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________________ कहीं सुनसा न जाए....18 कारण कोई व्यक्ति स्वपापों को छिपाता हो। उसकी लज्जा दूर करके ठीक प्रकार से आलोचना करवाने वाले हों। प्रकुर्वक-आलोचक की शुद्धि करने के लिए समर्थ हों। अपरिश्रावी = आलोचक द्वारा कहे हुए दोष दूसरों को बताने वाले न हों । निर्यापक = अर्थात् वृद्धत्व आदि के कारण प्रायश्चित वहन करने में असमर्थ हो, तो उसे योग्य प्रायश्चित देकर प्रायश्चित नहीं करने वालों को परलोक का भय मार्मिक ढंग से समझने वाले और गीतार्थ हों। ऐसे प्रायश्चित देने वाले गुरु बताए गए हैं। . अगीतार्थ गुरु शास्त्र के जानकार नहीं होने से कम या अधिक प्रायश्चित देकर खुद भी संसार में गिरते है और दूसरों को भी गिराते है। अतः आलोचना के लिए उत्कृष्ट से ७०० योजन (5600 miles) और काल से १२ वर्ष तक अच्छे गीतार्थ गुरु की खोज करनी चाहिए। विवक्षित क्षेत्र और काल के अन्दर गीतार्थ गुरु न मिलें और पश्चात्ताप के तीव्र भाव रूप भाव-आलोचना हो बजाय, तो वह जीव द्रव्य-आलोचना किए बिना भी केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। जैसे कि झाँझरिया ऋषि की हत्या कराने वाला राजा। सद्गुरु की खोज में कदाचित् मृत्यु भी हो जाय, तो भी आलोचना की अपेक्षा वाला होने से आराधक बनता है। परंतु सद्गुरु मिलने पर भी आलोचना की उपेक्षा करे, तो वह आराधक कैसे बनेगा ? अतः आलोचना अवश्य लेनी चाहिए। STRO21 FOrgeropa g aly सारे
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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