Book Title: Pakshika Sutram
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
View full book text
________________
साक्षिकं । इह च ससाक्ष्यं कृतमनुष्ठानमत्यन्तदृढं जायत इति साक्षिणः प्रतिपादिताः। पृथग्जनेऽपि प्रतीतमेवैतद्यदुत ससाक्षिको व्यवहारो निश्चलो भवतीति । एवं च कृते यत्संपद्यते तदाहएवं भवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा सञ्जयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। __ एवमिति प्रागुक्तप्रत्याख्याने संपन्ने सति किमित्याह-भवति जायते, क इत्याह-भिक्षुर्वेति आरम्भत्यागाद्धर्मकायपरिपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुरेवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्मइति कृत्वा भिक्षुर्विशेष्यते । तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीत्याह-संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तत्र सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतस्तथा विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतस्ततश्च संयतश्चासौ विरतश्च संयतविरतः । तथा प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन विनाशितं प्रत्याख्यातं च हेत्वभावतः पुनर्वृध्यभावेन निराकृतं पापमशुभं कर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधस्ततः पुनः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः, दिवा वा दिवसे वा रात्री वा रजन्यां वा एकको वा कारणिकावस्थायामसहायो वा, पर्षद्गतो वा साधुसंहतिमध्यवर्ती वा, सुप्तो वा रात्रिमध्ययामद्वये निद्रागतो वा, जाग्रद्वा निद्रावियुक्तो वेति । सांप्रतं प्राणातिपातविरतिमेव स्तुवन्नाहएस खलु पाणाइवायस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्ससिए आणुगामिए सवेसिं पाणाणं सवेसिं भू
Jain Education in
For Private & Personel Use Only
Wijainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170