SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 13... कहीं मुरक्षा न जाए ■ आलोचना का महत्त्व जंबुदीवे जे हुंति पव्वया, ते चेव हुंति हेमस्स ! दिज्जति सत्तखित्ते न छुट्टए दिवसपच्छितं ॥ १ ॥ जंबुदीवे जा हुज्ज वालुआ, ताउ हुति रयणाइ । दिज्जति सत्त खिते, न छुट्टए दिवसपच्छित्तं ॥२॥ जंबूद्वीप में जो मेरु वगैरह पर्वत हैं, वे सब सोने के बन जाये अथवा तो जंबूद्वीप में जो बालू है, वह सब रत्नमय बन जायें। वह सोना और रत्न यदि सात क्षेत्र में दान देवें, तो भी पापी जीव इतना शुद्ध नहीं बनता, जितना भावपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित वहनकर शुद्ध बनता है। आलोयणपरिणओ सम्मं संपट्टिओ गुरुसगासे । जइ अंतरावि कालं करेइ आराहओ तहवि ॥ १ ॥ ज्यादा तो क्या कहूं? अरे भव्य आत्माओं ! जिसने शुद्ध आलोचना कहने के लिये प्रस्थान किया है और प्रायश्चित लेने से पहले वह व्यक्ति बीच में मृत्यु को प्राप्त हो, तो भी वह आराधक बनता है। अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक बनता है । इसलिये आलोचना शुद्ध करनी चाहिये । ■ अशुद्ध आलोचना किसे कहते है? लज्जा गारवेण बहुस्सुयभयेण वावि दुच्चरियं । जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति ॥ १ ॥ अर्थात् ऐसा अकृत्य कहने में शरम आती है। मैं इतना धर्मी हूँ, अथवा मैं बड़ा हूँ, पाप कहने से मेरी लघुता होगी। इस प्रकार गौरव से या पांडित्य का नाश न हो जाए, इस भय से जो जीव शुद्ध आलोचना नहीं करते, वे वास्तव में आराधक नहीं बनते हैं । ■ अशुद्ध आलोचना लेनेवाले के १० दोष : आकंपईत्ता अणुमाणईत्ता, जं दिट्ठे बायरं वा सुमं वा छन्न सद्दक़लयं, वहुजण अवत्त तस्सेवी ॥ १ ॥ अर्थात १) आकंप्य याने गुरु की वैयावच्च करके अपने लिये गुरु के मन में हमदर्दी खड़ी करके कहे कि, आप कृपा करके मुझे आलोचना का प्रायश्चित थोड़ा देना । २) उसी तरह गुरु की वैयावच्च करने से ये गुरुमहाराज मुझे थोड़ा दंड देंगे, ऐसा अनुमान करके आलोचना कहे । ३) दूसरो ने जो दोष देखें, उसी की आलोचना कहे, परंतु जो दोष किसीने भी न देखें, उसकी आलोचना न कहे। ४) बड़े दोषों की आलोचना कहे, परंतु छोटे दोषों की उपेक्षा करके आलोचना न कहे । ५) पूछे बिना घासादि लिया हो, ऐसी छोटी-छोटी आलोचना कहे, परंतु बड़ी-बड़ी आलोचना न कहे। गुरु जानेंगे कि जो ऐसी छोटी आलोचनाएँ भी कहता हो, वह बड़ी आलोचना किसलिये छुपाये ? इसलिये उसे ऐसी बड़ी आलोचना आई ही नहीं होगी, ऐसा मानकर गुरु उसे शुद्ध माने और खुद का गौरव टिका रहे। उसी तरह खुद का गौरव टिकाने के लिये परिचित गुरु के पास आलोचना न कहकर, अपरिचित गुरु के पास आलोचना कहे। इस तरह आलोचना कहने वाला शुद्ध होने का झूठा संतोष मानता है। ६) छन्न अर्थात् गुरु को बराबर समझ में ही न आये, इस प्रकार अव्यक्त
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy