SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहीं मुनसा न जाए...34 सोनामोहरों की वृष्टि की। पुत्री श्रीमती और धन लेकर उसके पिता धनश्री अपने गाँव गये। मुनि ने अन्यत्र विहार किया। अब वह कन्या क्रमशः बड़ी हुई, तब उसके पिता योग्य वर की खोज करने लगे। परंतु उसने अपना दृढ़ निश्चय बताया कि मुनि को छोड़कर वह किसी के साथ शादी नहीं करेगी, तब गाँव में आने वाले मुनियों को गोचरी वहोराने के लिये उसे पिता ने कहा। १२ वर्ष बाद वही मुनि वहाँ पधारे। पादचिह्न से उसने मुनि को पहचान लिया। श्रीमती ने उनके पाँव पकड़ लिये। श्रेष्ठी और राजा ने उनके ऊपर बहुत दबाव डाला। जिससे मुनि ने भी देववाणी को याद कर उसके साथ विवाह के लिये स्वीकृति प्रदान की। विवाह हो गया। परंतु उनका दिल उदास रहा करता था। उन्हें संयम की तीव्र तमन्ना थी। उनको पुत्र हुआ। १२ वर्ष के बाद एक दिन प्रबल पुरुषार्थ कर दृढ़ता से दीक्षा लेने का संकल्प श्रीमती को कहा। वह उदास होकर रुई कातने लगी। लड़का खेल कर घर आया और पूछा कि, "माँ तू रुई क्यों कात रही है?" माता श्रीमती ने कहा, तेरे पिताश्री दीक्षा लेनेवाले है। बालक ने सूत के धागों से पिताश्री के दोनों पाँवो को बारह बार लपेट दिया और तोतली भाषा में कहा कि, अब दीक्षा लेने कैसे जाओगे? मैंने तो आपको बांध दिया है। आर्द्रमुनि का हृदय बालवचन से पिघल गया। उसने आँटी गिनी, तो बारह थी। इसलिये दूसरे १२ वर्ष गृहवास में रहें। इस प्रकार २४ वर्ष गृहवास सेवन करने के पश्चात् पुत्र उमर लायक हो जाने से पुनः चारित्र ग्रहण कर आर्द्र मुनि बने। दूसरी तरफ ५०० सिपाही जो आर्द्रकुमार को ढूंढने निकले थे। वे राजा के डर से वापस अनार्य देश में नहीं गये। परंतु वहीं रहकर चोरी करने लगे। एक दिन आर्द्रमुनि को वे विहार में मिले । उनको उपदेश देकर दीक्षा दी। उसके बाद ५०० मुनि के साथ मगधदेश में आर्द्रमुनि पधारे और वहाँ उत्कृष्ट साधना कर आर्द्रमुनि मोक्ष में गये। यद्यपि आर्द्रकुमार ने पूर्वभव में कायिक पाप नहीं किया था। सिर्फ मानसिक पाप ही किया था, तथापि आलोचना नहीं लेने से पापों के गुणाकार हो गये, जिससे अनार्य देश में जन्म और दीक्षा लेने के बाद २४ वर्ष तक गृहवास में रहना पडा। यूं तो इस भव में आत्मा की शुद्धि हो जाने से आर्द्रकुमार मोक्ष में गये, परंतु बीच में कितनी तकलीफें पड़ी। अतः हमें शुद्ध भाव से आलोचना करनी चाहिए। Jain Education International rsonal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy