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________________ कहीं सुनसा न जाए...32 आर्द्रकुमार पूर्व भव में सोमादित्य नामक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम बंधुमती था। एक बार वैराग्य भाव में आकर उसने अपनी पत्नी के साथ आचार्यदेव श्री सुस्थितसूरीश्वरजी म.सा. के पास दीक्षा ग्रहण की। उसके पश्चात् स्वयं की (भूतपूर्व पत्नी) साध्वी को देखकर पूर्व की काम-कीड़ा का स्मरण हो गया। अहो ! वास्तव में काम वासना कितनी बलवान है? साधुपना स्वीकार करने के पश्चात् भी वह वासना भड़कने लगी। जैसे-जैसे दिन व्यतीत होने लगे, वैसे-वैसे स्नेह बढ़ने लगा। बंधुमती साध्वीजी को यह पता चला कि मुनिराजश्री मेरे निमित्त से रोज पाप बांधते हैं। अतः अनशन कर जीवन का अंत कर लूं। जिससे मेरे लिमित्त से उनको पाप तो नहीं बंधेगा। इस प्रकार भाव दया का चिंतन करके गुरुदेव की अनुमति लेकर अनशन करके शुभ भाव में काल कर वह साध्वाजी देवलोक में गई। महान आत्मायें दूसरों को पाप से बचाने हेतु स्वयं भारी से भारी कष्टों को झेलती रहती हैं। जैसे कि बलदेव मुनि ने पनिहारी के अविवेक को देखकर जीवनभर जंगल में ही रहने का निर्णय कर लिया। जब सोमादित्य मुनि को यह मालूम हुआ कि उसके कारण साध्वीजी ने अनशन कर देह त्याग किया है, तब सोमादित्य मुनि को खूब आघात पहुंचा। ओह! साध्वीजी की कितनी हिम्मत और कैसी अद्भुत वीरता से उनका आत्मबलिदान! मैं कैसा नीच? जिसने भाव से व्रत का भंग कर दिया और जो एक साध्वी के काल धर्म (मृत्यु) का हेतु बना। मेरे जैसे पापी को जीने का क्या अधिकार है? अब पापों को नाश करने के लिए मैं भी अनशन स्वीकार कर लूं। इस । प्रकार विचार कर अनशन करके मुनिश्री मरकर देवलोक में गये। परन्तु माहनाय कम रकर अनशन करके मुनिश्री मरकर देवलोक में गये। परन्तु मोहनीय कर्म के उदय से आलोचना-प्रायश्चित लिये बिना मर गए। अतः देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर अनार्य देश में जन्म लिया, जहां धर्म का अक्षर भी सुनने को न मिले। श्रेणिक राजा और आर्द्रकुमार के पिताश्री दोनों अच्छे मित्र थे। इस कारण वे एक-दूसरे को कीमती उपहार भेजते थे। यह देखकर अभयकुमार के साथ मित्रता बांधने के लिये आर्द्रकुमार ने उसे भेंट भेजी। उसे भव्य भेंट समझकर अभयकुमार ने भी मित्रता बांधने के लिये र दीश्वर भगवान की प्रतिमा मंजूषा में उसे भिजवाई और संदेश में कहलाया कि इस मंजुषा को एकांत में खोलना । रत्नमयी प्रतिमा के दर्शन करने पूर्वभव में विराधित साधु जीवन का स्मरण होने से उसे वैराग्य आया। Jain Education Interational www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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