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________________ 89...कहीं सुनमा न जाए 29 देवद्रव्यमक्षण की आलोचना नहीं ली... साकेतपुर नगर के सागर सेठ मंदिर बँधवाने का हिसाब-किताब संभालते थे। कमाई करने की लालच से दुकान में से मज़दूरों को पैसे के बदले में खुद की दुकान में से माल-मसाला देते थे। इस प्रकार १००० कांकणी अर्थात् १२.५० रुपिये की कमाई की। उसकी आलोचना न ली। जिससे अंडगोलिक मत्स्य, बीच में तिर्यंच के भव करके सातों नरक में दो-दो बार गमन, १०००-१००० भव-सूअर, बकरा, हरिण, खरगोश, जंगली मृग, लोमड़ी, बिल्ली, चूहा, छिपकली और सर्प के तथा १ लाख विकलेन्द्रिय के भव उसके हए। उसके बाद दरिद्र मनुष्य बनकर जब ज्ञानी गुरु को पूछा, तब गुरु ने उसका कारण बतलाया। सागर सेठ के जीव ने आलोचना लेकर १००० गुना १२५०० रुपये देवद्रव्य में खर्च किये और तीर्थंकर नामकर्म बाँधकर तीसरे भव में वे मोक्ष में गये। देवद्रव्य के भक्षण की आलोचना न ली, तो तीर्थंकर की आत्मा की भी ऐसी दुर्दशा हुई। इसलिये सत्पुरुषों को आलोचना लेने के लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। FarParmanarsenteumonly.
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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