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________________ उनके समक्ष इकरार करूँगी, तो उसने कल्पना की कि उनकी दृष्टि में हलकी-नीच कहीं सुनना न जाए...26 गिनी जाऊँगी। परंतु अब मेरे महत्त्व का रक्षण किस तरह करूं? मोहनीय कर्म के उदय से स्वयं का महत्त्व और अहत्त्व बनाए रखने के लिए उसने बात को मोड़ दिया और कहा कि मैंने मंत्री के सत्त्व की परीक्षा के लिए दृष्टि डाली थी। इस प्रकार पाप को छिपाया राजदरबार में घटित आँख के और शुद्ध आलोचना न ली। जिससे उसके एक लाख (१०००००) भव हुए। पाप की आलोचना नहीं कही। आचार्यश्री ने अनेक अब विचार कीजिये कि अनेक प्रकार के पापों की आलोचना करने पर हम यदि प्रकार से वह पाप याद कराने एक भी पाप की आलोचना छिपा देंगे, तो रूक्मिणी की तरह हमारी आलोचना शुद्ध नहीं | और आलोचना करवाने का हो पायेगी। हाँ, पाप याद करने पर भी याद न आए, तो अन्त में यह कहना कि "मैंने प्रयत्न किया। परन्तु उसने इससे भी अधिक पाप किये हैं। ओह गुरुवर्यश्री ! कुछ तो याद ही नहीं आते हैं, अतः दूसरे नए किए हए हिंसादि कई पाप अनजान में रह गया हो, तो उसका भी प्रायश्चित करने को तैयार हैं। उनका पापा को याद कर आलोचना मिच्छामि दुक्कडम् ।" ग्रहण की। अन्त में आचार्य छउमत्थो मूढमणो कित्तियमित्तं संभरइ जीवो। जं च न संभरामि मिच्छामि दुक्कडं तस्स॥१॥ भावंत ने साध्वीजी को कहा । हे तारक गुरुदेव! मैं अज्ञान और मूढमन वाला हूँ। मुझे कितना याद रह सकता कि राजदरबार में किसी है? जो याद नहीं हो, उसका मिच्छामि दुक्कडम् । व्यक्ति पर विकारमय दृष्टि 2 एक कृषकने जूं मारी... राल कर पाप किया हो, तो उसकी भी आलोचना करनी पाप की भयंकरता किसी कार्य पर आधारित नहीं होती, परन्तु जीव के आंतरिक चाहिए। रूक्मिणी साध्वी परिणामों पर आधारित होती है। तीव्र परिणाम वाले युवक ने बबूल के कांटे से जूं मार समझ गई कि आचार्यश्री तो डाली। उसके बाद उसने उसकी आलोचना नहीं ली, तो उस कृषक को सात बार शूली भरा पाप जानते हैं। अब यदि (फाँसी) पर चढना पडा। For Personals Private Use Only in Education Intervenal www.jaineitray.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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