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एवं अपेक्षा से साधुता को
कहीं मुरझा न जाए...12
गुरुदेवश्री कहलानेवाली आत्मा मिथ्यात्व में पहुँच
। अतः ऐसे विचार भी गुरुदेवश्री स्वयं के दिल में कभी आने नहीं देते। इसलिए तू
निःसंकोच होकर आलोचना कह देना, जिससे शुद्ध होकर शीघ्र मोक्ष का भोक्ता हो जाएगा। आलोचना कहनी एक सुकृत
हैं। सुकृत करनेवाले को गुरुदेवश्री कभी फटकारते नहीं, फटकारे तो सुकृत की अनुमोदना खत्म होकर गुरुदेव को भी अनेक भव करने पड़ते हैं। रूक्मिणी आदि के उदाहरण जानकर अरे महामानव! तू दिल में तिलतुषमात्र भी पाप मत रखना। तू महान आराधक बनेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।
अरे आराधक आत्मा! पापरूपी अपराध जैसा किया हो, वैसा ही कह देना। जरा-सा भी संकोच मत रखना। कई बार जान बुझकर पाप किया हो, तो कई बार अनजान में भी किया हो, किसी समय किसी की प्रेरणा से भी किया हो, तो किसी समय जबरदस्ती से भी किया हो, कई धर्मस्थानों में भी किया हो, कई बार होटलादि में किया हो, कई बार दिन में किया हो, कई बार रात में, कई बार रागभाव से किया हो, अतः उसे करने में आनन्द भी आया हो, कई बार अनिच्छा से या द्वेष से भी करना पड़ा हो, यह सब सरल भाव से कह देना । कहने की हिम्मत न हो अथवा याद न रहे, तो लिख देना। लिखने के पश्चात् ३-४ बार पढ़ लेना। बार-बार याद करके विस्तारपूर्वक लिखने में जरा
भी भय रखना मत। शास्त्रों में कहा है कि... सहसा अण्णाणेण व भीएण व पिल्लिएण वा । वसेणायंकेण व मूढेण व रागदोसेहिं ।। १ ।। जं पंच कयमकज्जं उज्जुयं भणई। तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को ॥२॥
यकायक, अज्ञान, भय, दबाव, व्यसन, संकट, मूढ़ता व रागद्वेष से जो भी अकार्य किया हो, वह सरलता से मायारहित और हंकाररहित कह देना चाहिए ।
अरे जीव! तू गुनाह करने से डरा नहीं, तो अब आलोचना के समय क्यों डरता है ? पाप करते समय शर्म नहीं रखी, तो फिर प्रायश्चित के समय क्यों शर्म रखता है? अरे आत्मन् । आलोचना और प्रायश्चित तो आत्मा के भवोभव सुधार देते हैं। अरे केवलज्ञान क पहुँचा देते हैं। महान समाधि की ओर ले जाते हैं।
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