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________________ कहीं मुनझा न जाए...54 इस भयंकर विचार की मुझे आलोचना लेनी चाहिये। ऐसा विचार करके उसने आलोचना लेने के लिये प्रयाण किया, परन्तु प्रयाण करते ही पैर में कांटा चुभ गया। उस वक्त साध्वीजी के मन में यह विचार अंकुरित हुआ कि "यह अपशकुन हुआ है। अतः आलोचना लेने पर मैं अधम गिनी जाऊंगी। गुरुदेव मुझे कैसी सत्त्वहीन गिनेंगें? और शल्ययुक्त रहना भी उचित नहीं है-इत्यादि" विचार करके उसने दूसरे के नाम से आलोचना लेने का निर्णय किया। उसने गुरुदेव के पास जाकर पूछा - "हे गुरुदेव ! किसी को इस प्रकार का विचार आया हो, तो क्या प्रायश्चित आता है?" मैंने ऐसा विचार किया है, यह बात छिपा दी। उसके पश्चात् १० वर्ष तक छट्ठ-अट्ठम-चार उपवास, पांच उपवास और पारणे में निवी की। २ वर्ष तक भुने हुए धान्य का आहार किया। १६ वर्ष तक मासक्षमण किये। २० वर्ष तक आयंबिल किये। २ वर्ष तक भुने हए निर्लेप चीणे खाये। इस प्रकार ५० वर्ष तक घोर तप किया, फिर भी पाप की शुद्धि नहीं हुई। जिससे आर्तध्यान में मरकर, उसने असंख्य भव किये। अनागत चौविशी के प्रथम तीर्थंकर के शासन में वह मोक्ष में जायेगी। इस प्रकार माया कपट कर शुद्ध आलोचना नहीं ली। तो उसका भव-भ्रमण बढ़ गया। अगर उसने मानसिक आलोचना शुद्ध ले ली होती, तो न उसे इतना तप करना पड़ता और न दुर्गति भी होती। पाप को छिपाने से उसका तप भी सफल नहीं हुआ। अतः मानसिक आलोचना लेकर शुद्ध बनना चाहिए। आज कुछ जीव वाचिक और कायिक आलोचना ले लेते हैं। जैसे कि अपशब्द बोलें, जीव मरे इत्यादि, परन्तु मन से कषाय-वासनादि के जैसे-तैसे विचार किये, ऐसी मानसिक आलोचना बहुत कम जीव लेते हैं। मानसिक आलोचना के सिवाय सम्पूर्ण शुद्धि नहीं होती है। अतः मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों प्रकार से आलोचना लेनी चाहिए। कदाचित् मानसिक आलोचना भूल से रह गई हो, या जानकर रख ली हो, तो वापस आलोचना लेनी चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jaimelibrary.org
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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