Book Title: Paschattap
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 73
________________ कहीं शुनझा न जाए...64 यह सुनकर राजकुमार अत्यन्त खिन्न हो गया। अरे ! एक महासती के ऊपर ऐसा भयंकर कलंक इस पापिणी ने अपने स्वार्थ के लिये लगाया। राजकुमार के मन में रूक्मिणी के प्रति अत्यंत तिरस्कार भाव जागा और खुद को कोसने लगा कि मेरे आश्रित व्यक्ति को मैं बचा न सका और मेरी मजबूरी के पाप से एक महासती परलोक में पहुँच गयी। राजकुमार अग्निस्नान करने को तैयार हुआ... इधर तापसकुमार के रूप में रही हई ऋषिदत्ता आनंद विभोर हो गई, क्योंकि आज वास्तव में उसला कलंक उतर गया। घर-घर यही बात थी। सुंदरपाणी राजा ने सुलसा तापसी का तिरस्कार कर उसे अपने राज्य से निकाल दिया। परंतु फौलादी पुरुष के विचार भी फौलादी थे। अनेक रीति से ETERNA FACI इसलिये वह मन ही मन खुश हो रही थी। राजकुमार कनकरथ क्रोध से तमतमा उठा। एक निष सती के ऊपर कलंक लगाने वाली रूक्मिणी के प्रति उसे तिरस्कार भाव जगा। इतना ही नहीं, उसे स्वयं पर भी तिरस्कार भाव जगा। अरर ! मैं सर्वथा निकम्मा निकला। एक निर्दोष सती पत्नी की रक्षा भी नहीं कर पाया। अतः मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं है, आश्रित की सुरक्षा करने में सफल मानव के लिए अग्नि ही शरण है और सती को पीड़ा पहुंचाने वाले का यही प्रायश्चित है। इस प्रकार विचार कर उसने चिता जलाई। राजकुमार उसमें कूदकर अग्नि स्नान करने की तैयारी करने लगा। तब दूसरे लोगों को भी असलियत मालूम हुई। राजकुमार का निर्णय पवन की तरह सारे नगर में फैल गया, साथ ही ऋषिदत्ता की सुगंध और रूक्मिणी की दुर्गंध भी.... जनमुख में बस यही तीन बातें चल रही थी कि, धन्य है महासती ऋषिदत्ता को... धिक्कार हो रूक्मिणी को... और किसी भी संयोग में राजकुमार को बचा लिया जाये। समझाने पर जब राजकुमार ने जल मरने की जिद्द न छोड़ी, तब सुन्दरपाणी तापसकुमार के पास गया और राजकुमार को बचाने के लिए उससे प्रार्थना की। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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