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न्याय-दीपिका
पादभाष्य, न्यायभाष्य,प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि। तथा जो किसी मूलके व्याख्या-ग्रन्थ न होकर अपने स्वीकृत प्रतिपाद्य विषय का स्वतंत्रभावसे वर्णन करते हैं और प्रसङ्गानुसार दूसरे विषयों का भी कथन करते हैं वे प्रकरणात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे -प्रमाण-समुच्चय, न्यायबिन्दु, प्रमाणसंग्रह, आप्तपरीक्षा आदि । ईश्वरकृष्णकी सांख्यकारिका और विश्वनाथ पञ्चाननकी कारिकावली आदि कारिकात्मक ग्रन्थ भी दिग्नाग के प्रमाणसमुच्चय, सिद्धसेनके न्यायावतार और अकलङ्कदेवके लघीयस्त्रय आदिकी तरह प्रायः प्रकरण ग्रन्थ ही हैं, क्योंकि वे भी अपने स्वीकृत प्रतिपाद्य विषयका स्वतंत्रभावसे वर्णन करते हैं और प्रसङ्गोपात्त दूसरे विषयोंका भी कथन करते हैं । अभिनव धर्मभूषणकी प्रस्तुत न्यायदीपिका' प्रकरणात्मक रचना है। इसमें ग्रन्थकर्ता ने अपने अंगीकृत वर्णनीय विषय प्रमाण और नयका स्वतन्त्रतासे वर्णन किया है, वह किसी गद्य या पद्यरूप मूलकी व्याख्या नहीं है। ग्रन्थकार ने इसे स्वयं भी प्रकरणात्मक ग्रन्थ माना है। इस प्रकार के ग्रन्थ रचनेकी प्रेरणा उन्हें विद्यानन्दकी 'प्रमाण-परीक्षा', वादिराजके 'प्रमाण-निर्णय' आदि प्रकरण-ग्रन्थोंसे मिली जान पड़ती है।
ग्रन्थके प्रमाण-लक्षण-प्रकाश, प्रत्यक्ष-प्रकाश और परोक्ष-प्रकाश ये तीन प्रकाश करके उनमें विषय-विभाजन उसी प्रकारका किया गया है जिस प्रकार प्रमाण-निर्णयके तीन निर्णयों (प्रमाण-लक्षण-निर्णय, प्रत्यक्ष-निर्णय
और परोक्ष-निर्णय) में है । प्रमाणनिर्णयसे प्रस्तुत ग्रन्थ में इतनी विशेषता है कि आगमके विवेचन का इसमें अलग प्रकाश नहीं रक्खा गया है जब कि प्रमाणनिर्णयमें आगमनिर्णय भी है। इसका कारण यह है कि वादिराजाचार्यने परोक्षके अनुमान और आगम ये दो भेद किये हैं तथा अनुमानके भी गौण और मुख्य अनुमान ये दो भेद करके स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्कको गौण अनुमान प्रतिपादित किया है और इन तीनों के वर्णन को तो
१ 'प्रकरणमिदमारभ्यते'-न्यायदा० पृ० ५।