Book Title: Painnay suttai Part 1
Author(s): Punyavijay, Amrutlal Bhojak
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
કર
१०
पण्णयसुत्ते
३८००. भत्ति- बहुमाण - विणएण एवमभिवंदिए सु ( स ) देवीहिं । जलधरगंभीरेणं सरेण अह वासवो भणइ ।। २५९ ॥
५ ३८०२. सुठुयरं जेसिं पुण कुसु (स्सु )इपुण्णा निरंतरं कण्णा । भावेण भण्णमाणं निसुणंतु सुराऽसुरा सव्वे ।। २६१ ॥ ३८०३. अण्णाण - पमाएणं अहवा वि य अणुस्स (स) यप (प)ओगेणं । मिच्छत्ताभिनिवेसेण वा वि वीसंस (? भ) ओ वा वि ॥ २६२ ॥ ३८०४. जइरिच्छाए भएण व वेरेण व पुव्वभवनिवद्धेसु (? ण)
जो चिंतेज जिणाणं मणसा वि विहं सुरो पावं ॥ २६३ ॥ ३८०५. तस्स उ नियएण अहं दोसेण पलीवियं असरणस्स । फुट्टीहि सिरं सिग्घं सुरस्स सारेण (?) नीसेसं || २६४॥
३८०१. " भो भो पिसाय- भूया ! सरक्खसा जक्ख - नाग-गंधव्वा ! | तुब्भे विहणह मारिं सोस - ज्जरकारया चैव ॥ २६० ॥
२०
३८०६. अहवा सग्गाओ च्चिय पडणं नीसंसयं वियाणेज्जा | 'इंदस्स चिय न केवलमेतं तु सुरस्स इयरस्स” ॥ २६५ ॥
""
१५ ३८०७ एवं ईसाणेण वि उत्तरलोगाधिवेण भणिए य ।
66
इंदस्स चिय न केवलमेयं तु सुरम्स इयरस्स " ॥ २६६ ॥ ३८०८. एवं ति परिग्गहिए तम्मि हिए भासिए सुरिंदेहिं । मुक्कं रयणुम्मीसं दसद्भवण्णं कुसुमवासं ॥ २६७ ॥ ३८०९. चुण्णं नाणावण्णं वत्थाणि य बहुविहप्पगाराई ।
मुक्का सहरिसेहिं सुरेहिं रयणाणि य बहूणि ॥ २६८ ॥ ३८१०. अह देइ वज्जपाणी पराए भत्तीए जिणवरिंदाणं ।
खोमे कुंडलजुयले सिरिदामे चैव य सुरूवे ॥ २६९॥ ३८११. वत्थालंकारविहिं सव्वं जणणीण जिणवरिंदाणं । सक्कस्स देवरण्णो अह देंति वरंऽग्गमहिसीओ ॥ २७० ॥
1.
भणिएण | हं० की ० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689