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________________ 67...कहीं सुनसा न जाए ऋषिदत्ता की हृदय की विशालता... एक दिन राजकुमार को प्रसन्न देख कर ऋषिदत्ता ने भूतपूर्व सारी हकीकत सुनाकर कहा कि मैं ही तापसकुमार बनी थी। जिससे कनकरथ को मित्र के वियोग की व्यथा भी मिट गई। लेकिन ऋषिदत्ता ने वरदान की बात याद दिलाकर कहा कि, "अब वरदान दीजिये।" तब कुमार ने कहा कि तू जो मांगे, वह देने के लिए मैं तैयार हैं। परोपकारिणी ऋषिदत्ता ने कुमार से कहा कि जैसा बर्ताव आप मेरे प्रति रखते हो, वैसा ही बर्ताव आज से रूक्मिणी के प्रति रखिए। यही मुझे वरदान के रुप में चाहिये। स्त्री-हृदय की इतनी उदारता देखकर वह आश्चर्यमुग्ध हो गया। मनोमन उसकी विशालता के प्रति झुक पड़ा। यह कैसी नारी ? जिसने ऐसा भयंकर अपराध किया, उसके ऊपर भी प्रेम और दया की भावना। कुमार की आँखों से हर्ष के आँसू छलकने लगे। "अहो ! अभाव तो दूर रहा, परन्तु समग्र अपराधों को माफ कर यह इनाम ! गज़ब-गज़ब कर दिया ऋषिदत्ता तूने !" राजकुमार बोल उठा। राजकुमार ने उसकी बात का स्वीकार किया। उसके बाद राजकुमार रूक्मिणी पर भी समान रूप से स्नेह करने लगा। कुछ दिन पश्चात् उसने दोनों पत्नियों के साथ रथमर्दन नगर की ओर प्रयाण किया। वहाँ पर पहुँच कर हेमरथ राजा के चरणों में नमस्कार किया। हेमरथ राजा का पश्चाताप व दीक्षा... सारा वृत्तांत सुनकर राजा को बहुत पश्चात्ताप हुआ। अरर ! एक निर्दोष सती को मैंने कितने भयक कष्टों का शिकार बना दिया। धिक्कार हो मेरे अहंभाव और अज्ञानता को ! उसने ऋषिदत्ता से क्षमा याचना की। राजा के मन पर इतनी चोट लगी कि उसका हृदय पानी-पानी हो गया। समस्त संसार के प्रति उनको वैराग्य उत्पन्न हो गया। यह संसार ही भयंकर है, क्योंकि संसारी मानव निर्दो JainEducation.internationi
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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