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________________ कहीं मुनझा न आए....98 प्रायश्चित से अरणिककुमार की आत्मशुद्धि... हो गयी। माँस का टुकड़ा समझकर चील उसे लेकर आकाश में उड़ने लगी। संयोगवश वह मुहपत्ति राजमहल में रानी के आगे है गिरी। मुहपत्ति को देखकर रानी ने नौकरों के पास जाँच करवाई, तब पता चला कि राजा ने ही हुकुम करके तपस्वी मुनि की हत्या करवाई है। भाई मुनि की करुण मृत्यु जानकर रानी का हृदय थरथर काँपने लगा। आँखों में से बैर-बैर जितने आँसू गिरने लगे। राजा को भी हकीकत का पता चलने पर दोनों ती-फाड़ रुदन करने लगे। संसार में अघटित और अनुचित यह काम हुआ है। अब यदि संसार नहीं छोडेंगे, तो ऐसे काम होते रहेंगे, इस प्रकार संसार के स्वरूप का विचार कर दोनों ने दीक्षा लेकर आलोचना ली। एक सज्झाय में भी कहा है कि, 'आलोई पातकने सवि छंडी कठण कर्मने पीले' आलोचना प्रायश्चित तप वगेरे करके केवलज्ञानी बनकर दोनों मोक्ष में गये। ____यहाँ पर यह चिंतन करना चाहिये कि पूर्वभवमें चीभड़ी की छाल उतारने का प्रायश्चित न लिया, तो शरीर की चमड़ी उतरवानी पड़ी और इस भव में मुनि की हत्या करवायी, तो भी प्रायश्चित ले लिया, तो राजा-रानी मोक्ष में गये। इस चिंतन में ओतप्रोत होकर आलोचना लेने में प्रमाद नहीं करना चाहिये। अरणिक मुनि और उनकी माता ने चारित्र लिया था। संयम का विशुद्ध पालन करते करते मुनिश्री एक दिन ग्रीष्म ऋतु में दोपहर को गोचरी लेने के लिये गये थे। वहाँ धूप में उनके पाँव जल रहे थे। सिर भी धूप के कारण गरम हो चुका था। जैसे फूल मुरझा जाता है, ऐसी हालत मुनि की हो गयी थी। तब मुनिश्री एक मकान के नीचे खड़े रहे। कामवासना से आकुल बनी हुई एक नारी ने अपनी दासी के द्वारा मुनि को बुलवाया। गोचरी वहोराने के बहाने से दासी मुनि को ले गयी। नारी के कामण भरे वचन से मुनि का पतन हो गया। मुनि वहाँ के रंगराग में फँस गये। मुनिश्री की सांसारिक मातुश्री गली-गली में पागल व्यक्ति की तरह उसे ढूंढने लगी। माता की यह हालत देखकर मुनिश्री को बहुत आघात लगा। वह महल में से उतरकर माँ के चरणों में गिर पड़ा। सांसारिक मातुश्री साध्वीजी ने उसे समझाकर गुरु के पास भेजा, वहाँ मुनिश्री ने आलोचना ली। अंत में धगधगती शिला पर संथारा कर मुनि ने अनशन स्वीकारा और वे केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गये। महाव्रत का खंडन करने पर आलोचना-प्रायश्चित लेकर अरणिक मुनि ने आत्मशुद्धि की। यह जानकर हमें भी आत्म शुद्धि का अमोघ कारण रुप आलोचना अवश्य करनी चाहिये। Jain Education intemational For sersonal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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