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________________ 17...कहीं सुनमा न जाए आज भी प्रायचित विधि है। प्रायश्चित आलोचना देने वाले गुरुदेवश्री कैसे होते है? यदि कोई आत्मा कहती है कि आज इस काल में प्रायश्चित्त नहीं है, प्रायश्चित्त देने वाले नहीं है, इस प्रकार बोलने वाली आत्मा दीर्घसंसारी बनती है, क्योंकि नौवें पूर्व की तृतीय वस्तु में से उद्धृत आचार कल्प, व्यवहार सूत्र आदि प्रायश्चित्त के ग्रंथ एवं वैसे गंभीर गुरुवर आज भी विद्यमान हैं। गुरुदेव से शुद्ध आलोचना लेने पर अपनी आत्मा हल्की हो जाती है, जैसे माथे से भार उतारने के पश्चात् भारवाहक स्वमस्तक अत्यंत हल्का महसूस करता है। वंदित्तु सूत्र में कहा है किकयपावो वि मणुस्सो आलोइय निंदिय गुरुसगासे। होई अइरेगलहुओ ओहरिय भरुव्व भारवहो॥१॥ जिस जीव ने पाप किया है, वह यदि गुरु के पास उसकी आलोचना और निंदा करता है, तो वह अत्यंत लघु-हल्का बन जाता है। मानो भारवाहक ने माथे पर से भार उतार कर रख दिया हो। पाप करना दुष्कर नहीं है क्योंकि, अनादिकाल से मोहनीय कर्म आदि के परवश बनी हुई आत्मा पाप कर लेती है। तीर्थंकर की आत्माओं ने भी पाप किया था, परन्तु आलोचना के द्वारा वे भी शुद्ध बने, तभी उनका आत्मोत्थान हुआ। आलोचना लेनी, यही दुष्कर है। ज्ञानी भगवंतों ने कहा है कि - तं न दुक्करं जं पडिसेविज्जई , तं दुक्कर जं सम्मं आलोइज्जइत्ति। पाप करना दुष्कर नहीं है, परन्तु भली प्रकार से आलोचना लेना दुष्कर है। आयारवमाहारव ववहारोऽपवील पकुव्वे य। अपरिस्सावी निज्ज अवायदंसी गुरु भणियो॥शा ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचार को सुंदर रीति से पालने वाले हो, आलोचक (आलोचना करने वाला) के अपराधों के अवधारण में समर्थ हो। आगम से लेकर जित व्यवहार तक के पाँच व्यवहारों के जानकार हों। अपव्रीडक-लज्जा के Jan Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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