Book Title: Paschattap
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 77
________________ कहीं सुनसा न जाए...68 | जीवों पर भी जुल्म करता है। इतने में वहाँ चार ज्ञान वाले आचार्यदेव श्री यशोधरसूरीश्वरजी म.सा. पधारे वैराग्य वासित हृदय वाले हेमरथ राजा ने कनकरथ को राज्य देकर उनके पास दीक्षा ली। कनकरथ व ऋषिदत्ता की दीक्षा... अब कनकरथ राजा बना। समय बीतने पर ऋषिदत्ता ने सिंह को स्वप्न में देखने के बाद सिंह के समान पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम सिंहरथ रखा। एक दिन प्राकृतिक दृश्य को देखने में लीन राजा-रानी वातायन के द्वारा बाहर आकाश में गौर से देख रहे थे... संध्या काल में सूर्य के प्रभा मंडल से प्रकाशित बादलों का समह विविध रंगों से ससज्ज होकर अनेक रूप-रंग में नाच रहा था। रानी ! इधर तो देखिये... इन बादलों के विविध रंग कितने सुंदर ग रहे हैं।.... और थोड़ी ही देर में संध्या के बादल तितर-बितर होकर नष्ट हो गये। तब राजा की चिंतनधारा आगे चलने लगी, अरे... मेरा जीवन भी इसी तरह एक दिन नष्ट हो जायेगा ? विचारों के प्रचंड झंझावात से महाराजा का हृदय हिल उठा। मनुष्य जीवन का क्या भरोसा? यह भी कनकरथ ने राज्य का भार पुत्र को वायु जैसा अस्थिर है। आराधना से वंचित सौंपा व राजा-रानी दोनों ने दीक्षा को होकर मैं कहाँ जन्म पाऊँगा ? ऐसे वैराग्य स्वीकार किया। विशुद्ध संयम की। के फव्वारे राजा के हृदय-बाग में उछलने ___साधना करके केवलज्ञान पाकर दोनों लगे। इतने में उद्यान में वे ही आचार्यदेव मोक्ष में गये। श्री यशोधरसूरीश्वरजी म.सा. हेमरथ मुनि के सोचिये इन विचित्र कर्मों की साथ वहाँ पधारे। गति ! एक छोटी-सी चिनगारी भी प्रवचन सुनने के बाद ऋषिदत्ता ने दावानल का रूप ले सकती है। इसी उनसे पूछा कि "मैंने पूर्वभव में क्या पाप प्रकार आलोचना न लेने पर एक किया था, जिससे बेगुनाह मुझको इतना कष्ट छोटे-से कटु कलंकवचन से कितना इस जीवन में भोगना पड़ा।" आचार्यदेवश्री ने कष्ट भुगतना पड़ा। ऋषिदत्ता यदि राजकुमारी गंगसेना के भव में संगा उसके पूर्व भव बताते हुए कहा कि "तूने पूर्वभव साध्वीजी को राक्षसी कहने के में ईर्ष्या के परवश होकर संगा साध्वीजी के पाप की आलोचना ले लेती, तो ऊपर कलंक दिया था और उसकी आलोचना न उसे इतने कष्टों का शिकार नहीं ली । इससे तुझे इतना कष्ट भुगतना पड़ा है। बनना पड़ता और शीघ्र आत्मयदि तू आलोचना प्रायश्चित्त ले लेती, तो तुझे यह कल्याण हो जाता। अतः हमें कष्ट भुगतने की नौबत नहीं आती।" आलोचना लेकर अपनी आत्मा यह सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हआ। को शुद्ध बनानी चाहिये | ary.ora.

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