थात् आलोचना हे देवानुप्रिय! तेरी आलोचना सुनकर मैं तो तेरी पीठ थपथपाता हुआ धन्यवाद दे रहा हूँ। वस्तुतः सुननेवाला और प्रायश्चित देनेवाला ने अद्भुत पराक्रम किया है। खूब हिम्मत रखकर पापशल्यों को जड़मूल से उखाड़ फेंके हैं। अदभुत ऐसा व्यक्ति होता है, जिसके हृदय से साधना की है, अभ्यंतर तप का आस्वाद लिया है। किन शब्दों में तेरे पुरुषार्थ की प्रशंसा करूँ ? मुझे ऐसे वह बात कभी बाहर न निकले।
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