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________________ कहीं सुना न जाए....62 होने लगा। उसने सोचा आज जरुर कोई लाभ होगा। इतने में उस वहाँ तापस कुमार को देखा। देखते ही उस पर राजकुमार एक दिन घूमती-फिरती सुलसा तापसी भी उसी आश्रम में आ पहुँची। तापसकुमार ने अनुमान लगाया कि मुझे घर से निकालने वाली यही तापसी अत्य-त मोहित हो गया। होनी चाहिए। तापस ने उससे कहा कि गुरु के उपदेश से किये हुए तप के उसने नमस्कार कर तापस कुमार से पूछा कि "आप यहाँ द्वारा मुझे अभी तक विद्या प्राप्त नहीं हुई है। तब तापसी को लोभ जगा कि कैस ?" तब तापस कुमार ने अपना स्वरूप छिपाते हुए कहा कि यह गुरु में निष्ठा रखने वाला तपस्वी है। इसलिए मैं इसके साथ अच्छा संबंध यहा पर हरिषेण नाम का तापस रहता था। उसकी एक लड़की रखूगी, तो जैसे इसको विद्या मिलेगी, तो इनसे मुझे भी विद्या मिल जायेगी। थी। उसका नाम ऋषिदत्ता था। उसकी शादी किसी राजकुमार इसलिए तापसी ने तापस कुमार से कहा कि मेरे पास अवस्वापिनी वगैरह के साथ करके तापस मर गया। घूमता-घूमता मैं यहाँ आया और विद्या है और मैंने ऋषिदत्ता पर इसका प्रयोग करके सफलता प्राप्त की है। सुनसान प्रदेश देखकर मैं यहीं पर रहने लगा। तापस कुमार ने उससे सारा वृतान्त जानकर एक वाक्य में प्रत्युत्तर दे दिया राजकुमार उसे देखकर एवं उसके विनयपूर्ण वचन सुनकर कि मुझे ऐसी पाप विद्या की जरुरत नहीं है। परंतु मन में तापसकुमार समझ अत्यधिक प्रसन्न हुआ, मानो उसे ऋषिदत्ता ही मिल गई हो। गया कि मुझे आपत्ति में डालने वाली यह दुष्ट सुलसा ही है। लेकिन अवसर आने पर देखा जायेगा। इस प्रकार विचार कर वह स्वस्थ हो गया। उसने तापस कुमार से आग्रहपूर्वक कहा कि आपको देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसलिये तापस कुमार व राजकुमार की मित्रता... एक बार बहुत देर होने पर साप मेरे साथ रहिये । तापस कुमार ने कहा कि "गृहस्थों के साथ भी तापस कुमार वापस नहीं लौटा, तब राजकुमार स्वयं उसके पास गया पस का क्या लेना-देना ?" जब राजकुमार ने विशेष आग्रह और आग्रह पूर्वक अपने शामियाने में उसे ले आया। रात भर दोनों साथकिया, तब तापस कुमार ने साथ रहने के लिए हां भरी। साथ सोकर परस्पर बातचीत करने लगे। तापस कुमार ने राजकुमार को उद्विग्न जानकर पूछा कि ऐसी कैसी ऋषिदत्ता थी कि अभी तक आपका मन संतप्त रहता है व आपको चैन क्यों नहीं पड़ता? तब राजकुमार ने गद्गद् स्वर से उसके रूप, लावण्य और गुणों का कुछ वर्णन किया और कहा कि "हे मित्र ! एक जीभ से कभी उसका वर्णन पूरा नहीं हो सकता।" www.janeite Foucation International
SR No.004221
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C020
File Size18 MB
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