SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 99...कहीं सुना न जाए आंध्र जैसे प्रदेशो में जीते जी जलकर मरना पडता प्रायश्चित की ताकत... है। महिष बनकर भरुच के ऊँचे ढलानों पर पानी उठाकर चढ़ना पड़ता है। ओह ! तब याद आयेगा केन्सर की गाँठ हो, फिर भी अभिमान आदि को दूर कर काली स्याही कि प्रायश्चित ले लिया होता तो...! ऑपरेशन-SURGERY करने में आये, तो जैसी जीवन की काली किताब को गुरु के मरीज़ अच्छा हो जाता है। परंतु जो एक चरणो में सौंप दो। एक भी पाप मन में न रह प्रश्नोत्तर छोटा-सा भी काँटा पाँव में रह जाये, तो जाये... तन का पाप... मन का पाप... वचन प्रश्न :- आलोचना करने से क्या फल होता है ? इंसान को मार डालता हैं। इसी प्रकार का पाप..., सभी प्रायश्चित के प्रताप से उत्तर :- रागद्वेष के कारण संक्लिष्ट मन से कर्म बड़े-बड़े पाप जीवन में हो गये हो, तो भी जलकर खाक हो जायेंगे| ATOM BOMB से भी प्रायश्चित-आलोचना के प्रताप से जीव ज्यादा ताकत है इस प्रायश्चित में !! का बंध होता है। परंतु आलोचना करते समय अहंकार, माया आदि रागद्वेष कमजोर हो जाने से धवल हंस के पंख की तरह निर्मल बन यदि पाप करते ही रहे और विशद्धिवाले चित्त से कर्मों का क्षय होता है और सकता है। परंतु जो एक छोटा-सा भी आलोचना-प्रायश्चित से शुद्ध न हुए हों, तो सरलभाव प्राप्त होने से कर्मों का संपूर्ण क्षय होने पाप मन में छुपा दिया, तो सत्यानाश.... आ जाईये वन्स मोर.... ONCE MORE पर मोक्ष भी हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में भवोभव बिगड़ जाते हैं। इसलिये जाओ नरकगति में.... जहाँ परमाधामी नारक जीव कहा है कि, “आलोयणाओणं भंते ! जीवे किं गीतार्थ गुरुभगवंतो के चरणो में... शरम, को भयंकर दुःख देते हैं.... शरीर के टुकड़े- जणयई मायाणिया ? मिच्छ दरिसणसल्लाणं टुकड़े करता हुआ असिपत्र वन, गरमागरम मोक्खमग्गविग्धाणं अणंतसंसारबंधणाणं उद्धरणं जस्ता.... हड्डी-माँस-खून से भरी हुई करेई उज्जुभावं च जणयई उज्जुभावपडिवा ओणं वैतरणी नदी आदि की वेदना, जो छक्के छुड़ा वियणं जीवे अमाई इत्थिवेयं नपुसंगवेयं च 7. दे, ऐसी परिस्थिति... पल पल मृत्यु को वच्चई पुव्वबद्धं च णं निज्जरई" चाहे... तो भी मृत्यु जहाँ कोसों दूर रहती है। अर्थात् आलोचना करते समय मोक्षमार्ग में अथवा तो जाईये पशुयोनि में सुअर बन कर विघ्नभूत अनंत संसार के बंधन मिथ्यात्वा Jan Education intomational
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy