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कहीं सुना न जाए...74
पूर्व भव में भी हरिश्चन्द्र और तारा राजा-रानी थे। एक दिन दो मुनिवरों को देखकर रानी कामवश हो गई। उसने दोनों मुनियों को दासी द्वारा बुलवा कर हाव-भाव दिखाने शुरू किये। मेरु की तरह अड़िग मुनियों के सामने उसकी सभी मुरादें निष्फल गयी।
उसकी प्रार्थना को ठुकराते हुए मुनिवर ने उसे बहुत समझाने की कोशिश करते हुए कहा कि, "विष्टा से भरी हुई आकर्षक अस्तर वाली थैली पर मोहित होना अज्ञानता है। उसी तरह मलमूत्र से भरे पानवीय शरीर पर मोहित होना अज्ञानता है, इत्यादि अनेक तरीकों से दोनों मुनियों के द्वारा समझाने पर भी वह टस से मस न हुई। क्योंकि जिसे मोह का नशा चढ़ा हुआ हो, मोह के उल्टे चश्मे लगे हुए हो, तो सच्ची बात उसके गले कैसे उतरे ?... निराश होकर रानी ने छेड़ी हुई नागिन की तरह बदला लेने के लिये हाहाकार मचा दिया। मेरे शील के ऊपर इन दुराचारी साधुओं ने आक्रमण किया है। बचाओ ! बचाओ !
सिपाहियोंने मुनियों को पकड़कर राजा के सामने उन्हें खड़े किये।
राजा की आँखों में से अग्नि की ज्वाला बरसने लगी। अरे... रे.. ऐसी नीचवृत्तिवाले ये साधु हैं। जाओ... कोड़े (हन्टर) मार-मार कर इनको अधमरा बना दो..... और कारागार में डाल दो ! इनको रोज के १००-१०० कोड़े मारना।
एक महीने के बाद राजा को वस्तु स्थिति मालूम पड़ने पर उन्हें जेल से मुक्त कर दिया। राजा व रानी ने क्षमा माँगी । किंतु आलोचना-प्रायश्चित नहीं लिया। अतः हरिश्चन्द्र राजा के भव में उन्हें चंडाल के घर पर १२ साल तक स्मशान में काम करने के लिए रहना पड़ा तथा तारा रानी पर राक्षसी होने का कलंक आया व पुत्र रोहित का वियोग हुआ।
ये सारे कष्ट उन्हें पूर्वभव में किए हुए पापों की आलोचना-प्रायश्चित न लेने से आए। यह जानकर हमें भी आलोचना-प्रायश्चित लेना चाहिए।
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