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49...कहीं सुनसान जाए
राजा के रसोईये ने हरिण का मांस पकाया। राजा और रानी आनंद से प्रशंसा करते हुए मांस खा रहे थे। इतने में दो मुनि वहाँ से गुज़रे। एक ज्ञानी मुनिश्री ने दूसरे मुनिराजश्री से कहा कि कर्म की कैसी विचित्रता है? जिस सुनंदा के निमित्त से बेचारा रूपसेन केवल आँख और मन की कल्पना से
राजा और रानी हरिण का पकाया हुआ मांस खा कर्म बांधकर ७-७ भव से भयंकर वेदना का शिकार हुआ।
यह देखकर दोनों मुनिओंने सिर हिलाया। वही सुनंदा उसका मांस खा रही है। इस प्रकार मंद स्वर से कहकर सिर हिलाया। यह देखकर राजा-रानी ने मुनिश्री से सिर हिलाने का कारण पूछा। तब मुनि ने सुनंदा को अभयदान देने के वचन पर स्पष्ट करते हुए कहा कि जिस रूपसेन के ऊपर सुनंदा को स्नेह था, उसी जीव का मांस सुनंदा खा रही है। अतः हमने आश्चर्य से सिर हिलाया। इस प्रकार मुनि के पास से हकीकत सुन कर सुनंदा को खूब आघात लगा। ओह गुरुदेव! मेरे प्रति आँख और मन के पाप करने वाले की ७-७ भव तक ऐसी दुर्दशा हुई है, तो मेरा क्या होगा? मैं तो उससे भी आगे बढ़कर कायिक पाप-पंक से मलिन बनी हुई हूँ। मुनिश्री ने कहा कि किये हए अपराधों की आलोचना करके चारित्र लेने से आत्मा शुद्ध हो जाती है एवं मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इत्यादि तात्त्विक उपदेश सुनकर सुनंदा ने दीक्षा ग्रहण कर ली। आलोचना का प्रायश्चित लेकर संयम का पालन करते हुए सुनंदा ने अवधिज्ञान प्राप्त किया। eirary org