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कर लिया और विचार किया कि यह मेरे खुद के कर्म का दोष है। इस प्रकार विचार कर उसने राजकुमारी पर द्वेष नहीं किया। राजकुमारी ने इस प्रकार ईर्ष्या से कलंक देने के पश्चात् प्रायश्चित नहीं लिया और मृत्यु पाकर उसने अनेक भवों में भ्रमण किया। उसके बाद इसी गंगापुर नगर में वह पुनः राजकुमारी बनी। वैराग्य पाकर उसने दीक्षा ली। आयुष्य पूर्ण होने पर दूसरे देवलोक में देवी बनी। वहां पर अपना आयुष्य पूर्ण करके वह मृतिकापदा नगरी के राजा हरिषेण राजा की पत्नी प्रियमती की कुक्षि में अवतरित हुई। राजा रानी ने तापसधर्म स्वीकार किया....
एक बार संसार से विरक्त होकर हरिषेण राजा ने अपनी पत्नी से कहा कि मैं राज्य का कारोबार छोड़कर तपोवन में जाऊंगा और वहां पर आत्म-साधना करूंगा। तुम यहीं पर रहना । पतिव्रता रानी प्रियमती ने कहा कि जो आपका मार्ग, वही मेरा मार्ग। मैं भी आपके साथ तपोवन में चलकर साधना करूँगी।
राजा को यह मालूम नहीं था कि यह गर्भवती है। अतः राजा ने अनुमति दे दी। दोनों विश्वभूति तापस के पास गये और तापस धर्म का स्वीकार किया। दोनों तापस- तापसी बन गये। जंगल में फलाहार इत्यादि करके निर्वाह करने लगे । परन्तु कुछ दिन व्यतीत होने के बाद प्रियमती के शरीर पर गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगे। यह स्थिति देखकर कुलपति ने विचार किया कि यह क्या हुआ? अपनी बेइज्जती होगी। यह जानकर कुलपति राजा हरिषेण और प्रियमती को छोड़कर अन्यत्र चले गये ।
ऋदृत्ता अदृश्य बनने लगी.... क्रम से समय व्यतीत होने के बाद प्रियमती तापसी ने पुत्री को जन्म दिया। जन्म देते ही वह मरण के शरण हो गई। पिता हरिषेण ने ऋषि की कृपा से यह पुत्री हुई है। यह सोच कर इसका नाम ऋषिदत्ता रखा। वह क्रमशः बड़ी होने लगी। उसने यौवन के प्रांगण में कदम रखा। उसका रूप और लावण्य देखकर पिता हरिषेण को चिंता होने लगी। इसलिये जंगल में उसके शील की रक्षा के लिए पिता ने उसे अदृश्य विद्या प्रदान की, जिससे वह कभीकभी अदृश्य हो जाती थी।
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कहीं सुना न जाए... 56