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________________ ___15...कहीं सुनसान जाए HAलोचना सब को करनी चाहिए जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहि। शस्त्र, विष या अभिमान से क्रोधित वेताल जो हानि नहीं एवं जाणगस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे॥१॥ करता, वह हानि सर्व दुःखों का मूल अनालोचित भावशल्य जिस प्रकार कुशल वैद्य भी स्वयं की व्याधि दूसरों से करता है। आलोचना करने वालों को यद्यपि गुरुमहाराज महान कहता है, उसी प्रकार प्रायश्चित को जानने वाले गीतार्थ व्यक्ति मानते हैं और उसकी पीठ भी थपथपाते हैं, फिर भी आचार्य को भी दूसरे के पास आलोचना करनी चाहिए अर्थात् उसके हित के लिए यदि गुरुदेव कोई शिक्षा-वचन कहे, तो भी उपाध्याय-पंन्यास-गणि साधु-श्रावक आदि सब को गुरु के ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए। आलोचना अवश्य करनी चाहिए। आलोचना कहने के सिवाय आलोचना के पश्चात् पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए; कि आत्मा शुद्ध नहीं होती है। "अरर! यह मैंने क्या किया ? अपने जीवन की सारी कमजोरियाँ स्पष्ट कर दी । अरर ! क्या होगा?'' इस प्रकार के आलोचना न लेने से हानि :- जो अनर्थ जहर से नहीं। विचार आने नहीं देने चाहिए, बल्कि आनंद व्यक्त करना होता, शस्त्र या तीर से नहीं होता, उससे अनेक गुनी हानि । चाहिए। शास्त्र में कहा है किमायाशल्य से अर्थात् अंदर छिपाए हुए पापों से हो जाती है। अणणुतापी अमायी चरणजुआलोयगा भणिया। पाप गुप्त रखने से रूक्मिणी के एक लाख (१०००००) भव अर्थात् पीछे से पश्चात्ताप नहीं करने वाला आलोचक हो गये। विष से एक बार मृत्यु प्राप्त होती है, परन्तु पापों को अमायावी और चारित्रयुक्त कहा गया है। प्रगट नहीं करने से हजारों बार मृत्यु के अधीन होना पड़ता है। जिस तरह सुकृत करने के बाद पश्चाताप नहीं किया शास्त्र में कहा हैं कि जाता, उसी तरह आलोचना कहनी, यह भी एक सुकृत है। नवि तं सत्थं व विसं दप्पयुत्तो व कुणई वेतालो। इसलिये आलोचना कहने के बाद उस सुकृत की अनुमोदना जं कुणई भावसल्लं अणुद्धरियं सव्वदुहमूलं ॥१॥ करनी चाहिए। पश्चाताप नहीं। स्वयं को आया हुआ प्रायश्चित
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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