SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहीं सुनसा न जाए...52 के आवेश में पत्र ने सगी माँ को, "क्या तू शूली पर चढ़ने गई थी?" और माँ चंद्राने पुत्र को, "क्या तेरी कलाईयाँ कट गई थी?" ऐसा कहा। मित्र ने कहा- अरुणदेव! तेरा ससुराल इस गाँव में है। हम हैरान-परेशान हो चुके हैं। चलो हम तुम्हारे श्वसुर के घर चलें। अरुणदेव ने कहा-इस दरिद्रावस्था में मैं वहां कैसे जाऊं? मित्र ने कहा-कि तू यहाँ बैठ। मैं वहाँ जाकर आ जाता हूं। मित्र गाँव में गया। अरुणदेव एक देवमन्दिर में निद्राधीन हो गया। समुद्र में तैरने के कारण थकावट से शीघ्र ही खर्राटे भरने लगा। इतने में देवणी अलंकृत होकर उपवन में आयी। वहां किसी चोर ने तलवार से उसकी कलाई काट कर कंकण ले लिए और वह भाग गया। देवणी ने शोरगुल मचाया। सिपाही चोर के पीछे लग गये। छिपने या भागने की जगह न होने के कारण चोर देव-मंदिर में घुस गया और अरुणदेव के पास रक्तरंजित तलवार और कंकण रखकर भाग गया। पीछा करने वाले सिपाही अरुणदेव के पास आए और चोरी का माल उसके पास देखकर, उसे पकड़ा और मारा । बाद में सिपाही उसे राजा के पास ले गए। इस प्रकार दिन दहाड़े कलाई काटने वाला जानकर राजा ने अरुणदेव को शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। जल्लादों ने उसे शूली पर चढ़ा दिया। ___ इधर मित्र भोजन आदि लेकर आया। पूछ-ताछ करने पर मालूम हुआ कि अरुणदेव को तो शूली पर चढ़ा दिया गया है। जसादित्य को इस बात का पता चलने पर वह भी वहाँ पर आया और अपने दामाद को इस प्रकार शूली पर चढ़ाया गया है। यह सर्व वृत्तांत जानकर उसे लगा कि यह बहुत बड़ा अनिष्ट हुआ है। यह विचारकर वह राजा के पास गया और कहा कि ''हे राजन! ये तो मेरे जमाईराज हैं। वे तख्ते के सहारे से समुद्र से बचकर आये हुए हैं। अतः मेरी पुत्री की कलाई किसी ओर ठग ने काटी होगी।" जसादित्य द्वारा इस प्रकार सुनकर राजा ने ली पर से अरुणदेव को उतरवा दिया। अनेक उपचारों से उसे स्वस्थ किया। अन्त में अरुणदेव और देवणी दोनों अनशन करके देवलोक में गये। इस प्रकार क्रोधी वचनों की आलोचना न लेने के कारण अनन्तर भव में चंद्रा के जीव को कलाई कटवानी पड़ी और अरुणदेव को शूली पर चढ़ना पड़ा। अतः क्रोधादि कषायों की भी आलोचना लेनी चाहिये। Jain Education Internation For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy