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________________ कहीं भुवा जनाए..16 E दसरों को बताये नहीं। आलोचना करने के बाद तथा प्रायश्चित लेने उत्तमार्थ-अनशन के समय यदि भावशल्य को दूर नहीं करता के पश्चात् ऐसा प्रयत्न होना चाहिए, जिससे वे पाप पुनः न हों है, तो अनशन करने वाला दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी बनता है। योंकि पुनः पुनः वे पाप करने से अनवस्था खड़ी हो जाती है। खिले हुए फूल के समान उत्तम मनुष्य जन्म में देव, गुरु और कदाचित् मोहवश पुनः हो जाएँ, तो फिर से किए हुए पापों की पुनः धर्म की सामग्री मिलने पर भी यदि वह व्यक्ति अब आलोचना न ले, आलोचना लेनी चाहिए। शास्त्र में कहा है कि तो उसका यह मनुष्य जीवन रुपी फल मरझा जायेगा और जीव को तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरु उवइसंति। दुर्गतियों में भवभ्रमण करना पड़ेगा। इसलिये आलोचना का तं तह आयरियव्वं अणवत्थ पसंगभएण॥१॥ प्रायश्चित रूपी पानी छिटकते रहना चाहिए। अतः इस पुस्तक का अर्थात मोक्षमार्ग के जानकार गुरुदेवश्री जो प्रायश्चित देते हैं, नाम रखा है, "कहीं मरझा न जाए।" अरे जीव ! तू भव आलोचना ___ उसको अनवस्था के भय से उसी प्रकार वहन करना चाहिए। ले लेना, अन्यथा यह मनष्य जीवन का फल कहीं मरझा जायेगा। प्रायश्चित वहन न करने से पुनः अनायास दूसरी बार पाप हो जाते खिला हआ फल मस्तक आदि शुभ स्थान पर चढ़ता है। यदि है एवं यह देखकर दूसरे व्यक्ति भी आलोचना-प्रायश्चित नहीं मस्तक आदि पर न चढा, तो मुरझाने पर धूल में फेंक दिया जाता है। करेंगे, वे निर्भय होकर पाप करते रहेंगे, जिससे अनवस्था होगी। रे जीव ! तू भी मुरझाए हुए फूल की तरह दुर्गतिरूपी धूल में फेंक आलोचना नहीं लेने वाला व्यक्ति कदाचित अनशन भी कर दिया जाएगा। अतः हे जीव ! तुझे रेड सिग्नल दिया गया है ले, तो भी शुद्ध नहीं होता, परन्त दुर्लभ बोधि और अनंत संसारी कि, "कहीं मुरझा न जाए!" एक बार भव आलोचना लेने के बाद हर बनता हैं। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि वर्ष वार्षिक आलोचना लेनी चाहिए। ऐसा श्रावक के वार्षिक ११ जं कुणई भावसल्लं, अणुद्धरियं उत्तमढकालम्मि। कर्तव्य में कहा हुआ है। जो हर वर्ष गुरु का योग न मिले, तो जब dain Education inle'दुल्लहबोहियत्तं अणंतसंसारियत्तं च॥१॥ For Personal s योग मिले, तब आलोचना कर लेनी चाहिए। www.jainelibrary.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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