Book Title: Paschattap
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 29
________________ कहीं सुना न जाए....20 उपर्युक्त कहे हुए जो पासत्थ आदि नहीं मिले, तो राजगृही नगरी में गुणशील चैत्य (मंदिर) आदि में जिन देवताओं ने तीर्थकर, गणधर वगैरह। महापरूषों को आलोचना देते हुए देखे हैं, उनको अट्ठम आदि तप से प्रसन्न करके उनके पास आलोचना ले । कदाच ऐसे देवों का च्यवन हो गया। हों तो दूसरे देव को स्वयं की आलोचना कहकर महाविदेह क्षेत्र में से अरिहंत भगवान आदि के पास से प्रायश्चित मँगवाये।। - यदि वह भी संभव न हों, तो प्रतिमाजी के सामने आलोचना कहकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध बने । यदि उसकी भी शक्यता नहीं हो, तो पूर्व और उत्तरदिशा में अरिहंत एवं सिद्ध भगवान की साक्षी में आलोचना लेकर प्रायश्चित को स्वीकार करें, परन्तु पाप के प्रायश्चित लिये बिना नहीं | रहे क्योंकि शल्य सहित मृत्यु प्राप्त करने वाले विराधक बनते हैं। अनंत संसार परिभ्रमण करते हैं। यहां विशिष्ट रूप से ध्यान रखने योग्य है कि आलोचना का प्रायश्चित स्वगच्छीय आचार्यश्री आदि के पास में ही लेना चाहिए। यदि उनका संयोग ही नहीं मिले, तो ही अन्त में पूर्व या | उत्तरदिशा में मुँह रखकर अरिहंत की साक्षी में आलोचना कहनी चाहिए। परन्तु स्वगच्छीय आचार्यश्री आदि का संयोग मिलता हो, तो पूर्व या उत्तर । दिशा में मुँह रखकर अरिहंत की साक्षी में आलोचना कहे, तो वह आराधक नहीं बनता। शुद्ध आलोचना लेने से ८ गुण प्रकट होते हैं :- लघुआ ल्हाई जणणं अप्परपरानिवत्ति, अज्जव। सोही दुक्करकरणं आणा निसल्लत्तं सोहिगुणा॥१॥ _ अर्थात् १) जैसे माथे से भार उतारने के पश्चात् भारवाहक हल्कापन महसूस करता है, उसी प्रकार शुद्ध आलोचना करने के पश्चात् हृदय आर मस्तक में हल्कापन महसूस होता है, क्योंकि दोषों का बोझ दिल दिमाग पर नहीं रहा। २) ल्हाई जणणं अर्थात् आनंद उत्पन्न होता है। जिस तरह कोई पैसे खर्च कर सुकृत करें, तो उसे उस सुकृत के आनंद की अनुभूति होती है। उसी तरह मन को तैयार कर आलोचना शुद्धि करने रूप जो सुकृत करें, तब उसे उस सुकृत के आनंद की अनुभूति होती है। ३) आलोचना कहने से खुद के दोषों की निवृति होती हैं और उसे देखकर दूसरे भी आलोचना शुद्धि करते हैं। जिससे स्व-पर दोषो की निवृत्ति होती है। ४) सरलता गुण प्रकट होता है। ५) दोषरूपी मैल दूर हो जाने से आत्मा शुद्ध बनती हैं। ६) पूर्वभवों का अभ्यास होने से दोषों और पापों का सेवन हो जाता हैं, वह दुष्कर नहीं हैं, परंतु जो उसकी आलोचना गुरुदेव से कहे, वह दुष्करकारक कहलाता हैं, क्योंकि मोक्ष के अनुरुप प्रबल वीर्य के उल्लास विशेष के द्वारा ही वैसी आलोचना कही जाती है। जिनेश्वर भगवान की आज्ञा की आराधना होती है, क्योंकि तीर्थंकर परमात्माने ही गीतार्थ गुरु के पास आलोचना लेने के लिये कहा है। क) दोषरूपी शल्य से मुक्त बनते हैं। Lax Education Intem For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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