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________________ दुरुपयोग कर अपरिचित लड़कीओं को फँसाने के धंधे किये। अरे ! बहिन कहकर सम्बोधित करता और वासना का शिकार बना कर ही रहता। गुरु भगवंत, पैसे और परिवार की आज़ादी ने तो मेरे कौमार्य को भी कलंकित कर दिया। कम्प्युटर में नयी-नयी देशविदेश की फाइलें खोलकर उनमें अंगप्रदर्शन को देखकर कामवासना को बढ़ाने के भरपूर प्रयत्न किये। क्या कहूँ? मन भर गया है। जीभ ही नहीं चलती है, मेरे जालिम पाप कैसे छूटेंगे? मेरी क्या गति होगी? मामा, चाचा, किसी का भी घर मैंने नहीं छोड़ा है। किसी की भी लड़की को देखते ही उसको वासना का शिकार बनाने का ही प्रयत्न करता । सब को कलंकित कर दिया है। इससे ज्यादा कौन-सा कुकर्म हो सकता है? नाथ ! इस पापी आत्मा को धरती जगह दे, तो अंदर समा जाऊँ ! शर्म के कारण मुँह भी ऊँचा नहीं उठता है। मैं मुँह दिखाने के लायक भी नहीं हूँ। आत्महत्या एक महापाप है, यह समझता हूँ। अतः आलोचना से पापहत्या करनी है। सुनिए गुरुभगवंत ! मेरी पाप कथा, वयस्क फिल्मों को देखकर तो वासना ने मर्यादा ही तोड़ Jain Education Internat कहीं सुरक्षा न जाए... 4 दी । पड़ोस में रहने वाली मासूम बालाओं पर अवसर देखकर क्रूर प्रवृत्ति शुरू कर दी। उनकी चीखों को दबाकर मैंने पाप की पोटली बाँध ली। उनके जीवन पर काला धब्बा लगा दिया। इश्क जात-कुजात नहीं देखता, इस उक्ति को मैं चरितार्थ करने लगा। अंगस्पर्श और स्वअंगप्रदर्शन में तो कोई शरम न रही। इन दुष्कृत्यों ने तो मर्यादा ही छोड़ दी। एक बार शिकार हाथ में आने के बाद, फिर वह कहीं चला न जाएँ; तदर्थ पैसे बहाना-उन्हें खुश करना इत्यादि करने के लिए चोरी करने में भी कुछ बाकी न रखा। वासनापूर्ति के लिए कुछ बड़ी चोरियाँ भी अब शुरू हो गई, क्योंकि संबंधित व्यक्तियों को खुश करने के लिए चोरी एक फर्ज़ बन गया। फिर तो मैं लोटरी, मटका वगैरह जुए की प्रवृत्ति में कूद पड़ा। क्या कहूँ, मेरे जीवन की आत्मव्यथा? काली स्याही से श्याम बन गई है मेरे जीवन की कोरी किताब । वयस्क होने पर कानूनी सलाह लेकर घर से भाग कर कोर्ट में शादी करने का प्लान भी बना लिया। परंतु २२-२३ वर्ष की उम्र में मेरी सगाई हो गई। यह केवल बाह्य व्यवहार मात्र था। अंदर तो मैं पापों से सम्पूर्ण रीति से सड़े हुए टमाटर की तरह निःसत्त्व बन गया था। मैंने कितने ही व्यक्तियों का शील सदाचार खंडित कर दिया था! सगाई होने पर मानो अब तो प्रेमपत्र लिखने का मुझे अधिकार मिल गया। अरे क्या कहूँ गुरुदेव ? प्रेमपत्रों की बिभत्स यात्रा शुरू हो गई। मेरे परिणाम (विचार) कलुषित होने लगे। अरे ! अनेक बार साथ में घूमने के बहाने जाकर विवाह से पूर्व ही पति-पत्नी के कृत्रिम और क्षणजीवी सुख का अनुभव करने का महान् पाप भी कर लिया। सामने के व्यक्ति की मेरे प्रति अनुकूलता होने से Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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